वित्तीय प्रबंध भी घोषणाओं के साथ बताओ..!
लोकतंत्र के रक्षकों की फ्री योजनाओं की घोषणाएं सिस्टम के लिए ही भक्षक बनती जा रही हैं| सभी दल खैरात के सहारे सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं| राजनीतिक दलों को जनता की ओर से चंदा देने का दौर समाप्त हो चुका है| अब तो कॉरपोरेट हाउस या उद्योगपति राजनीतिक दलों को फाइनेंशियल सपोर्ट करते हैं या सरकार जनता के सरकारी धन पर राजनीति करती हैं| मुफ्तखोरी के राजनीतिक ओलंपिक में केवल विपक्ष ही भाग नहीं लेता, बल्कि सरकार भी मुकाबले में आगे निकलने के लिए जनता का धन लुटाने से पीछे नहीं रहती|
राजनीतिक दलों और सरकारों, सभी के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे जब भी कोई ऐसी योजना की घोषणा करें जिसमें वित्तीय खर्च शामिल है तो बिना वित्तीय प्रबंध की व्यवस्था उजागर किए कोई भी घोषणा नहीं की जा सके|
आज चारों तरफ बिजली का संकट खड़ा हुआ है, संयंत्रों के पास कोयला नहीं है, बिजली कटौती से लोग हाहाकार कर रहे हैं, यह तो हमें दिखाई पड़ रहा है, लेकिन यह स्थिति क्यों बनी है, इसे हम भूल जाते हैं| मुफ्त खोरी की राजनीति का सबसे ज्यादा खामियाजा बिजली सेक्टर को भुगतना पड़ा है| राज्य सबसे पहली घोषणा यही करते हैं कि हम बिजली मुफ्त देंगे| आम आदमी पार्टी के केजरीवाल तो खुद ही फ्री बिजली राजनेता के रूप में अपनी पहचान पर गर्व कर रहे हैं| दिल्ली में फ्री बिजली दी अब पंजाब में दे रहे हैं| जहां जहां राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां वहां पर घोषित कर रहे हैं कि फ्री बिजली देंगे| जो भी फ्री बिजली देने का वायदा करता है वह सबसे पहले यह तो बताए कि बिजली पैदा करने और वितरण पर लगने वाली लागत का वित्तीय प्रबंध कैसे किया जाएगा?
मध्यप्रदेश में चौदह हज़ार करोड़ किसानो को सब्सिडी के नाम पर, पांच हज़ार करोड़ रूपये एक रूपये यूनिट बिजली के नाम पर और सात हजार करोड़ रूपये कोरोना अवधि के बिल माफ़ी के नाम पर विद्युत् वितरण कम्पनियों को चोट पहुचाई गयी है| कभी भी पूरी सब्सिडी सरकार कम्पनियों को नहीं देती| विद्युत् कम्पनियां पैसे के लिए भटक रही हैं| ना कोयला खरीद पा रही है ना बिजली का उत्पादन हो रहा है| कम्पनियों पर करोड़ो बकाया हैं| नेता लोग घोषणा कर अपना लाभ ले गये हैं लेकिन बिजली संकट आज जनता ही भुगत रही है|
बिना वित्तीय प्रबंध के मुक्त देने की घोषणाएं जनता के साथ धोखे जैसा है| अब तो ऐसे हालात हो गए हैं कि खैरात कहां-कहां दी जा सकती है इसकी खोज में राजनीतिक दल जुटे रहते हैं| एक दल ने जिस सेक्टर में मुक्त की योजना लागू की तो दूसरा दल कोई अन्य रास्ता खोजता है, ताकि उस मुक्त योजना का नामकरण उसके नाम पर हो सके| इसके लिए किसको दोष दें? भाजपा हो चाहे कांग्रेस या क्षेत्रीय दल सभी जनता के धन से Free योजनाएं घोषित कर सत्ता तक पहुंचने और बरकरार रखने में लगे हुए हैं| कोरोना संकट के नाम पर घर घर दिया जाने वाला राशन आज राजनीतिक दलों का चुनाव प्रचार मटेरियल बन गया है|
देश में आज ऐसा राज्य नहीं है जिस की आर्थिक सेहत दुरुस्त कही जा सकती हो| सभी राज्यों की अर्थव्यवस्थायें कर्ज के जाल में उलझी हुई हैं| राज्यों के राजस्व का अधिकांश हिस्सा इस्टैब्लिशमेंट पर खर्च हो रहा है| स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि जितना कर्जा लिया जा रहा है उससे भी कम राशि पूंजीगत व्यय पर खर्च की जा रही है|
संसदीय शासन प्रणाली की पवित्रता खतरे में दिखाई पड़ रही है| इस सिस्टम में जनप्रतिनिधियों को ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट से दूर रखने की अवधारणा है| मध्यप्रदेश में भाजपा के सांसद रहे कृष्ण मुरारी मोघे ऑफिस आफ प्रॉफिट के कानून के कारण अपनी सदस्यता गवा चुके हैं| अभी कुछ दिन पहले ही केंद्रीय चुनाव आयोग ने झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ऑफिस आफ प्रॉफिट के लिए नोटिस जारी किया है| जिस व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों को लाभ से दूर रखने का पवित्र संकल्प हो, उस व्यवस्था में सरकार तक पहुंचने के लिए राजनीतिक दलों और सरकारों की बिना वित्तीय प्रबंध की जाने वाली घोषणाएं क्या “वर्क ऑफ़ प्रॉफिट” नहीं मानी जायेगा?
