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हर काल, दर्द का वही हाल

सार

अजीब हालात हैं. देश के दोनों राष्ट्रीय दल बीजेपी और कांग्रेस एक दूसरे को संविधान का हत्यारा साबित करने में जुटे हुए हैं. दो पाटों के बीच पिस कर तो कोई भी नहीं बचता. बीजेपी आपातकाल के पचास साल के दिन को संविधान हत्यादिवस के रूप में मना रही है तो कांग्रेस संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर के अपमान को लेकर बीजेपी को कटघरे में खड़ा कर रही है..!!

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विस्तार

     आपातकाल कांग्रेस का अतीत और इतिहास का अन्याय काल रहा है. जबकि अंबेडकर के अपमान का आरोप राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता. ऐसा लगता है, दिवंगत महापुरुषों का सम्मान से ज्यादा अपमान के मामलों में नाम उछाला जाता है. अगर स्मृतियों को जीवंत रखने में अपमान की घटनाएं इतनी कारगर हैं तो फिर यह दाग अच्छे ही हैं.

    राजनीतिक दलों का एजेंडा अलग है. इसको देश के एजेंडे से घालमेल नहीं किया जा सकता. संविधान की हत्या का संघर्ष जारी है. यह आगे भी जारी रहेगा. एक आम नागरिक की दृष्टि से हर अन्याय काल, आपातकाल जैसा  ही होता है. जो दर्द भोगता है, उसे ही पता होता है कि, हर काल का दर्द वही होता है.

    आपातकाल के पचास साल पूरे होने पर अतीत की घटनाओं पर वार-पलटवार हो रहे हैं. हम इस दिन को वर्तमान की नजर से देखना चाहते हैं. आपातकाल के पचास साल के पहले सप्ताह की खबरों का हाल बिना कुछ कहे सब कुछ बता रहा है. एक ही दिन 25 जून में पांच खबरें पढ़ने को मिली.

   पहली खबर भूखे सिस्टम द्वारा रूपये 858 करोड़ के  झूठे पोषण आहार वितरण से जुड़ी हुई है. यह गड़बड़ी कैग द्वारा पकड़ी गई है. लोकायुक्त ने इस पर जांच भी प्रारंभ की है. पोषण आहार उनको दिया जाता है जो कुपोषित हैं. जिनका जीवन संकट में है. संकट में समाधान देना जिस सिस्टम की जिम्मेदारी है, वही अपने लाभ के लिए उसका उपयोग करने लगे तो फिर इसे कौन सा काल कहा जाएगा? आपातकाल नहीं तो कम से कम इसे अन्याय काल तो कहा ही जा सकता है.

    दूसरी खबर आगर-राजगढ़ जिले की सीमा पर बने कुंडलिया डैम में मुआवजा घोटाले से संबंधित है. अफसरों ने फर्जी आधार से बच्चों को अठ्ठारह साल का दिखाकर मुआवजा हड़प लिया. जो वास्तविक हकदार थे, वह तो तड़पते रहे लेकिन फर्जी लोगों के नाम पर मुआवजा अफसरों ने हजम कर लिया. जनधन हड़पने की सिस्टम की यह नीति और कार्य प्रणाली के दुष्प्रभाव क्या आपातकाल से कम कहे जा सकते हैं?

    तीसरी खबर रेरा द्वारा स्मार्ट सिटी के सभी रेजिडेंशियल कमर्शियल प्रोजेक्ट रोके जाने की है. स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के लिए राज्य सरकार द्वारा भूमि दी गई है. यह प्रोजेक्ट वर्ष 2015 में शुरू किया गया था. स्मार्ट सिटी मिशन अपने दस साल पूरे कर चुका है. इस मिशन के अंतर्गत आम जनता को जो सपने दिखाए गए थे, वह इतने वर्षों बाद भी पूरे नहीं हुए हैं. अब हालात यह है कि मिशन ही अपने अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहा है. 

