“बंटाधार से बंटाधार तक” जनता का कौन है खेवनहार? -सरयूसुत


स्टोरी हाइलाइट्स

मिस्टर बंटाधार के खिताब से वर्ष 2003 में विपक्ष द्वारा नवाजे गए पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान

“बंटाधार से बंटाधार तक” जनता का कौन है खेवनहार? सरयूसुत मिस्टर बंटाधार के खिताब से वर्ष 2003 में विपक्ष द्वारा नवाजे गए पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह ने वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बंटाधार बताया है| बिजली-सड़क-पानी की अव्यवस्था पर वर्ष 2003 में भाजपा के तत्कालीन नेताओं ने सुश्री उमा भारती के नेतृत्व में दिग्विजय सरकार के खिलाफ जनाक्रोश को भुलाने के लिए उन्हें मिस्टर बंटाधार की उपमा दी थी| इस शब्द को देने वाले भाजपा के दो नेता श्री अनिल दवे और श्री बिजेश लूनावत दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन उनके द्वारा गढ़ा गया यह शब्द तब से लेकर आज तक राजनीति में उफान पर है| यद्यपि मध्य प्रदेश विधानसभा ने अभी हाल ही में संसदीय प्रक्रिया से बंटाधार शब्द के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन राजनीति के लिए यह शब्द आज भी हृदयभेदी और सर्वग्राही बना हुआ है| “बंटाधार से बंटाधार” तक की मध्यप्रदेश की कहानी के नायक “राजनेता” हो सकते हैं लेकिन बंटाधार से पीड़ित-प्रताड़ित जनता के बारे में राजनेताओं ने सांत्वना के दो शब्द आज तक नहीं कहें हैं| पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान मुख्यमंत्री एक दूसरे के समय की शासन व्यवस्था को बंटाधार ही कह सकते हैं, लेकिन जो जनता बंटाधारी व्यवस्था को भुगत रही है और आवाज भी नहीं कर रही है, उसके लिए सामयिक और उपयुक्त शब्द का इज़ाद होना बहुत जरूरी हो गया है| 20 साल पहले जो लोकतांत्रिक शासक थे और जो व्यवस्था थी वह बंटाधार थी| 20 साल बाद फिर वही स्थिति बन गई है| ऐसे में दुखी पीड़ित जनता किस खेवनहार पर भरोसा करे? राजनेता और भरोसा शब्द तो शायद अब एक दूसरे के विरोधी हो गए हैं| 20 साल पहले स्थिति यह थी कि मध्य प्रदेश अंधकार युग में चला गया था| पूरे प्रदेश में अघोषित बिजली कटौती हो रही थी| मुख्यमंत्री निवास पर भी बिजली कटौती हो रही थी| बिजली के साथ ही सड़कों की हालत भी जर्जर थी| सड़कों पर बसों में डिलीवरी होने और मध्य प्रदेश की सीमा में घुसते ही बस में सोते व्यक्ति के जाग जाने के किस्से बहुत प्रचलित हुए थे| अब वर्तमान हालत की चर्चा करें तो 20 साल पहले बिजली और सड़क के मामले में जो स्थिति थी वह स्थिति आज बिल्कुल भी नहीं है| हालाकि यात्रा 20 साल पहले वाली दिशा में ही चल रही है ऐसा लगता है| राजधानी भोपाल में ही सड़कों की स्थिति निराशाजनक है| प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में भी सड़कें कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है| पिछले कुछ दिनों से बिजली की अघोषित कटौती हो रही है| जब मध्य प्रदेश बिजली के मामले में आत्मनिर्भर है तो अघोषित कटौती के क्या कारण है? अचानक विद्युत उत्पादन क्यों कम हो रहा है? बारिश के मौसम में भी हाइड्रो पावर जनरेशन क्यों कम हो रहा है? बिजली कम्पनियां कोयले का भुगतान क्यों नहीं