कोई दूसरों का धर्म क्यों बदलवाना चाहता है : -दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

हाल ही में सामने आयी एक घटना से बहुत आश्चर्य तो नहीं हुआ, लेकिन मन सोच में ज़रूर पड़ गया. उत्तरप्रदेश के एक बहुत वरिष्ठ आईएएस अधिकारी......

इफ्तिख़ारउद्दीन प्रसंग पढ़लिख कर सोच बड़ी होने की बात क्या झूठी है -दिनेश मालवीय हाल ही में सामने आयी एक घटना से बहुत आश्चर्य तो नहीं हुआ, लेकिन मन सोच में ज़रूर पड़ गया. उत्तरप्रदेश के एक बहुत वरिष्ठ आईएएस अधिकारी इफ्तिख़ारउद्दीन अपने सरकारी निवास से लोगों को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए “प्रेरित” कर रहे थे. प्रेरित शब्द को उल्टे कॉमा में इसलिए लिखा कि, इस संदर्भ में  इसका वास्तविक मतलब “ललचाना” है. ऐसा होना हैरानी की बात बिल्कुल नहीं है, क्योंकि यह बहुत सामान्य रूप से होता रहा है. बहरहाल मन में सवाल यह उठता है कि, यह महाशय अपनी लम्बी नौकरी के दौरान जहाँ कहीं भी तैनात रहे होंगे, वहाँ उन्होंने यही सब किया होगा. जानकारी तो यह है कि, उनके वरिष्ठ पद पर होने की वजह से उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी. उनकी इस प्रकार की गतिविधियों की अनदेखी की गयी. ऐसा भी कह सकते हैं  कि, पिलपिली और जाति-मजहब के नाम पर बनने वाली सरकारें उनके खिलाफ कार्यवाही नहीं कर पायीं. इस वजह से उनके हौसले बुलंद होते चले गये. सवाल यह भी उठता है कि,जनाब ने “जन्नत” में अपनी जगह रिज़र्व करवाने के लिए न जाने कितने लोगों का धर्म परिवर्तन करवा दिया होगा. इसके अलावा, क्या उन्होंने आला अफसर के नाते मिले अधिकारों का साम्प्रदायिक आधार पर उपयोग नहीं किया गया होगा? उनके विडियो में वह जो बातें कर रहे हैं, वैसी बातें कोई रोशन ख्याल आदमी नहीं कर सकता. इससे एक बात और साबित होती है कि, शिक्षा प्राप्त होने से किसी  व्यक्ति की सोच भी व्यापक हो, यह ज़रूरी नहीं. देखा तो यह जा रहा है कि, जो जितना पढ़लिख रहा है, वैचारिक रूप से उतना ही संकीर्ण हो रहा है. देश के एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण भी हमारे सामने है, जो संविधान के अनुसार दूसरे सबसे बड़े पद पर दस साल रहा, लेकिन पद से हटते ही उसने बहुत संकीर्ण बातें कहीं.  ऐसे “रोशन दिमाग” शायरों और लेखकों की कमी नहीं है, जिनकी सोच किसी अनपढ़ व्यक्ति से भी कमतर है. इसके विपरीत ऐसे बिना पढ़ेलिखे लोग भी कम नहीं हैं, जिनकी सोच बहुत बड़ी है. वे दूसरों के धर्म और परम्पराओं का उतना ही सम्मान करते हैं, जितना अपने धर्म और  परम्पराओं का. ज़रा गावों और शहरों  के अंदरूनी इलाकों का नज़ारा करके देखिये कि, वहाँ किस तरह सभी धर्मों के लोग आज भी मिलजुल कर रहते हैं. उनकी समस्याएं एक हैं, उनकी तकलीफें एक हैं, उनके दुःख-दर्द एक हैं. वे एक-दूसरे के पारिवारों को कई पुश्तों से जानते हैं. वे किस आधार पर एक-दूसरे से बैर कर सकते हैं? इतिहास के अनेक कालखंडों में शासक भले ही लड़ते रहे, लेकिन आम हिन्दू और मुसलमानों के बीच  अधिक दुराव नहीं रहा. अधिकतर लोगों ने एक-दूसरे की मान्यताओं और विश्वासों का सम्मान करते हुए जीवन बिताया. आज भी जिन लोगों के शरीर में देवी-देवता और पीर आने की बात कही जाती है, उनके दरबार में हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग मिल जाएँगे. इनमें स्त्रियाँ अधिक होती हैं, क्योंकि उन्हें धार्मिक मान्यताओं और वर्जनाओं से अधिक अपने बच्चों, और परिवार  पति की सेहत और खुशहाली की फ़िक्र रहती है. ऎसी स्थति में यह बात सहज ही मन में आती है कि, कोई दूसरों को अपने धर्म में लाने लिए क्यों कोशिश करता है. इसके पीछे उनके ग्रंथों में कही गयी बातों की मनमानी व्याख्या भी एक कारण है. इस्लाम और ईसाई धर्मों के अनुयायियों का ऐसा मानना है कि, दूसरे धर्मों के लोगों को