स्वराष्ट्र, संस्कृति और स्वाधीनता के लिये समर्पित जीवन
भारत के स्वाधीनता संग्राम में तीन प्रकार के बलिदान मिलते हैं । एक वे जिनका संघर्ष और बलिदान केवल सत्ता के लिये रहा, दूसरे वे जिन्होने स्वाधीनता के संघर्ष और सत्ता दोनों में तालमेल बिठा कर संघर्ष किया । और तीसरे वे जिन्हें सत्ता से कोई लेना देना नहीं था । उनका समर्पण स्वराष्ट्र के लिये था वे स्वदेश के लिये, स्वभाषा के लिये, स्वसंस्कृति के लिये, स्वशिक्षा केलिये और स्वाभिमान के लिये बलिदान हुये । स्वामी श्रृद्धानंद जी ऐसे ही क्रांतिकारी और अमर बलिदानी हैं, जिनके जीवन का प्रत्येक पल भारत राष्ट्र की स्वाधीनता केलिये समर्पित रहा ।
उनका जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के अंतर्गत ग्राम तालवान में हुआ था । उनके पिता नानकचंद विज ब्रिटिश सरकार में पुलिस अधिकारी थे । बचपन में उनका नाम बृहस्पति मुंशीराम विज रखा गया । लेकिन वे मुंशीराम नाम से ही प्रसिद्ध हुये । पिता की पदस्थापना अलग-अलग स्थानों पर होती रही इस कारण उनकी शिक्षा घर पर ही हुई । उनका यज्ञोपवीत संस्कार दस वर्ष की आयु में हुआ और इसी के बाद उनका विद्यालय नियमित हो सका । । फिर भी उनके बचपन की आरंभिक शिक्षा जालंधर में हुई । फिर वे वे बनारस और प्रयागराज गये । उन्होंने बनारस के क्वींस कालेज और प्रयागराज के म्यो कालेज से पढ़ाई की जबकि वकालत की परीक्षा लाहौर से । वे लाहौर में ही वकालत करने लगे । उनकी गणना अपने समय के श्रेष्ठतम वकीलों में होती थी । उनके जीवन में परिवर्तन के चार कारण प्रमुख बने । अपने समय पिता भले अंग्रेजों की पुलिस में नौकरी करते थे पर घर का वातावरण भारतीय संस्कृति परंपराओं के अनुरूप था । यह परिवार की परंपराओं का ही कारण था कि उनका दस वर्ष की आयु में ही यज्ञोपवीत संस्कार हो गया था । पारिवारिक विशेषताओं के कारण ही बालक मुंशी ने भले विद्यालय में अंग्रेजी और उर्दू की पढ़ाई की पर घर में संस्कृत हिन्दी पढ़ी । इसी कारण बालक मुंशी राम को अंग्रेजी और उर्दू के साथ, हिन्दी, संस्कृत और गुरुमुखी भी बहुत अच्छा ज्ञान था । 1857 की क्रांति के समय पिता की पदस्थापना जालंधर में थी । अंग्रेजों के अत्याचार उनके पिता ने अपनी आँख से देखे थे । इसके साथ पुलिस बल के भीतर भारतीय जवानों के साथ अपमान जनक व्यवहार भी ।
क्रांति का भले दमन हो गया था फिर भी पुलिस बल के उन अधिकारियों के प्रति अंग्रेजों को सदैव अविश्वास रहा जो घर के भीतर परंपराओं से जुड़े रहे । ऐसे अनेक प्रसंग बालक मुंशी राम ने अपने पिता से सुने थे । सुनी थीं । इस कारण स्वत्व का बोध उन्हें बचपन से हो था । वे बचपन में हनुमान चालीसा का पाठ करते और हनुमान जी से भारतीय समाज जीवन को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति की प्रार्थना करते । उनके जीवन में परिवर्तन का दूसरा कारण एक पादरी द्वारा एक बालिका के साथ दरिन्दगी कारण बनी । उन दिनों अंग्रेजों द्वारा छोटी आयु की भारतीय लड़कियों के साथ दुराचार सामान्य बात थी जिसकी कहीं कोई रिपोर्ट न होती थी । तीसरी घटना पत्नि का समर्पण भाव । समय के साथ उनका विवाह शिवा देवी से हो गया था । तब उनकी आयु 21 वर्ष थी । पत्नि विदूषी थीं, वैदिक थीं, पति पारायणा थीं । पत्नी के आग्रह पर घर में सत्यार्थ प्रकाश पत्रिका आना आरंभ हुई । यह पत्रिका स्वामी दयानंद सरस्वती के संपादन में प्रकाशित होना आरंभ हुई थी । पत्नि के समर्पण