स्टोरी हाइलाइट्स
आज फेसबुक पर एक समाचार देखा कि एक राज्य सरकार ने मृत्यु के बाद की जाने वाली तेरहवीं पर प्रतिबंध लगा दिया है...
हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद तेरहवीं क्यों की जाती है, तथ्यों को समझें तो यह बहुत ज़रूरी है.. दिनेश मालवीय
आज फेसबुक पर एक समाचार देखा कि एक राज्य सरकार ने मृत्यु के बाद की जाने वाली तेरहवीं पर प्रतिबंध लगा दिया है. समाचार में यह भी लिखा गया था कि तेरहवीं पर किये जाने वाले विधि-विधानों पर भी रोक लगा दी है. यह समाचार सही है या गलत, इसकी पुष्टि तो नहीं हो सकी. कोई राज्य सरकार ऐसा कर सकती है, इस पर सहज विश्वास नहीं होता. लेकिन इस बहाने इस बहुत महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने का अवसर ज़रूर मिल गया.
तेरहवीं को लेकर बहुत सी बातें कही जाती रही हैं. इसकी निंदा करके इसपर रोक लगाने की माँग भी की जाती रही है. अगर इस पर गहराई से विचार किया जाए तो यह माँग भी उस एजेण्डा का एक हिस्सा है, जिसमें कथित बुद्धिजीवियों द्वारा हिन्दू धर्म की हर आस्था, परम्परा, रीति-रिवाज आदि को अन्धविश्वास या बुराई कहकर उसे हटाने की पुरजोर वकालत की जाती है. वे लोग किसी भी दूसरे धर्म के रीति-रिवाजों पर सवाल नहीं उठाते.
यह सच है कि समय के साथ परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अनुष्ठानों में कुछ विकृतियाँ आ जाती हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी प्रासंगिकता ख़त्म हो गयी और उन्हें पूरी तरह खत्म कर दिया जाना चाहिए. आवश्यकता उनमें आई विकृतियों को दूरकर उनके मूल स्वरूप में लाने की है. ऐसा नहीं होता कि बाल्टी के पानी के साथ बच्चे को भी फैंक दिया जाए. यह एक बात कई वर्षों से देखने माँ आ रही है कि किसी परिवारजन की मृत्यु के बाद तेरहवीं के आयोजन में बहुत आडम्बर करते हैं. इसमें अपनी सम्पन्नता, वैभव और अमीरी का प्रदर्शन करते हैं. कहीं-कहीं तो पूरे गाँव और आसपास के गाँव के भी लोगों को भोजन करवाते हैं. बड़े लोगों के ऐसा करने पर गरीब लोग भी उनका अनुकरण करने लगे हैं. उनकी हैसियत नहीं होने पर वे घर की चीजें बेचकर या क़र्ज़ लेकर ऐसा करने लगे हैं. यह एक प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया है. ऐसी स्थिति में कम पैसे वाले या बहुत गरीब लोगों पर बहुत आर्थिक संकट आ जाता है.
तेरहवीं का मूल स्वरूप
उपरोक्त विकृति को तो दूर करना ही चाहिए, लेकिन इसके साथ ही तेरहवीं का उद्देश्य और उसके मूल स्वरूप को भी समझा जाना चाहिए. किसी भी धर्म को मानने वाले लोगों के लिए उनके ग्रंथों में जीवन के विशेष अवसरों के लिए कुछ अनुष्ठान और कर्मकांड निर्धारित किये गये हैं. सभी धर्मनिष्ठ लोग उनका पालन करते हैं. मुस्लिमों में चालीसा मनाया जाता है और दूसरे धर्मों में अन्य तरह के अनुष्ठान निर्धारित हैं, जिनका उस धर्म को मानने वाले लगभग सभी लोग पालन करते हैं. हिन्दू धर्म में तेरहवीं को जीवन के सोलह संस्कारों में बहुत महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है.
हिन्दू धर्म में गरुड़पुराण इस विषय पर सबसे अधिक प्रमाणिक माना जाता है. इसके अनुसार मृत्यु के बाद तेरहवीं में अनेक अनुष्ठानों के साथ परिवार और प्रियजनों को भोजन करवाने का विधान है. लोग अपनी क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों, बहन-बेटियों तथा आने वाले रिश्तेदारों को भोजन करवाते हैं. मृतक के प्रियजन और मित्रों आदि को भी भोज में बुलाया जाता है. इसमें किसी प्रकार के फालतू खर्च और दिखावे की कोई बात नहीं कही गयी है. इससे मरने वाले व्यक्ति कि आत्मा को ख़ुशी होती है. लेकिन इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि अपनी हैसियत या क्षमता से आगे जाकर यह सब किया जाए. यह बहुत सादगी से किया जाना चाहिए.
