जातिगत जनगणना का राजनीतिक खेल खुलकर खेला जा रहा है. बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने जातिगत जनगणना का काम भी शुरू कर दिया है. कर्नाटक चुनाव में पिछड़े वर्गों को प्रभावित करने के लिए कांग्रेस भी अपनी चार पीढ़ियों के नेताओं के विचारों के विपरीत जाकर पहली बार जातिगत जनगणना के समर्थन में उतर गई है..!
राहुल गांधी ने पिछले दिनों कर्नाटक के कोलार में जनसभा में इसका समर्थन करते हुए सरकार से जातिगत जनगणना कराने की मांग की है. कोलार वही जगह है जहां पिछले चुनाव में मोदी सरनेम के विरुद्ध की गई टिप्पणी पर आपराधिक मानहानि के आरोप में सजा मिलने के कारण राहुल गांधी को अपनी लोकसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी है. सूरत के सेशन कोर्ट में भी उनकी सजा माफ़ नहीं हुई है.
बीजेपी ने इस मानहानि के मामले को पिछड़े वर्गों के अपमान से जोड़ते हुए इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया है. कर्नाटक चुनाव में भी बीजेपी इसको उछाल रही है. शायद इसी मामले की काट के लिए कांग्रेस ने जातिगत जनगणना का समर्थन कर पिछड़े वर्गों को अपने पक्ष में प्रभावित करने का प्रयास किया है.
हर राजनीतिक दल सामाजिक आधार को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करता रहा है. जातिगत जनगणना के इतिहास पर अगर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि ब्रिटिश काल में 1931 में पहली बार जातिगत जनगणना भारत में हुई थी. उसके बाद 1941 में भी जातिगत जनगणना की गई थी लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं हो पाए थे. देश के स्वतंत्र होने के बाद जातिगत जनगणना नहीं की गई. केवल अनुसूचित जाति एवं जनजाति को ही गिना गया. जनगणना का यही स्वरूप कमोबेश अभी तक चला आ रहा है.
जातिगत जनगणना का उपयोग संवैधानिक आरक्षण देने के लिए ही अब तक किया गया है. एससी-एसटी की जनगणना तो हर जनगणना में की ही जाती है. पिछड़े वर्गों के लिए पहली बार 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया गया था. 1931 की जातिगत जनगणना के आधार पर इस आयोग ने देश में पिछड़े वर्गों का हिसाब लगाया लेकिन इस आयोग ने पिछड़ेपन को जातिगत आधार पर मानने से इंकार कर दिया.
यह आयोग केवल इतिहास की एक घटना बन गई. 1978 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया. इस आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट दी थी. मंडल आयोग की रिपोर्ट 9 साल तक ठंडे बस्ते में रखी गई. प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने मंडल कमंडल की राजनीति में मंडल आयोग की एक सिफारिश के आधार पर अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण देने का निर्णय लागू कर दिया. बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस आरक्षण को वैध ठहराया और आरक्षण की अधिकतम सीमा को 50% निर्धारित कर दिया. 2006 में फिर अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण दिया गया.
यूपीए सरकार के समय पिछड़े वर्ग के नेताओं की मांग पर जातिगत जनगणना की बात तेजी से सामने आई लेकिन उस समय की सरकार ने जातिगत जनगणना को स्वीकार नहीं किया. लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के दबाव में यूपीए सरकार ने सोशियो-इकोनोमिक एंड कास्ट सेंसस के नाम पर जनगणना कराई. इस पर लगभग 5000 करोड़ रुपए खर्च किए गए. इस डाटा का अभी तक कोई भी सार्वजनिक उपयोग दिखाई नहीं पड़ा है.
बिहार और उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट बेस वाली पार्टियां जातीय जनगणना की मांग लगातार उठाती रही हैं. बिहार में तो राज्य स्तर पर जनगणना का काम नीतीश सरकार ने शुरू कर दिया है. समाजवादी पार्टी भी जातिगत जनगणना का उपयोग अपने सामाजिक आधार को मजबूत करने के लिए लगातार उठा रही है.
आजादी के बाद देश में 50 साल से अधिक कांग्रेस या कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार ने शासन संचालन किया है. कांग्रेस के नेतृत्व में कभी भी जातिगत जनगणना का समर्थन नहीं किया. यदि कांग्रेस चाहती तो इतने लंबे शासनकाल में क्या जातिगत जनगणना नहीं कराई जा सकती थी? अब राहुल गांधी पिछड़े वर्गों के अपमान के मामले में राजनीतिक रूप से कटघरे में घिर गए हैं तो शायद उससे निपटने के लिए बिना कोई राजनीतिक सोच विचार के जातिगत जनगणना का कांग्रेस समर्थन कर रही है.
कांग्रेस हिंदुत्व की राजनीति पर जिस तरह से मतिभ्रम की स्थिति में दिखाई पड़ती है वैसे ही जातिगत जनगणना में भी दिखाई पड़ रही है. हिंदुत्व के सामने सॉफ़्ट हिंदुत्व के कांग्रेस की राजनीति को कभी भी सफलता मिलती नहीं दिखाई पड़ी. ऐसे ही सॉफ्ट जातिवादी राजनीति के मामले में भी कांग्रेस को भविष्य में परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.
