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चीन से ज्यादा परेशान करता सियासी सीन

सार

चीन द्वारा अरुणाचल प्रदेश के तवांग में भारत की सीमा पर अतिक्रमण की कोशिशों पर भारतीय सेना की जांबाजी और उन्हें वापस उनकी सीमा में धकेलने की रणनीति पर निर्मित सियासी सीन और भारतीय संसद में भारत चीन युद्ध जैसा माहौल दुर्भाग्य जनक है। राष्ट्र की सुरक्षा और सीमाओं की रक्षा में सर्वस्व समर्पण करने वाले भारतीय सेना के जवानों पर क्या कोई सियासी सवाल जवाब किया जा सकता है? सरकार भी जो कुछ संसद में सामने रख रही है वह सेना का वक्तव्य है। उसे सियासत से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। 

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विस्तार

भारत की सियासत में न मालूम यह कौन सा दौर आ गया है कि घरेलू आंतरिक राजनीति के नफा नुकसान के लिए अंतरराष्ट्रीय विषयों का भी राजनीतिक नजरिए से उपयोग-दुरुपयोग किया जाने लगा है। चीन और भारत के रिश्ते हमेशा तनावग्रस्त और रक्षात्मक ही रहे हैं। आजाद भारत को अपना पहला युद्ध चीन के साथ ही लड़ना पड़ा था। उसके बाद कूटनीतिक और सामरिक स्तर पर रिश्तों में कभी ठंडापन तो कभी गर्मजोशी आती रही लेकिन विश्वास के रिश्ते कभी भी चीन के साथ स्थापित नहीं हो सके। आजाद भारत जब साठ के दशक में उनका मुकाबला डटकर कर सकता था तो आज तो नया भारत चीन के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। 

भारत ने पूरे विश्व में चीन की रणनीतियों को लकवा ग्रस्त कर दिया है। दुनिया का कोई भी मजबूत राष्ट्र अब चीन के साथ खुले रूप से खड़ा होने के लिए तैयार नहीं है। चीन अपनी विस्तारवादी नीतियों के लिए पहले दूसरे देशों में निवेश करता है फिर उनकी अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे अपना नियंत्रण बढ़ाता है। श्रीलंका में आर्थिक संकट के लिए भी चीन की इन्हीं नीतियों को जिम्मेदार माना गया है। पाकिस्तान पर चीन ने अपनी इसी रणनीति पर आगे बढ़ते हुए अपना काफी हद तक नियंत्रण बना लिया है। 

भारत आज दुनिया की पांचवी अर्थव्यवस्था है। सैनिक क्षमता की दृष्टि से भी भारत का स्थान दुनिया में चौथे नंबर पर है। भारत ने पिछले समय में विकास की अपनी रणनीतियों में ऐसा सक्षम बदलाव किया है कि आज व्यापारिक दृष्टि से भी भारत चीन के लिए बड़ा बाजार नहीं बचा है। भारत अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा है। चीन का दुनिया के कई राष्ट्रों के साथ सीमा विवाद बना हुआ है। महासागर में भी चीन की रणनीतियां कई देशों को परेशान कर रही हैं।  

भारत के लिए भी चीन द्वारा लगातार सिरदर्द पैदा किया जाता रहता है। चाहे डोकलाम का विवाद हो, लद्दाख में गलवान की घटना हो या अरुणाचल में तवांग की घटना हो। चीन भारत के साथ धोखे से अतिक्रमण की कोशिश करता है लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ती है। चीन के इन हरकतों को देखकर तो कई बार ऐसा लगता है कि चीन की आंतरिक घरेलू समस्याओं से पीड़ित वहां का राजनीतिक नेतृत्व भारत के साथ इस तरह की घटनाओं का उपयोग अपने देश में जनता का ध्यान भटकाने के लिए कर रहा है। जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं तब विश्वभर की प्रतिक्रियाएं भारत के समर्थन में होती हैं। हमेशा चीन को पीछे हटना पड़ा है। इसके बावजूद भारत का सियासी सीन बहुत अधिक परेशान करने वाला है। 

