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एक चेतावनी, समूचे विश्व के लिए

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 27 Jul

सार

 ऐसा माना जाता है कि दुनिया में अमेरिका, जर्मनी, चीन और रूस सहित १७ देश जैविक हथियारों से सम्पन्न हैं।

janmat

विस्तार

रूस के यूक्रेन पर हमले के २४ दिन पूरे होने के बाद अब युद्ध रुकने को लेकर आशा की किरण दिखाई पड़ रही है| तुर्की ने कहा है कि रूस औऱ यूक्रेन समझौते के करीब हैं| तुर्की दोनों देशों के बीच मध्यस्थता कराने का प्रयास कर रहा है| दुनिया में यूक्रेन-रूस युद्ध के चलते यदि सबसे ज्यादा खतरा किसी को है तो वह दुनिया के पर्यावरण को है । यह भी उस हालत में, और जबकि धरती पहले ही से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों के चलते विनाश के कगार पर पहुंच चुकी है, यह खतरा और बढ़ जाता है। इस युद्ध में परमाणु और जैविकीय हथियारों के उपयोग की आशंका से समूची दुनिया पर भयावह खतरा मंडरा रहा है।

वास्तव में युद्ध कहें या सशस्त्र संघर्ष कहें, उसमें समूचे पर्यावरण की प्रकृति ही खत्म हो जाती है। इसमें दो राय भी नहीं कि युद्ध का परिणाम दीर्घकालिक होता है। युद्ध के दौरान जहां बमों की बरसात हुई है, वहां बमों के रसायनों से वहां की पारिस्थितिकी ही काफी बदल गई होगी । बमों में प्रयुक्त रसायन हवा में घुलकर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ते हैं। इससे प्रकृति प्रभावित होती है और वहां पर लम्बे समय तक खेती कर पाना संभव नहीं होता। किसी भी इलाके में पर्यावरण संरक्षण की आशा तभी की जा सकती है, जब वहां स्थायी रूप से शांति स्थापित हो। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा भी उसी दशा में हो सकती है।

अब जैविक हथियारों का सवाल है रूस को शंका है कि यूक्रेन इस युद्ध में यूक्रेन जैविक हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है। रूस का दावा है कि यूक्रेन में अमेरिका के सहयोग से २६ जैविक अनुसंधान प्रयोगशालाएं हैं। वहां खतरनाक वायरस का भंडार है, जिनको अमेरिका युद्ध में इस्तेमाल कर सकता है। यही नहीं, अमेरिका के सहयोग से३० देशों में ३३६ जैविकीय अनुसंधान प्रयोगशालाएं कार्यरत हैं। अमेरिका भी यह मान चुका है कि यूक्रेन में जैविक हथियारों की प्रयोगशालाओं को पेंटागन आर्थिक सहायता दे रहा था और जैविक हथियार रूस पर खतरा बढ़ाने का एक जरिया है। अमेरिकी उप-विदेश मंत्री विक्टोरिया नूलैंड की स्वीकारोक्ति इस आरोप का जीता-जागता सबूत है।

जैविक हथियारों से युद्ध में, शत्रु देश या आतंकी गुटों द्वारा इस्तेमाल की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इसका सबसे बड़ा कारण कम लागत में आसानी से उत्पादन और इसकी मारक क्षमता का सबसे ज्यादा घातक होना है। ये हथियार युद्धक अभिकारकों की घातकता को बहुत ज्यादा बढ़ा देते हैं। इनमें कई तरह के वायरस, फंगस और जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल होता है। ये थोड़े समय में ही बहुत बड़ी तबाही मचाने के कारण बन सकते हैं। इससे लोग गंभीर बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में जा सकते हैं। यह शरीर को बहुत ही भयानक रूप से प्रभावित करते हैं। नतीजतन लोग विकलांग और मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।

यूँ तो जैविक हथियारों के इस्तेमाल का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में युद्ध के दौरान दुश्मन के इलाकों के कुओं और तालाबों में जहर मिलाये जाने के उल्लेख मिलते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि छठी शताब्दी में मैसोपोटामिया के अस्सूर साम्राज्य के सैनिकों द्वारा दुश्मन के इलाकों के कुओं में जहरीले फंगस डाले जाने से बड़ी तादाद में सैनिकों की मौत हो गयी थी। तुर्की और मंगोल साम्राज्य में भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं। मंगोलिया में १३४७ ईस्वी में दुश्मन के इलाकों के तालाबों और कुओं में बीमार जानवर फेंके जाने का भी उल्लेख मिलता है, जिसकी वजह से प्लेग जैसी महामारी जिसे ब्लैक डैथ की संज्ञा दी गयी, से चार साल के भीतर लाखों लोगों की मौत हुई थी। पिछली सदी में पहले विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा एन्थ्रेक्स और ग्लैंडर्स बैक्टीरिया के इस्तेमाल, दूसरे विश्व युद्ध में जापान द्वारा चीन के खिलाफ, २००१ में अमेरिका में आतंकवादियों द्वारा अमेरिकी कांग्रेस में एन्थ्रेक्स संक्रमित चिट्ठी भेजे जाने से पांच लोगों की मौत इसके जीते-जागते सबूत हैं। ऐसा माना जाता है कि दुनिया में अमेरिका, जर्मनी, चीन और रूस सहित १७ देश जैविक हथियारों से सम्पन्न हैं। संयुक्त राष्ट्र को इस खतरे को भांपते हुए विश्व को बचाने के लिए शीघ्र ही कोई कदम उठाना चाहिये|