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राजनीति : “जन कल्याण ” के स्थान पर “स्वयं कल्याण”*

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sun , 09 Sep

सार

राजनीतिक दलों का लक्ष्य जैसे, तैसे और कैसे भी सत्ता प्राप्ति है | जनता का जीवन उनके लिए प्राथमिकता नहीं है | जनता को खुद निर्णय करना होगा और प्रजातंत्र के इस माडल पर विचार करना होगा जिसमें “स्वयं कल्याण” राजनीतिक दलों की पहली प्राथमिकता है |

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विस्तार

देश की राजनीति के रंग निराले हैं | चुनाव आयोग निरापद चुनाव करने के लिए कोशिश कर रहा है| राजनीतिक द्लुसकी बात सीधे मानने को तैयार नहीं है | चाहे उत्तरप्रदेश हो या पंजाब या कोई अन्य राज्य दुष्काल की तीसरी लहर अपनी पीक पर जा रही है और राजनीति सिद्धांत विहीनता का अपना चरित्र बदलने को तैयार नहीं है | चुनाव आयोग ने राजनीतिक रैलियों औऱ रोडशो पर प्रतिबंध एक हफ्ते और बढ़ा दिया है| अब २२ जनवरी २०२२ तक इन पर पाबंदी रहेगी | चुनाव आयोग ने कमरा बंद सभाओं के लिए थोड़ी राहत दी है| अब ऐसी सभा अधिकतम ३०० या कुल क्षमता के ५० प्रतिशत लोगों के साथ आयोजित की जा सकेंगी, चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को चेतावनी दी है कि कोविड प्रोटोकॉल का इन सभाओं के दौरान कड़ाई से पालन करना होगा और आदर्श चुनाव आचार संहिता का भी उल्लंघन नहीं होना चाहिए| इसके बावजूद राजनीति अपने रंग दिखा रही है |

सारे राजनीतिक दल किसी भी कीमत पर सत्ता चाहते हैं | दुष्काल के कारण चुनाव आगे बढ़ाने की बात का औचित्य कोई समझने को तैयार नहीं है | बमुश्किल पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी ने धीमे स्वर में चुनाव एक सप्ताह आगे बढ़ाने की बात की है | राजनीति की प्राथमिकता अलग होती है, यह “जन कल्याण” के स्थान पर “स्वयं कल्याण” की राजनीति का दौर है | पंजाब में चुनावी राजनीति नित नये रंग बदल रही है। पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से ही अपनी राज्य सरकार के साथ-साथ आलाकमान का सिरदर्द बढ़ाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने अब पार्टी चुनाव घोषणापत्र से पहले ही अपना अलग पंजाब मॉडल घोषित करते हुए यह ऐलान भी कर दिया है कि मुख्यमंत्री आलाकमान नहीं, पंजाब के लोग चुनेंगे। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि विधानसभा चुनाव में राज्य के मतदाता अपना-अपना विधायक चुनते हुए मुख्यमंत्री कैसे चुनेंगे? भारतीय राजनीति, खासकर कांग्रेस की रीति-नीति को जानने वाले समझ सकते हैं कि यह सीधे-सीधे पार्टी आलाकमान को चुनौती है कि वह दलित कार्ड के चुनावी लालच में मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री का चेहरा न घोषित कर दे। कांग्रेस आलाकमान चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष को नाराज करना नहीं और सिद्धू बेलगाम राजनीति का कोई मुकाबला नहीं।

ऐसे ही उत्तर प्रदेश में जो स्वामी प्रसाद मौर्य कांशीराम-मायावती की बसपा से राजनीति में आगे बढ़े। बसपा ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री ही नहीं, विपक्ष में आने पर नेता प्रतिपक्ष भी बनाया, जहाँ पिछले चुनाव से पहले वह अचानक भाजपाई हो गये और भाजपा ने उन्हें सरकार बनने पर कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री भी बनाया अब जब फिर चुनाव की बारी आयी तो मौर्य अपने समर्थकों सहित समाजवादी पार्टी में शामिल हो गये। तीन मंत्रियों और आधा दर्जन से भी अधिक विधायकों के भाजपा से इस्तीफे के बाद दावा किया जा रहा है कि यह सिलसिला जारी रहेगा। तब क्या इस कदर मची भगदड़ को वाकई किसी राज्य की राजनीति में किसी बड़े बदलाव कीउम्मीद की जा सकती है ? अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में भी बबुआ की छवि वाले सपा प्रमुख अखिलेश न सिर्फ इस बार गठबंधन के लिए छोटे दलों को पहली पसंद बता रहे हैं, बल्कि उनकी सभाओं में भीड़ भी जुट रही है। राजनीति की सामान्य समझ भी कहती है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति को गहरे तक प्रभावित करने वाले सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं। यह भी कि यह बदलाव भाजपा के लिए नुकसानदेह और सपा के लिए फायदेमंद नजर आ रहा है| 

हालिया नेताओं के पाला बदल और सीमित जनाधार वाले छोटे दलों से गठबंधन के जरिये कुछ चमत्कार की अखिलेश को उम्मीद है | इस बीच कांग्रेस न सही, बसपा ने तो अपना मत प्रतिशत कुछ तो बढ़ाया ही होगा, जीत की संभावना वाली सीटों पर अल्पसंख्यक मतों का साथ भी मिलेगा ही। सभी राजनीतिक दलों-नेताओं की बयानबाजी से साफ है कि विधानसभा चुनाव कमंडल-मंडल के बीच होगा। ऐसे में परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि योगी के कमंडल में से अखिलेश कितना मंडल वापस ले पाते हैं।

कुल मिला कर सारे राजनीतिक दलों का लक्ष्य जैसे, तैसे और कैसे भी सत्ता प्राप्ति है | जनता का जीवन उनके लिए प्राथमिकता नहीं है | जनता को खुद निर्णय करना होगा और प्रजातंत्र के इस माडल पर विचार करना होगा जिसमें “स्वयं कल्याण” राजनीतिक दलों की पहली प्राथमिकता है |