जो धनवान लोग बहुत भव्य आयोजन करते हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि वे समाज के सामने गलत उदाहरण रख रहे हैं. गरीब लोग भी कर्ज लेकर ऐसा करने पर मजबूर हो जाते हैं. गरुडपुराण में भगवान् विष्णु ने कहा ही कि यदि कर्ज लेकर मृत्युभोज कराया जाता है, तो आत्मा को पूर्ण रूप से मुक्ति प्राप्त नहीं होती. गरुड़पुराण और अन्य ग्रंथों में तेरहवीं और मृत्युभोज के सम्बन्ध में जो धर्मसम्बन्धी बातें कही गयी हैं, उनके अनुसार सारे अनुष्ठान करना ही चाहिए, ताकि मृत परिजन की आत्मा की सद्गति हो. इस सम्बन्ध में धर्मशास्त्रों के ज्ञाता भी मार्गदर्शन कर सकते हैं.
क्या यह ब्राह्मणों का खेल है ?
आधुनिकता या विकृत सोच के शिकार ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह कहते हैं कि मृत्युभोज ब्राह्मणों द्वारा खाने - पीने के लिए रचाया गया एक षड्यंत्र है. ऐसा बिलकुल नहीं है. हिन्दू धर्म को मानने वालों के लिए ब्राह्मण बहुत आदर- सत्कार के पात्र और अधिकारी होते हैं. ब्राहमण से तात्पर्य समाज के ऐसे वर्ग से हों रहा है, जो बहुत पवित्र जीवन जीते हुए शास्त्रों का पठन-पाठन कर जीवनयापन करता था. वह समाज को सही राह पर चलने के लिए प्रेरित करने के साथ ही सही मार्गदर्शन भी करता रहा है. आज बहुत तरह के बदलाव आने पर भी ब्राह्मण परिवारों के संस्कार पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हैं. यदि अपने परिजन की मृत्यु के बाद तेरहवीं पर कुछ ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें कुछ दानदक्षिणा दी जाए तो इसमें किसीके जीवन में कोई बहुत कमी नहीं आ जाती और न प्राप्त करने वाला ब्राह्मण कोई धनपति बन जाता. यह तो ज्ञान और पवित्रता का सम्मान है. लिहाजा यह दुष्प्रचार भी हिन्दू धर्म को बदनाम करने के एजेण्डा में शामिल है.
सामाजिक पक्ष
जिस घर में किसी की मृत्यु होती है, वहाँ सभी परिजन बहुत शोकाकुल होते हैं. मृत्यु के बाद तेरह दिन तक घर की शुद्धि के लिए अनेक तरह के विधान किये गये हैं, क्योंकि मृतक के शरीर से कुछ संक्रमण फैलने का डर रहता है. घर के लोग भी बाहर नहीं जाते, क्योंकि इसे दूसरों को संक्रमण का ख़तरा रहता है. तेरहवीं के दो दिन पहले घर को पूरी तरह से साफ़ और स्वच्छ किया जाता है. दसवें और बारहवें दिन भी मृतक की आत्मा की सद्गति के लिए अनेक अनुष्ठान किये जाते हैं. तेरहवीं पर शकाकुल परिवार के रिश्तेदार, मृतक के प्रियजन, मित्र, बहन-बेटियां आदि उसके घर आते हैं. परिवार अपनी क्षमता के अनुसर भोजन बनवाकर उन्हें भोजन करवाते हैं. इसके पहले पगड़ी रस्म होती है. इसमें घर के सबसे बड़े पुरुष सदस्य को समाज के लोग पगड़ी पहनाकर उसे सार्वजनिक रूप से परिवार का मुखिया घोषित करते हैं. इससे पगड़ी पहनने वाले को भी अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्यों का बोध होता है.
तेरहवीं के आयोजन से शोकग्रस्त परिवार में तेरह दिन से चला आ रहा शोक बहुत कम हो जाता है. उन्हें अहसास होता है कि वे अकेले नहीं हैं. समाज के बहुत से लोग उनके साथ हैं. इससे उनका मनोबल बढ़ता है और वे अपना शोक भूलकर नये सिरे से जीवन शुरू करते हैं. हमारे पूर्वजों ने सारे रीति-रिवाज, परम्पराएँ और अनुष्ठान बहुत सोच-समझकर शुरू किये थे. उन्हें मानव् स्वाभाव और मानव मनोविज्ञान कि बहुत गहरी समझ थी. किसी भी परम्परा और रीति-रिवाज का गहराई से अध्ययन करने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है. इसलिए किसी के भी बहकावे में आकर हमें अपने धर्म और संस्कृति में निर्धारित विधि-विधानों और अनुष्ठानों को उनके सही सन्दर्भ में समझकर पूरी निष्ठा के साथ करना चाहिए.