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मणिपुर : केंद्र और राज्य दोनों ही विफल 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 19 May

सार

आँकड़े  बताते हैं कि संघर्ष में भाजपा शासित इस राज्य में दो सौ से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। इतना ही नहीं, संघर्ष में हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। जो विभिन्न शरणार्थी शिविरों में अपने दिन गुजार रहे हैं..!!

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विस्तार

कमोबेश बेहद शांत कहे जाने वाले मणिपुर में हिंसक संघर्ष शुरू हुए लगभग एक साल बीत चुका है। पिछले  साल तीन मई से इस राज्य में जातीय संकट के भयावह दृश्य नजर आये थे। जातीय संकट से जूझ रहे राज्य में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के विरोध में ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ कालांतर हिंसक संघर्ष में बदल गया । 

इसके बाद मणिपुर की घाटी में रहने वाले मैतेई व पहाड़ियों में रहने वाले आदिवासी कुकी समुदाय के बीच हिंसक झड़पे शुरू हो गई थीं। आँकड़े  बताते हैं कि संघर्ष में भाजपा शासित इस राज्य में दो सौ से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। इतना ही नहीं, संघर्ष में हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। जो विभिन्न शरणार्थी शिविरों में अपने दिन गुजार रहे हैं। 

यह विडंबना ही है कि केंद्र व राज्य सरकारें दोनों समुदायों के बीच उत्पन्न मतभेदों को दूर करने में विफल रही हैं। जिसके चलते राज्य में शांति व सामान्य स्थिति की बहाली नहीं हो पायी है। विपक्षी दल कुशासन व अक्षमता के आरोप लगाकर लगातार मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को हटाने की मांग करते रहे हैं, लेकिन भाजपा उनके साथ लगातार खड़ी नजर आई। हालांकि, बीते साल स्वतंत्रता दिवस समारोह के मौके पर अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि पूरा देश मणिपुर के साथ खड़ा है। यह भी कि केंद्र और राज्य सरकारें इस जटिल मुद्दे के समाधान के लिये यथासंभव प्रयास करेंगी, परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं।

हालांकि, कई बार केंद्र सरकार की ओर से हिंसा प्रभावित राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति में सुधार की बात भी कही गई। वहीं दूसरी ओर विपक्ष लगातार आरोप लगाता रहा है कि प्रधानमंत्री देश-दुनिया की यात्राएं लगातार करते हैं लेकिन उन्होंने मणिपुर जाकर दूरियां घटाने का प्रयास नहीं किया। विपक्ष कहता रहा है कि केंद्र सरकार ने मणिपुर के लोगों को उनकी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया। 

कहा जाता रहा है कि केंद्र की राजनीति में मणिपुर की बड़ी भूमिका नहीं होती, इसलिए इस संकट के समाधान की तरफ गंभीर पहल नहीं हुई। दरअसल, राज्य से दो ही सांसद चुने जाते हैं, इसलिये चुनाव को लेकर शेष भारत जैसी गहमागहमी राज्य में नजर नहीं आई। इसके बावजूद अच्छी बात यह है कि इस दु:स्वप्न के बाद भी मणिपुरियों की लोकतंत्र में आस्था को कम नहीं किया जा सका। लोगों ने शेष भारत से अधिक प्रतिशत में अपने मताधिकार का प्रयोग किया। असामाजिक तत्वों द्वारा ईवीएम को नुकसान पहुंचाने तथा मतदाताओं को धमकाकर मतदान को बाधित करने के प्रयासों को लोगों ने भारी मतदान से निरर्थक बना दिया। 

ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों को अपने व्यवहार में धीरता-गंभीरता लानी चाहिए। उन समूहों व संगठनों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जो दोनों समुदायों के जख्मों पर मरहम लगाने का काम कर सकें। मणिपुर की तनावपूर्ण स्थितियों को काफी समय हो चुका है। यह राज्य अंतर्राष्ट्रीय सीमा के निकट एक संवेदनशील क्षेत्र है। इस सीमावर्ती राज्य में शांति और स्थिरता लाने के लिये नीतियों में बदलाव लाने की सख्त जरूरत है।