    रेरा के खिलाफ़ स्मार्ट सिटी मिशन हाईकोर्ट गया है. रेरा भी एक संवैधानिक संस्था है और राज्य सरकार एवं उसके द्वारा गठित मिशन भी संविधान के अंतर्गत ही कार्य करते हैं. रेरा ने कुछ शर्त लगाई है तो निश्चित रूप से वह नियम के अंतर्गत ही होगी. यह अलग बात हैकि, सरकारी प्रोजेक्ट में इतनी रिजिड होने की आवश्यकता नहीं है. स्मार्ट सिटी के लिए जिन हजारों लोगों को बेघर किया गया था, जिन मकानों को ध्वस्त कर दिया गया था, जो प्लान बनाया गया था, उस पर अब तक अमल नहीं हो सका है. 

     क्या यह सिस्टम की निरंकुशता और ज्यादती नहीं कही जाएगी?  इसके लिए क्या किसी आपातकाल की आवश्यकता है? ऐसी घटनाएं सिस्टम में अतार्किक और तानाशाही पूर्ण कार्य शैली की ओर इशारा करती हैं.

    चौथी खबर आदिवासी बाहुल्य अलीराजपुर के बीईओ कार्यालय में बीस करोड़ के गबन से जुड़ी हुई है. इस मामले में ईडी द्वारा डाले गए छापे पर यह खबर है, जो पैसा आदिवासियों के हित के लिए खर्च किया जाना था, उसका गबन हो जाए, वास्तविक हकदार वंचित रहे और सिस्टम के चोर लाभ उठाएं, वंचित हकदार का दर्द आपातकाल में भी वही होगा और सामान्य काल में भी वही रहेगा. दर्द की अनुभूति में कोई अंतर नहीं होगा. 

    पांचवी खबर मुख्यमंत्री दुधारु पशु योजना में गड़बड़ी से जुड़ी है. आदिवासियों के हिस्से की भैंस दबंग पी गए हैं. दबंगों ने कुछ भैंस बेच दी और कुछ अपने बाड़े में बांध ली. यह योजना बैगा, भारिया और सहरिया जनजाति के परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए थी.  इस खबर का भी सार यह है कि, जो पीड़ित है, वंचित है, उसके लिए तो हर काल आपातकाल है. उसके अधिकारों और हक का जहां भी हनन हो रहा है वह आपातकाल ही कहा जाएगा.

   भले ही यह खबरें मध्य प्रदेश से संबंधित हैं लेकिन किसी भी राज्य में हर दिन ऐसी ही खबरें सामने आती है. सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि, ऐसी खबरें भी सिस्टम को विचलित नहीं करती है. संवेदनशील कहे जाने वाला प्रशासन इतना असंवेदनशील हो गया है, कि उन्हें यह खबरें भी परेशान नहीं करती. जो सार्वजनिक रूप से तथ्यों के साथ सामने आ चुका है, उन पर सिस्टम का इतना नकारात्मक रवैया है तो फिर जो उजागर नहीं हुए हैं उन पर तो क्या कहना?

   सिस्टम निर्मित हादसे और कार्य प्रणाली से जिनको भी दर्द मिल रहा है, उनके लिए हर काल मानो आपातकाल है. इसे कालखंड के रूप में देखने से समाधान नहीं हो सकता. इसे एक मानसिकता के रूप में समझना पड़ेगा. उसको बदलना पड़ेगा. शासन चाहे एक्स के नियंत्रण में हो चाहे वाय के, लेकिन दर्द में दोनों को समान होना चाहिए.  

   बातों से ना संविधान बचेगा ना आपातकाल का वायरस मिटेगा. सच कहना, सुनना, बोलना और उसके लिए लड़ना पड़ेगा. सिस्टम और दर्द का सच एक है. इस सच को राजनीति से बहुत लंबे समय तक भटकाया नहीं जा सकता.

     जैसे जन्म में मृत्यु छुपी होती है, वैसे शुरुआत में ही अंत छुपा होता है. जिसके पास जितना भी काल है, वंचित का थोड़ा भी दर्द कम कर सके तो जीवन सफल माना जाएगा.