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धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए ऐसे ही सजग रहना पड़ेगा, कलात्मकता के नाम पर संस्कृति का अपमान नहीं होना चाहिए -दिनेश मालवीय

सार

विगत एक पखवाड़े में हमारे देश में ऐसी दो प्रमुख घटनाएँ हुयीं, जिनसे यह संकेत मिलता है, कि हिन्दू अपनी संस्कृति के प्रति पहले से अधिक सजग और सतर्क हो रहे हैं. मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र द्वारा विज्ञापन निर्माता सव्यसाची को सख्त चेतावनी दी...

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विस्तार

विगत एक पखवाड़े में हमारे देश में ऐसी दो प्रमुख घटनाएँ हुयीं, जिनसे यह संकेत मिलता है, कि हिन्दू अपनी संस्कृति के प्रति पहले से अधिक सजग और सतर्क हो रहे हैं. मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्र द्वारा विज्ञापन निर्माता सव्यसाची को सख्त चेतावनी दी. उन्होंने कहा, कि 24 घंटे में यदि विज्ञापन वापस नहीं लिया गया, तो कानूनी कार्यवाही की जायेगी. और भी अनेक लोगों ने इसका अपनी-अपनी तरह से विरोध किया. इसके पहले “फैब इण्डिया” को भी अपना एक विज्ञापन वापस लेना पडा था, जिसमें उसने दीपावली को “जश्ने-रिवायत”कहा था. हाल ही में भोपाल में प्रकाश झा की वेब सिरीज “आश्रम” की शूटिंग के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन के बाद झा को सिरीज का नाम बदलने की घोषणा करनी पड़ी.

 

इसके पहले भी कुछ महीने पहले भारत के आदर्श भगवान् श्रीराम के जीवन पर एक बहुत फूहड़ किस्म की वेबसीरीज बनायी गयी थी. इसे देखकर कहीं से भी भगवान् श्रीराम के  आदर्शों और मर्यादाओं का भान नहीं होता था. इसके पात्रों की वेश-भूषा, भाषा  और हावभाव कहीं से उचित नहीं थे. इसका बहुत प्रबल विरोध हुआ और वेब सिरीज का प्रदर्शन बंद करना पड़ा. इस प्रकार की चेतना का बने रहना बहुत आवश्यक है. हिन्दू समाज हमेशा से अपनी सहिष्णुता के लिए पहचाना जाता रहा है. यह सहिष्णुता इतनी बढ़ गयी, कि इसने मूर्खता और दब्बूपन का रूप ले लिया. इसका फायदा उठाकर लोगों ने कला के नाम पर कुछ भी करना शुरू कर दिया. हिन्दी फ़िल्में भी फूहड़ता की इस दौड़ में पीछे नहीं रहीं. वह भी नग्नता को खूब भुना रही है.  

 

“मंगलसूत्र” वाले विज्ञापन में कलात्मकता या हिन्दू स्त्रियों के मंगलसूत्र जैसे परम पवित्र सुहाग-चिन्ह के प्रति कोई समझ या संवेदनशीलता दिखाई नहीं देती. इसकी जिस तस्वीर में एक  स्त्री को मंगलसूत्र पहने दिखाया गया है, वह बहुत अश्लील है. क्या स्त्री की देह के फूहड़ प्रदर्शन के बिना कलात्मकता नहीं आ सकती? जिन लोगों ने यह विज्ञापन देखा है, उन्हें इसे देखकर वितृष्णा ही नहीं हुयी, बल्कि इसे बनाने वाले के प्रति मन में आक्रोश भी हुआ. लेकिन हिन्दुओं की एक बड़ी कमजोरी यह रही है, कि वे गलत को गलत मानते और समझते तो हैं, लेकिन सक्रिय रूप से इसका विरोध नहीं करते. इसके विपरीत कई मामलों में तो वे इसका मज़ा लेते दिखाई  देते हैं. लेकिन यह स्थिति तेजी  से बदल रही है. वर्तमान समय को हिन्दू नवजागरण काल कहा जा सकता है. लोग अब ऐसी बातों का खुलकर विरोध करने लगे हैं. हालाकि अभी भी कुछ “बौद्धिक” लोग इसे अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ बताने की नासमझी करने से बाज नहीं आ रहे. उन्हें भी मन में कहीं इसके प्रति ग्लानि का भाव तो है, लेकिन अपनी “इमेज” को बनाए रखना उनकी मजबूरी है.

 

ऐसे लोगों को यह  समझना चाहिए, कि देश और संस्कृति की इमेज से बढ़कर उनकी व्यक्तिगत इमेज नहीं है. अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने जीवन मूल्यों से बड़ा  कुछ नहीं होता. वे भले ही उग्र विरोध नहीं करें या उग्र विरोध में शामिल नहीं हों, लेकिन अपनी कलम और अन्य अभिव्यक्तियों में उन्हें संतुलन तो रखना ही होगा. इस तरह की फूहड़ता का किसी भी रूप  में संतुलन उनकी बौद्धिकता  का नहीं , बल्कि उनके बौद्धिक दिवालियेपन का सबूत है. हमारी बात सिर्फ हिन्दू धर्म-संस्कृति तक सीमित नहीं है. भारत के कलाधर्मियों,कलाकारों,रचनाकारों, और बुद्धिजीवियों को ऐसा वातावरण बनाना चाहिए, कि किसी भी धर्म के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं दिखाया जाये, जो उसकी मर्यादाओं के विरुद्ध हो. हालाकि दूसरे धर्मों के लोग इस मामले में हिन्दुओं से कहीं अधिक सजग और आक्रामक है, लेकिन फिर भी यदि इस प्रकार की अनुचित स्वतंत्रता निर्विरोध जारी रही, तो ऐसा करने वालों के हौसले बढ़ेंगे और वे सभी धर्मों के साथ ऐसा कर सकते हैं.

 

सव्यसाची ने अपना यह विज्ञापन कानूनी कार्यवाही के डर से वापस लिया है, लेकिन उन्हें खुद भी आत्मावलोकन करना चाहिए. उन्हें देश की सांस्कृतिक परम्पराओं, रीती-रिवाज़ों और देशवासियों की संवेदनाओं की अधिक गहरी समझ होनी चाहिए. कला तो वही है, जो सौन्दर्य को शालीनता से इस तरह प्रस्तुत करे, कि हर कोई “वह! वाह!” कह उठे. ईश्वर ने संसार को सुंदर बनाया है. कला उसे और बढ़ाती है. विज्ञापन जगत में नारी देह को वस्तु के रूप में प्रदर्शित करने का चलन बीते एक-दो दशकों में इतना बढ़ गया है, कि पुरुषों की चड्ढी-बनियान तक के विज्ञापनों में स्त्रियों को बहुत फूहड़ तरीके से प्रस्तुत किया जाने लगा है. यहाँ  तक, कि दो-अर्थी बातें कही जा रही हैं, जैसे “डॉलर पहनने वालों की नहीं फटती” या “बाहर ही नहीं अन्दर से भी फिट” आदि. इस सूरते-हाल में  देश के किसी भी नागरिक को निष्क्रिय रहना देश और संस्कृति के लिए घातक होगा. अपनी आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक विरासत उसके विशुद्ध रूप में सौंपने की सभी पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है.