कर पा रहीं हैं? यह सवाल तो हैं! लेकिन हर बार की तरह सरकारें और सरकारी अधिकारी सवालों का सीधा सही जवाब नहीं देते| आंकड़ेबाज़ी और मुद्दों को घुमाने में राजनेताओं और अधिकारियों को शायद महारत होती है| जो भी राजनेता एक दूसरे को बंटाधार बता रहे हैं वह जनता को तो बताएं की बंटाधारी व्यवस्था को जिन लोगों ने भुगता है क्या मताधिकार के माध्यम से सरकार बदलने मात्र से वह कष्ट दूर हो जाते हैं? अब तो राजनीति का एक नया दौर दिखाई पड़ रहा है जिसमें जनादेश के विपरीत नए समीकरण सत्ता को प्रभावित कर देते हैं| अब ऐसा लगता है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है| अब केवल एक बार मत देकर चुप बैठने का समय शायद समाप्त होता जा रहा है| दिग्विजय सिंह जी अपने शासनकाल में पंचायत और नगरीय निकायों में राइट टू रिकाल का प्रावधान लाए थे| उसके आधार पर कुछ जनप्रतिनिधियों को उनके पदों से हटाया भी गया था लेकिन बाद में इसे रद्द कर दिया गया था| इसे रद्द करने में दलों में आम सहमति थी| यदि यह प्रावधान और प्रक्रिया प्रचलित होती तो लोकतंत्र का यह एटम बम लोकतांत्रिक बुराइयों को नियंत्रित और नष्ट करने में शायद कारगर होता| जब भी ऐसी परिस्थितियां बनती है कि किसी प्रक्रिया से राजनीतिक क्षेत्र पर ही आगे चलकर कठिनाई आ सकती है, तो सभी दल मिलकर ऐसी प्रक्रिया को समाप्त कर देते हैं| वेतन भत्ते बढ़ाने की जब बात आती है तो सभी दल एक होकर आम सहमति से विधेयक पारित कर लेते हैं| लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता के हाथ मजबूत हों इस तरफ आगे बढ़ना होगा| यह काम राजनेता शायद नहीं करेंगे| जनता और प्रबुद्ध लोगों को आगे बढ़ना होगा| बिजली एक ऐसा क्षेत्र है जहां उपभोक्ता बाजार के दूसरे सामानों जैसा अपनी क्षमता के अनुरूप खरीद कर उपयोग करता है| लेकिन राजनेता लोगों को लुभाने के लिए बिजली का जब से उपयोग करने लगे तब से ही यह व्यवस्था चरमराना शुरू हुई थी| मध्य प्रदेश का विद्युत मंडल पहले आर्थिक रूप से काफी सक्षम था, धीरे धीरे अब विभाजन के बाद सभी बिजली कंपनियां घाटे में चल रही हैं| सरकारी विभागों पर करोड़ों रुपए बिजली बिल के बकाया हैं, तो गलती उन विभागों की नहीं है| जब उनके पास बिजली बिल के भुगतान के लिए बजट ही नहीं होगा तब वह क्या करेंगे? मतलब इन सारी गड़बड़ियों के लिए सरकार का वित्तीय प्रबंधन ही जिम्मेदार है| आज सरकारें कर्ज लेकर भी अपने खर्चे तक पूरे नहीं कर पा रही हैं| “घर में नहीं दाने और अम्मा चली भुनाने” कहावत सरकारें चरितार्थ कर रही हैं| यह सारी स्थिति निराशाजनक भविष्य का संकेत दे रही हैं| विकास की परिभाषा ही बदल दी गई है| लोगों को “कुछ ना कुछ देते रहो” ऐसा माहौल बनाए रखो कि ये सरकार ही उनकी सबसे बड़ी हितैषी है| निशुल्क बांटने से बन रही मुफ्तखोरी के कारण जो कर्महीन समाज बन रहा है वह क्या भविष्य में प्रगति करेगा? शासन व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन की जरूरत है| शासन के कुछ बुनियादी सिद्धांत निर्धारित हों इसके विपरीत कोई भी सरकार इधर-उधर नहीं जा सके| अभी तो ऐसा लग रहा है कि राजनेता एक दूसरे को बंटाधार का अलंकरण देते रहेंगे और भोली जनता भुगतती रहेगी|