बीजेपी का जहां तक सवाल है उसने हिंदुत्व की राजनीति के अंतर्गत हिंदू एकीकरण और विकास को समाहित कर एक ऐसा राजनीतिक कैनवास तैयार किया है कि जिसमें जातीय विभाजन का कोई भी प्रयास नुकसानदेह हो सकता है. विपक्षी पार्टियां बीजेपी की इसी राजनीतिक एकीकरण के प्रयास को ध्वस्त करने के लिए जातिगत जनगणना को तूल दे रही हैं.
पिछले दशक के लोकतांत्रिक संकेतों को यदि देखा जाए तो ऐसा लगता है कि बीजेपी का राजनीतिक एकीकरण का सिद्धांत कारगर साबित हो रहा है. अभी हाल ही में यूपी के चुनाव में ओबीसी बेस वाली सपा और लोकदल ने गठबंधन कर लिया था. तब ऐसा लगने लगा था कि शायद इसके कारण बीजेपी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन चुनाव परिणामों ने इस जातीय राजनीति को दरकिनार करते हुए राजनीतिक एकीकरण की बीजेपी की रणनीति की सफलता को सिद्ध कर दिया था.
जातिगत जनगणना का मुख्य उद्देश्य जातियों को दिए जाने वाले आरक्षण का वैधानिक डाटा एकत्रित करने का हो सकता है. अनुसूचित जाति और जनजाति के मामले में तो प्रत्येक जनगणना में नए आंकड़े प्राप्त हो जाते हैं. इन जातियों के अलावा अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए बुनियादी डाटा तो उपलब्ध ही है. अब इन जातियों को अधिक आरक्षण देने का राजनीतिक लॉलीपॉप देने के लिए जातिगत जनगणना को राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा है.
अस्तित्वगत रूप से देखा जाए तो पुरुष और स्त्री जाति बुनियादी तथ्य है. अभी तक संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण नहीं हो सका है. कोई भी राजनीतिक दल महिला आरक्षण को लागू करने में रुचि प्रदर्शित नहीं कर रहा है. अगर यह मान भी लिया जाए कि जातिगत जनगणना हो जाएगी तो क्या किसी भी जाति में शामिल सभी उपजातियों को आरक्षण का समानुपातिक लाभ मिल पायेगा?
अभी तक यही होता रहा है कि जिन भी वर्गों को आरक्षण प्राप्त है उनमें अति गरीब और अति पिछड़े समूहों को तो शिक्षा का लाभ ही नहीं मिल सका है फिर उन्हें आरक्षण का लाभ मिलने का तो सवाल ही नहीं है. आरक्षित वर्ग की कुछ खास जातियां और समूह आरक्षण का अधिकांश हिस्सा हासिल कर लेते हैं. सबसे पहले तो आरक्षण का लाभ समुदाय की सभी जातियों और समूहों तक पहुंचाने के लिए कोई न्यायपूर्ण व्यवस्था करने की जरूरत है.
ओबीसी के मामले में भी यही स्थिति है. ओबीसी में जितनी भी जातियां शामिल हैं क्या उन सभी जातियों को वर्तमान में आरक्षण का लाभ मिल रहा है? इन वर्गों की कुछ जातियां ही आरक्षण का लाभ लेकर महत्वपूर्ण स्थानों पर काबिज हो रही हैं. जहां तक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े पन को दूर करने के लिए नीतियों के निर्माण में जातिगत जनगणना के डेटा की आवश्यकता का प्रश्न है तो इस तरह के डाटा तो बिना जाति के भी प्राप्त किया जा सकता है. उस डाटा के आधार पर नीतियों का निर्माण हो सकता है.
कांग्रेस यह भी कह रही है कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए और आरक्षण की 50% की सीमा को समाप्त कर जातियों की जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए. बीजेपी ने तो आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को भी आरक्षण दे दिया है. राजनीतिक आधार के लिए नैतिक-अनैतिक किसी भी तरीके से की जा रही जाति की राजनीति की प्रवृत्ति समाज के लिए न केवल घातक है बल्कि विभाजनकारी भी है.
इंडिया आज जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का सबसे पहला राष्ट्र बन गया है. इंडिया राष्ट्र के रूप में आज दुनिया में अपनी प्रगति और भूमिका से महत्वपूर्ण स्थान पर पहुंच गया है. दुनिया मानती है की इंडिया मींस राष्ट्र और हमारे राजनेता इसके विपरीत ऐसा आचरण कर रहे हैं कि जैसे इंडिया मींस कास्ट. जातीय वैभव को राष्ट्र वैभव के रूप में उभार कर राजनीतिक लाभ की कोशिशें अंततः किसी को भी मजबूत नहीं करेंगी.
जातिगत राजनीति की प्रवृत्ति अगर हतोत्साहित नहीं की गई तो गांव-गांव और शहर-शहर जातियों के नाम पर बस्तियां और मोहल्ले जो खत्म हो रहे हैं उन्हें राजनीति फिर से बसाने का महापाप करेगी. राजनीति पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता लेकिन लोक पर भरोसा निश्चित रूप से करना चाहिए. पहले भी राष्ट्र के सामने जब जब इस तरह के संकट राजनीति द्वारा पैदा किए गए हैं तब लोकतंत्र ने ऐसी ताकतों को नकारा है. सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक अन्याय अब राजनीति का एजेंडा बन गया है.