और पादरी प्रसंग स्वयं श्रृद्धानंद जी ने अपनी आत्मकथा "कल्याण मार्ग का पथिक" में किया है । और चौथी घटना स्वामी दयानंद सरस्वती के प्रवचन रहे । यह घटना 1889 की है तब उनकी आयु 23 वर्ष की थी । पिता की पदस्थापना उत्तर प्रदेश के बरेली में थी । दयानंद सरस्वती का आगमन बरेली हुआ । सत्यार्थ प्रकाश के कारण उनका प्रभाव तो था ही । बालक मुंशी राम प्रवचन सुनने गये । और आर्य समाज से जुड़ गये । लौटकर जालंधर आये एवं आर्य समाज के प्रचार प्रसार में लग गये । लाहौर और जालंधर में उन्होंने अनेक आयोजन किये । जालंधर आर्य समाज के अध्यक्ष भी बने ।
उनके दो पुत्र हरीश चंद्र और इंद्र चंद्र, दो पुत्रियां अमृतकला और वेद कुमारी हुई । वे आर्य समाज और वकालत के काम में पूरी तरह लगे थे तभी उन्होंने अपनी पुत्री अमृतकला को एक गीत गाते सुना "ईसा ईसा बोल, तेरा क्या लागे मोल" वे चौंक गए । और उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति के विद्यालय खोलने का निर्णय लिया । 1901 में उन्होंने देश का पहला गुरूकुल काँगडी की स्थापना की । बच्चो से 1500 रुपये एकत्र कर द अफ्रीका में भारतीय नागरिकों के अधिकारों का संघर्ष कर रहे गाँधी जी को भेजे । समय के साथ वे काँग्रेस के सदस्य बने तथा स्वतंत्रता आंदोलन में लग गये । तभी पत्नी का निधन हो गया । तब पत्नि की आयु 35 वर्ष थी । पत्नि के निधन के बाद 24 अप्रेल 1917 में उन्होनें संयास लिया और विधिवत् स्वामी श्रृद्धानंद सरस्वती बने । 1919 में काँग्रेस के अमृतसर अधिवेशन के वे स्वागत अध्यक्ष थे उन्होंने स्वागत भाषण दिया और भारतीय शिक्षा पद्धति के विद्यालय खोलने पर जोर दिया । 1919 में ही उन्होंने दिल्ली की जामा मस्जिद क्षेत्र में भाषण दिया जिसकी शुरुआत उन्होंने वेद ऋचाओं से की । इसके साथ ही उन्होंने धर्मान्तरित बंधुओं से सर्वधर्म में लौटने का आव्हान किया ।
इसके साथ उन्होंने शुद्धि अभियान छेड़ दिया । पश्चिम उत्तर प्रदेश, केरल और बिहार में उन्होंने हजारों लोगों की गर वापसी कराई । इस नाते मिशनरी और जमात के लोग उनसे नाराज हो गये । काँग्रेस और गाँधी जी उनके मतभेद 1922 के खिलाफत आँदोलन से आरंभ हुये । स्वामी जी असहयोग आंदोलन के समर्थक थे । उन्होंने अपने प्रवचनों में आव्हान भी किया पर वे असहयोग आंदोलन में खिलाफत आँदोलन जोड़ने के पक्ष में न थे । तभी केरल के मालाबार में हिन्दुओं के सामूहिक कत्ले-आम की खबर आई । स्वामी जी डा मुँजे और डा केशव हेडगेवार के साथ मालावार गये । वे चाहते थे कि कांग्रेस इस हिंसा की निंदा करे पर गाँधी जी तैयार न हुये परिणाम स्वरूप उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और राष्ट्र भाव के प्रचार में लग गये । वे कहते थे कि यदि राष्ट्र भाव प्रबल होगा सम अपने पूर्वजों को पहचानेगे तो यह संघर्ष न होगा । उन्होंने बड़ी संख्या में मेवाती और मलकान राजपूतों की घर वापसी कराई । इससे कुछ धर्माध लोग बुरी तरह चिढ़ गये । और उनकी हत्या का षडयंत्र करने लगे ।
वह 23 दिसम्बर 1926 का दिन था । स्वामी जी दिल्ली में चाँदनी चौक में नया बाजार स्थित आवास में विश्राम की तैयारी कर रहे थे तभी एक अब्दुल रशीद नामक युवक आया । उसने धर्म चर्चा की अनुमति मांगी और भीतर आ गया । वह पिस्तौल छिपाकर लाया था । भीतर आते ही उसने गोलियों की बौछार कर दी । स्वामी जी की आयु सत्तर वर्ष थी । वे अपनी निर्जीव देह को छोड़कर परम ज्योति में विलीन हो गये ।