अगर हम मध्य प्रदेश की बात करें तो पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना बहाल करने की घोषणा की है| साथ ही किसानों की कर्ज माफी के दूसरे दौर को चालू करने का भी वायदा किया है| क्या कांग्रेस पार्टी को यह नहीं बताना चाहिए कि इन दोनों घोषणाओं पर सरकार की ओर से कितनी राशि खर्च की जाएगी? यह राशि कहां से आएगी? एक अनुमान के अनुसार दोनों योजनाओं के क्रियान्वयन पर लगभग ₹15000 करोड़ से कम खर्च नहीं आएगा| मध्यप्रदेश जिस पर आज लगभग तीन लाख करोड़ का कर्जा है, जिसका बढ़ता स्थापना खर्च परेशान कर रहा है| जहां सरकारी पदों को भरने के लिए वित्तीय प्रबंध नहीं है| वहां कोई भी दल सरकार में आने पर जनता को भ्रमित करने के लिए की गयी खैराती घोषणाओं को पूरा करने के लिए वित्तीय प्रबंध कैसे करेगी? इस तरह के भ्रमित करने वाले वायदे अंततः जनता का ही नुकसान करेंगे| 2018 में भी पेट्रोल डीजल पर पांच प्रतिशत टैक्स कम करने का वायदा करने वाली कांग्रेस की सरकार ने इसके उलट 5 प्रतिशत टैक्स बढाने का धोखा जनता के साथ किया|
पुरानी पेंशन योजना क्यों लागू होना चाहिए, जब नई पेंशन योजना लागू होने के कई साल पहले से यह जानकारी दे दी गई थी कि 2005 के बाद भर्ती होने वाले नियमित कर्मचारियों को अंशदाई पेंशन योजना दी जाएगी| जो कर्मचारी यह जानते हुए सेवा में आए थे कि उन्हें अंशदाई पेंशन ही मिलेगी तो आज उन्हें राजनीतिक लाभ के लिए राजनीतिक दल मोहरा क्यों बना रहे हैं? ऐसे कर्मचारियों को तो पहले से ही पता था कि पुरानी पेंशन नहीं मिलेगी, अंशदाई पेंशन मिलेगी| जो लोग आज घोषणा कर सत्ता का सपना देख रहे हैं, वह सत्ता में 15 महीने रहे थे, किसान कर्ज माफी क्या 15 महीने में नहीं हो सकती थी? अगर वास्तव में नियत होती तो क्या किसानो को माफ़ी के नाम पर इस तरह बरगलाया और झुलाया जाता?
लोकतंत्र में जनता अगर सर्वोपरि है तो राजनेता उसके महत्वपूर्ण स्टेकहोल्डर हैं| लोकतंत्र का गला आज घुट रहा है तो क्या इसके लिए राजनेता जिम्मेदार नहीं माने जाएंगे? मुफ्त-खोरी की योजनाएं कोई एक दल नहीं बंद कर सकता| क्योंकि यह तो प्रतिस्पर्धा है| मुफ्तखोरी बंद करने के लिए राजनीतिक आम सहमति की आवश्यकता होगी| राजनीतिक सहमति देश में बन सके यह तो बहुत मुश्किल है| लेकिन कम से कम ऐसी व्यवस्था तो की ही जानी चाहिए कि दल चाहे वह विपक्ष में हो चाहे सरकार में, यदि कोई ऐसी योजना घोषित करता है या लागू करता है, जिस पर जनता का सरकारी धन खर्च होगा तो फिर उसे घोषणा करने के पहले योजना के साथ इस बात का विवरण देना होगा कि इसके लिए धन की व्यवस्था कैसे की जाएगी| चुनावों में अगर राजनीतिक लोग मतदाताओं को निजी लाभ पहुचाते हैं तो वह चुनाव अपराध माना जाता है| लेकिन सरकारी पैसे से मतदाताओं को लुभाने, उपकृत करने और लालच देने को कदाचार को अभी तक कैसे स्वीकार किया जा रहा है? यह डेमोक्रेटिक सिस्टम पर बड़ा सवाल है|
चुनाव के पहले मुफ्त योजनाओं की घोषणा सरकारी धन से राजनीतिक लाभ लेने का अपराध है| राजनीतिक दल अपनी नीति घोषित कर सकते हैं, लेकिन सरकारी धन से मतदाताओं को लुभाने का प्रयास धोखाधड़ी माना जाना चाहिए| चुनाव आयोग भले ही कहे कि अभी कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिससे घोषणाओं पर वह कोई कार्यवाही कर सके, लेकिन आज नहीं तो कल ऐसे कानून बनाने ही पड़ेंगे| अन्यथा लोकतंत्र सरकारी पैसे की लूटमार से राजनीतिक दलों को लाभान्वित करने का केवल एक माध्यम बन जाएगा| मतदाताओं पर भी ये अहम ज़िम्मेदारी है कि वे लोकतंत्र बचाने के लिए नेताओं के लोकलुभावन झांसे में नहीं आयें|