मध्यप्रदेश में शीर्ष पदों की रिक्तता से शासन जकड़ा, उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप की मांग तेज़


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स्टोरी हाइलाइट्स

अस्थायी व्यवस्थाओं पर टिका प्रशासन, नीतिगत निर्णयों की गति थमी — सुशासन पर उठे प्रश्न..!

भोपाल। मध्यप्रदेश शासन की कार्यकुशलता और प्रशासनिक स्थिरता इन दिनों गंभीर मंथन के केंद्र में है। राज्य के अनेक महत्त्वपूर्ण विभाग — विधि एवं विधायी, गृह, सामान्य प्रशासन, महिला एवं बाल विकास, और अन्य संवेदनशील इकाइयाँ — अपने शीर्ष पदों के अभाव में दिशा-हीन से प्रतीत हो रहे हैं।

सरकार ने इन रिक्तियों को भरने के स्थान पर “अतिरिक्त प्रभार” की तदर्थ व्यवस्था अपनाई है, किंतु यह अस्थायी समाधान अब स्वयं समस्या बनता जा रहा है। परिणामस्वरूप, नीतिगत निर्णयों की गति मंद पड़ी है और शासन की फाइलें धूल फाँक रही हैं।

सूत्रों के अनुसार, कई विभागों में एक ही वरिष्ठ अधिकारी को दो से तीन विभागों का दायित्व सौंप दिया गया है।

ऐसे में प्रशासनिक संतुलन बिगड़ गया है — फाइलों का निस्तारण समय पर नहीं हो पा रहा, विभागीय बैठकों में निर्णय टल रहे हैं, और नीति निर्माण का क्रम अनिश्चित हो गया है।

जहाँ शासन की गति होनी चाहिए, वहाँ अब केवल औपचारिकता की आहट सुनाई दे रही है।

वैधानिक निकायों की निष्क्रियता — जनविश्वास पर आघात

राज्य के लोकायुक्त संगठन, मानवाधिकार आयोग, तथा बाल अधिकार संरक्षण आयोग जैसे संवैधानिक निकाय भी अपनी अपूर्ण संरचना के कारण निष्क्रियता की स्थिति में हैं।

लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग में सदस्यों की नियुक्तियाँ महीनों से लंबित हैं, जिसके कारण जाँच-प्रक्रिया और जनसुनवाई की गति शिथिल हो गई है।

इसी क्रम में, राज्य महिला आयोग की स्थिति और भी चिंताजनक है — जहाँ छह से आठ हज़ार प्रकरण लम्बित हैं, किंतु सदस्य पद रिक्त पड़े हैं।

महिलाओं से जुड़े उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और कार्यस्थल मामलों की सुनवाई की रफ़्तार सुस्त पड़ी है, जिससे पीड़ितों में निराशा व्याप्त है।

सूचना आयोग भी अधूरा — पारदर्शिता पर छाया कुहासा

राज्य सूचना आयोग में भी सभी सूचना आयुक्तों की नियुक्ति पूरी नहीं हो सकी है।सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के तहत आने वाले प्रकरणों का निस्तारण महीनों तक अटका रहता है।

विशेषज्ञों का मानना है कि आयोग की अधूरी संरचना से न केवल पारदर्शिता की प्रक्रिया कमजोर हुई है, बल्कि नागरिकों का शासन-तंत्र पर भरोसा भी डगमगाने लगा है।

प्रशासनिक विशेषज्ञों की चेतावनी — “अतिरिक्त प्रभार कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं”

सेवानिवृत्त नौकरशाहों और प्रशासनिक विशेषज्ञों का कहना है कि शीर्ष पदों की लगातार रिक्तता शासन की निर्णय क्षमता, उत्तरदायित्व और सिस्टम की पारदर्शिता — तीनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है।

उनके अनुसार, अतिरिक्त प्रभार केवल “तात्कालिक राहत” देता है, परंतु दीर्घकाल में यह सुशासन की जड़ों को कमजोर करता है।

इन परिस्थितियों में अब बुद्धिजीवी वर्ग और सामाजिक संगठनों की ओर से यह मांग ज़ोर पकड़ रही है कि मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय इस मामले में स्वतः संज्ञान लेकर सरकार को सभी रिक्त पदों पर शीघ्र नियमित नियुक्तियों के निर्देश दे।

लोगों का मानना है कि जब शासन का ढांचा ही अधूरा हो, तो जनता की अपेक्षाओं की पूर्ति केवल घोषणाओं से संभव नहीं।

सुशासन के आईने में सरकार

यह पहली बार नहीं जब प्रदेश में शीर्ष पद लंबे समय तक खाली रहे हों। किन्तु इस बार मामला अधिक गंभीर है — क्योंकि रिक्तियों की संख्या और उनका महत्व, दोनों ही अब पहले से कहीं अधिक हैं।

सरकारी निर्णयों की सुस्ती और वैधानिक संस्थाओं की निष्क्रियता ने प्रदेश के सुशासन मॉडल पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है।

मध्यप्रदेश इस समय एक ऐसे प्रशासनिक चौराहे पर खड़ा है जहाँ स्थायी नेतृत्व की अनुपस्थिति ने शासन को अस्थिर और जड़वत बना दिया है।

यदि सरकार शीघ्र निर्णायक कदम नहीं उठाती, तो यह न केवल नीति निर्माण की गति को बाधित करेगा, बल्कि आमजन के मन में शासन के प्रति विश्वास और पारदर्शिता — दोनों की नींव को भी हिला सकता है।
राज्य को अब निर्णय चाहिए — सक्रिय शासन का, न कि प्रतीक्षा के शासन का।