उनके धर्म में लाने से उन्हें “जन्नत” या “स्वर्ग” मिल जाएगा. इस बाबत अगर कहीं कुछ लिखा भी होगा, तो उसका संदर्भ और परिप्रेक्ष्य ठीक से नहीं समझकर उसका मनमाना अर्थ निकाल लिया होगा. सोचने की बात है कि, कोई भी बुद्ध पुरुष ऐसा क्यों कहेगा कि, जैसे भी हो, चाहे ताक़त से, चाहे लालच देकर, दूसरों का धर्म परिवर्तन करवाओ. जिन लोगों को परम ज्ञान हो  जाता है, वे इस बात को भी समझ लेते हैं कि, किसी भी राह पर चलकर ईश्वर की भक्ति की जा सकती है. सारे रास्ते एक ही मंज़िल तक जाते हैं. इसके अलावा, ज्ञान को उपलब्ध लोग अपने आसपास के लोगों की बौद्धिक समझ, मानसिकता, आईक्यू आदि देखकर उनके स्तर के अनुसार बात करते हैं. उन्हें बहुत-सी बातें मालूम होती हैं, लेकिन वे उनकी चर्चा इसलिए नही करते कि, उन्हें सुनने वाले लोग, उन बातों को समझकर उन्हें अपनाने की जगह भ्रमित और हो जाएँगे. इसलिए वे कह देते हैं कि, जितना मैं कह रहा हूँ, बस वही सच है. इधर-उधर की बातों में नहीं भटककर सिर्फ वह करो, जो मैं कह रहा हूँ. श्रीमदभगवतगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बहुत-सी सी विचारधारों से मोहित हो कर भ्रमित अवस्था ने निकालने के लिए उन्होंने यही कहा कि “सभी धर्मों को त्यागकर तू मेरी शरण में आ. मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा”. किसी भी ज्ञानी को ऐसा ही करना पड़ता है. गुरु लोग कहते हैं कि, मैं तुम्हें यह मंत्र या साधना पद्धति दे रहा हूँ, बस इस पर अटल रहो, इसीमें तुम्हारा कल्याण है”. वे ऐसा थोड़े ही कह रहे हैं कि, दूसरी साधनाएं और मंत्र ग़लत हैं. भारत का संविधान सभी नागरिकों को अपना धर्म मानने और उसका प्रचार करने की आज़ादी देता है. लेकिन आज़ादी का अर्थ उच्छ्रंखलता थोड़े ही होता है. कोई भी लोगों को अपने धर्म के बारे में बतला सकता है. यदि कोई उस विचारधारा से स्वत: प्रेरित होकर उस धर्म को अपनाना चाहे, तो इस पर कोई रोक भी नहीं है. लेकिन इस उदार प्रावधान का ग़लत ढंग से फायदा उठाकर लोगों को लालच देकर या उन्हें भ्रमित करके अपने धर्म में लाने की कोशिश अपराध है. यह बात भी अब किसीसे छुपी नहीं है कि, धर्म परिवर्तन के लिए विदेशों से पैसा आता है. कुछ लोग और संस्थाएं बहुत सुनियोजित ढंग से इस काम में लगी हुयी हैं. इफ्तिख़ारउद्दीन की बात तो उजागर हो गयी, लेकिन ऐसे न जाने कितने लोग इस काम में लगे होंगे. कुछ तो अभी पकड़ाए हैं और उनके पास से बहुत से ऐसे सबूत मिले हैं, जिनसे एक बहुत बड़े षडयंत्र की बात एकदम स्पष्ट हो जाती है. भारत जैसा उदार सोच का देश पूरी दुनिया में कोई दूसरा नहीं है. इसकी हज़ारों साल की परम्परा यही सिखाती है कि, सभी धर्म समान हैं. इसी कारण यहाँ के हिन्दुओं की सोच बहुत उदार रही है. अगर हिन्दू साम्प्रदायिक होता, तो उसने आजादी के बाद “जनसंघ” या “ “हिन्दू महासभा” की सरकारें बनवायी होतीं. इसके बाद भी  कतिपय राजनितिक दलों ने भी वोट बैंक की ख़ातिर अनेक ऐसे लोगों की अनदेखी की, जो देश में सुनियोजित धर्म परिवर्तन का कार्य करते रहे हैं. उन्हें राष्ट्र और समाज के व्यापक हित की जगह अपना राजनीतिक हित अधिक मूल्यवान लगा. वे भी उतने ही अपराधी हैं, जितने इस षडयंत्र में शामिल लोग. बहरहाल सहनशक्ति और सहिष्णुता की एक सीमा होती है. संत तुलसीदास ने कहा है  कि, “चन्दन की लकड़ी को  भी बहुत रगड़ा जाये, तो उसमें से भी  अग्नि निकलने लगती है”. आज हिन्दुओं में जो कुछ कट्टरता आ रही है, उसका कारण यही है. इफ्तिख़ारउद्दीन जैसे लोगों को उसके धर्म के ही भारतीय नागरिकों को नकार देना चाहिए. ऐसा नहीं होना किसीके भी हित में नहीं है. ये भी पढे: इंसान से बड़ा मूर्ख संसार में कोई जीव नहीं, शास्त्रों ने कहीं व्यंग्य में तो सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं कहा.. दिनेश मालवीय