संसद में विपक्ष इस बात पर अड़ा है कि तवांग की घटना पर चर्चा की जानी चाहिए। सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो, सीमाओं की सुरक्षा सेना के हाथ में होती है। संसद में कोई भी सरकार बयान दे लेकिन वह पूरा वक्तव्य सेना का ही माना जाएगा। वक्तव्य पर पूर्ण विश्वास करने के अलावा राजनीतिक प्रश्नचिन्ह लगाने का कोई अवसर नहीं आना चाहिए। 

इस मामले में भारत के राजनीतिक दलों का आचरण कई बार निराशाजनक रहा है। राष्ट्र के मुद्दे पर भारत के राजनीतिक दल विभाजित हैं, दुनिया को इससे क्या संदेश जा रहा है? ऐसे हालात निश्चित ही राष्ट्र के लिए ही नुकसानदेह हैं। तवांग पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि घटना के कई दिन बाद अखबारों में मामला सामने आने के बाद संसद में सरकार ने जानकारी दी है। सीमा पर जब चीनी सेना का मुकाबला भारतीय सेना के जवान कर रहे थे, उस समय वहां कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं थी। वहां भारत का सैनिक भारत की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाए हुए था। चीन की सेना को तो भारत के जवानों ने भगा दिया लेकिन भारत के राजनीतिक सैनिकों के करतब सेना को भी आश्चर्य में डालते हैं। 

यह कोई पहला अवसर नहीं है। पाकिस्तान पर जब बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक की गई थी तब भी राजनीतिक सवाल उठाए गए थे। उस समय तो यहां तक कहा गया था कि सर्जिकल स्ट्राइक हुई ही नहीं है। सेना से जुड़े घटनाक्रम में राजनीतिक नजरिए से चिंतन ही राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यजनक है। चाहे वह सत्ताधारी दल हो या विपक्षी राजनीतिक दल, सेना के विषय पर दोनों पक्षों को धारणा शून्य होकर अपने विचारों को सामने रखना चाहिए।  

भारत की सीमाओं की सुरक्षा की चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। सेना में भर्ती के लिए जब अग्निवीर योजना सरकार द्वारा सेना की सहमति के साथ प्रारंभ की गई थी तब इसे भी राजनीतिक हादसे का शिकार बनाया गया था। तवांग की घटना को सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से उपयोग कर रहे हैं।

सत्ताधारी दल भी विपक्ष को चीन के साथ उनके संबंधों और संपर्कों का हवाला देकर सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा है। सबसे बड़े दल कांग्रेस को तो सरकार की ओर से राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन की ओर से लिए गए फंड को लेकर सवालों के घेरे में भी खड़ा किया गया है। स्थिति कितनी चिंताजनक है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्यों में भी राजनीतिक दलों की ओर से चीन की घटनाओं को जोड़कर राजनीतिक बयानबाजियां सामने आ रही हैं। अंतरराष्ट्रीय मामलों में राज्य स्तर पर कोई भी आरोप-प्रत्यारोप पूरी तरह से अवांछनीय हैं लेकिन फिर भी राजनीति इस पर नहीं रुकती।

सत्ता की राजनीति के लिए राष्ट्र की आन-बान और शान पर सवाल भारतीय राजनीति का सबसे दुखद अध्याय कहा जाएगा। इस पर राजनीतिक आम सहमति बनना चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल इस को राजनीति के लिए उपयोग नहीं करेगा तभी भारत विश्व पटल पर मजबूती के साथ खड़ा हो सकेगा। सोवियत रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के घटनाक्रम में यूक्रेन के नागरिकों ने तमाम तबाही और बर्बादी के बाद अपने राष्ट्र के लिए जो जज्बा और बलिदान का भाव दिखाया है, वह प्रेरणादायक है। युद्ध के कारणों का विश्लेषण हो सकता है लेकिन जब राष्ट्र पर संकट की स्थिति हो तो एकजुटता ही विजय की गारंटी हो सकती है।