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शहीदों को पाठ्यक्रम में मिले स्थान 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 28 Apr

सार

असंख्य वीर बलिदानी ऐसे हैं जिन्हें कभी न इतिहास में स्थान मिला है, न लोक गाथाओं में, और शिक्षा जगत में तो उनको कभी स्थान मिला ही नहीं... 

janmat

विस्तार

कहने को हमारे देश भारत का इतिहास उन वीर बलिदानी भारत के बेटे-बेटियों से भरा है जिन्होंने स्वतंत्रता पाने के लिए देश हित में बलिदान दिया। इसके साथ ही असंख्य ऐसे हैं जिन्हें कभी न इतिहास में स्थान मिला है, न लोक गाथाओं में, और शिक्षा जगत में तो उनको कभी स्थान मिला ही नहीं। 

देश में शायद ही कोई होगा जो नहीं जानता कि 1857 के संग्राम में यह देखा-सुना गया कि अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति विफल होने के बाद गांवों में, शहरों में असंख्य लोगों को फांसी पर लटकाया। यह भी कहा जाता है कि गांवों में जब वृक्षों पर लटकाकर फांसियां दी गईं तो जितनी बड़ी शाखाएं थीं उसके साथ उतने ही व्यक्तियों को फांसी के लिए लटकाया गया। यह तो कल की बात है, 1857 से लेकर दो वर्ष तक यह दमनचक्र चला। अगर देश उसे ही नहीं जानता,तो क्या आशा रखी जा सकती है कि उससे पहले के इतिहास की सही जानकारी कभी स्वतंत्र भारत की सरकारों ने देशवासियों को दी मिलेगी । 

इसके पश्चात फिर इस सदी की ताजी घटना है कि अंडेमान की जेल, जिसे काला पानी कहते थे, वहां कितने लोग शहीद हुए, कितने बैलों की तरह कोल्हू में जोते गए। कितने लोगों को फांसी देकर बिना किसी अंतिम संस्कार के सागर में फेंक दिया गया। आज तक देश को इन सारे शहीदों की जानकारी नहीं दी गई। ऐसे में शहीदों की चिताओं पर मेले लगने की बात तो बहुत दूर है, बेमानी है ।

स्वतंत्रता के पश्चात जब हम लोगों ने स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, स्कूलों की दीवारों पर, हर कक्षा में शहीदों के चित्र लगाए जाते थे, यद्यपि उनकी संख्या सीमित थी। शहीदों के दिन मनाए जाते थे और पाठ्यक्रम में भी इन ज्ञात-अज्ञात वीरों की कहानियां पढ़ाई जाती थीं। बंग भंग आंदोलन जो 1905 से लेकर 1911 तक चला और फिर कलकत्ता से चलकर दिल्ली राजधानी बनाई गई, उस बंग भंग आंदोलन में खुदीराम, कन्हाई, नरेंद्र जैसे कितने वीर हाथ में गीता लिए अंग्रेज सरकार से जूझते हुए फांसी पर चढ़ गए। उनके संबंध में भी देशवासी अधिक नहीं जानते। बहुत दूर की बात क्या की जाए, अमृतसर से दो बेटे 1906 से 1909 के बीच श्री मदनलाल ढींगरा और उसके बाद 1940 में शहीद ऊधम सिंह ने भारत में भारतीय स्वाभिमान और  देश भक्ति का जो उदाहरण प्रस्तुत किया वह भी विश्व में अतुलनीय है, लेकिन दुखद सत्य यह है कि इन हुतात्माओं की जन्मभूमि, कर्मभूमि अमृतसर और पंजाब के लोग ही इन वीरों के विषय में कुछ नहीं जानते। 

यह उत्तम बात है कि 1973 में पहले शहीद ऊधम सिंह की और उसके बाद शहीद ढींगरा की अस्थियां लंदन की पैटन विले जेल से भारत लाई गईं। उनको उचित सम्मान भी दिया गया, पर मदनलाल ढींगरा के साथ न्याय नहीं हुआ, क्योंकि किसी भी सरकार ने उसकी अपनी ही जन्मभूमि अमृतसर में उसको कोई स्थान नहीं दिया। उसका स्मारक नहीं बना और लंबे संघर्ष के बाद जो अब बनाया जा रहा है, वहां भी भवन तो बन गया, लेकिन उसकी आत्मा ढींगरा से संबद्ध साहित्य इंग्लैंड में उसके बलिदान के चिन्ह आज तक भारत नहीं लाए गए, यद्यपि सरकारों को बार-बार आग्रह किया, जगाने का प्रयास किया, पर त्रेता में एक कुंभकरण था, आज हर सरकार में, हर विभाग में कुंभकरण से भी बड़े कुंभकरण विद्यमान हैं। कई अन्य शहीद भी सम्मान से वंचित हैं। कल 23 मार्च को भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु का शहीदी दिवस मनाने जा रहे हैं। शहीदों को पाठ्यक्रम में स्थान मिले, यह उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।