सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती तो दिखाई लेकिन विजय शाह को बचने का रास्ता भी दे दिया. उनकी गिरफ्तारी पर अंतरिम रूप से रोक लगा दी है. जांच के लिए दूसरे राज्यों के तीन आईपीएस अधिकारियों की एसआईटी गठित करने के आदेश दिए हैं..!!
मंत्री पद रहते हुए विजय शाह को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि, कौन जांच कर रहा है? जब जांच रिपोर्ट आएगी तो फिर अदालत से ही बचने का रास्ता खोजा जाएगा. सुप्रीम कोर्ट गिरफ्तारी पर रोक नहीं लगाता तो जांच के साथ ही उनकी गिरफ्तारी होती और फिर उन्हें मंत्री पद से भी हटना पड़ता लेकिन फिलहाल यह सब रुक गया है.
विजय शाह ने एमपी बीजेपी को और सरकार को बड़े धर्म संकट में डाल दिया है. अब तक उनके खिलाफ कोई भी कदम नहीं उठा कर पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि, अदालत जब कोई निर्णय करेगी तभी विजय शाह के पद पर प्रभाव पड़ेगा. किसी भी अदालत की फटकार से उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जो ऐसे बयान देने का अभ्यस्त हो.
ऐसे विजय शाह की चिंता तो केवल मंत्री पद है. अदालत में फटकार से शर्मसार होना दूसरे लोगों के लिए है. यह प्योरली डिफेमेशन का मामला है. केंद्र की भाजपा सरकार ने ही एकजुट भारत का मैसेज देने के लिए प्रेस ब्रीफिंग का यह फेस तैयार किया था. भारत की सेना और दोनों महिला वीर अधिकारियों सोफिया कुरैशी और व्योमिका सिंह पर देश को गर्व है. उनके अपमान में अगर मूर्खतापूर्ण बयानबाजी की जाती है तो यह पॉलिटिकल डिसऑर्डर का संकेत है. ऐसी मूर्खता से देश की सेना के सम्मान में कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
विजय शाह इस बात से इंकार नहीं कर रहे हैं कि उन्होंने वह वक्तव्य नहीं दिया है. जब वक्तव्य पर स्वीकारोक्ति है, तो फिर एसआईटी जांच किन बिंदुओं पर करेगी. जाति और धर्म के नाम पर सेना को लेकर जो भी बयान दिए गए हैं उसके लिए दोषी नेताओं को कड़ी सजा मिलना चाहिए, इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती.
जिस भी नेता ने सेना के अधिकारियों पर अभद्र टिप्पणी की वह सौ दो सौ लोगों के बीच में की गई होगी. जो वक्तव्य अपराध की श्रेणी में आता है, डिफेमेशन की परिधि में आता है, उसको दोहराने वाले ने भी उसी तरीके का अपराध किया है, जैसा उसको बोलने वाले ने किया है.
विजय शाह ने सोफिया कुरैशी को लेकर एक सीमित समूह के सामने जो अभद्र बात कही, उसको राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का काम कांग्रेस पार्टी और देश के मीडिया ने किया है. कांग्रेस ने नेशनल लेवल पर अपने सोशल मीडिया पर यह वीडियो अपलोड किया. कोई ऐसा चैनल नहीं था जिसने विजय शाह के स्टेटमेंट को बार-बार नहीं दिखाया हो. मंत्री शाह अगर सेना के अपमान के अपराधी है तो वही अपराध कांग्रेस और मीडिया ने भी किया है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी खबर दिखाते हुए मीडिया ने वही पुराने फुटेज फिर से चलाएं हैं, जिसमें विजय शाह अभद्र टिप्पणी करते हुए सुनाई पड़ रहे हैं. सर्वोच्च न्यायालय को इस पर विचार करना चाहिए कि किसी भी मानहानिकारक वक्तव्य को राजनीतिक दलों अथवा मीडिया द्वारा बार-बार दोहराकर सामने लाने से क्या मानहानि को ही नहीं दोहराया जा रहा है.
मानहानि करने वाला जितना दोषी है उतना ही उसे दोहराने वाला भी दोषी क्यों नहीं माना जाना चाहिए. इस बारे में स्पष्ट दिशा निर्देश होना चाहिए. कानून में सामान्य रूप से ऐसा प्रावधान तो है कि, कई अपराधों में पहचान उजागर नहीं की जा सकती. डिफेमेशन के मामले में भी इस तरीके की गाइडलाइन बननी चाहिए. मध्य प्रदेश की कांग्रेस विजय शाह के मामले को लेकर आंदोलन करती है. आंदोलन में वही बातें घुमा फिरा कर दोहराई जाती हैं जो उन्होंने कही थी.
मीडिया अगर टीआरपी के लिए करता है तो राजनीतिक दल वोटर कांस्टीट्यूएंसी के लिए ऐसा करते हैं. कांग्रेस इस मामले को शायद इसी लिए तूल दे रही है क्योंकि उसे यह मामला उसकी वोटर कांस्टीट्यूएंसी के लिए सूट करता है. सभी दलों का नजरिया हर समय वोटर केंद्रित होता है. अगर अभी ऑपरेशन सिंदूर जारी है तो राजनीतिक दलों में ऑपरेशन तू-तू, मैं-मैं भी जारी है.
सेना के शौर्य और पराक्रम को अपने-अपने वोट बैंक में भुनाने में सभी दल लगे हुए हैं. विजय शाह की टिप्पणी कांग्रेस को बड़े हथियार के रूप में मिल गई है. इसलिए इस मुद्दे को जन आंदोलन के रूप में उठाया जा रहा है. राजनीतिक दलों में ऑपरेशन तू-तू, मैं-मैं तो अभी शुरू हुआ है. यह तो आने वाले चुनाव तक लगातार चलेगा.
अभद्रता, अशालीनता के नए-नए सोपान अभी देखने सुनने को मिलेंगे. अब तो फेक वीडियो पर भी राजनीति होने लगी है. विदेश मंत्री की एक वीडियो पर विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा ऐसे सवाल पूछे जा रहे हैं जो भारत से ज्यादा पाकिस्तान की मीडिया में छाए हुए हैं. यह सारे सवाल बीजेपी से राजनीतिक मुकाबले के लिए हो रहे हैं.
डिफेमेशन राजनीति का एक आधुनिक हथियार बन गया है. सबसे ज्यादा डिफेमेशन के मामले शायद भारत में राहुल गांधी के खिलाफ अदालतों में चल रहे हैं. डिफेमेशन के मामले में अदालत के फैसले भी इंटरप्रिटेशन पर आधारित होते हैं.
अभी कुछ दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि, शिवराज सिंह चौहान और विवेक तन्खा अपने मानहानि के कोर्ट केस पर चर्चा कर मामले को सुलझाएं. वीर सावरकर पर बयान देने के मामले में राहुल गांधी को भी सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई.
हेट स्पीच भारतीय राजनीति की परंपरा सी बन गई है. अब तो फेक वीडियो भी उछाले जाते हैं. सोशल मीडिया में तो तथ्यों की प्रामाणिकता पर सवाल ही सवाल खड़े होते हैं .
सुप्रीम कोर्ट ने विजय शाह के मामले में उनकी अपमानजनक टिप्पणी की जांच के लिए एसआईटी गठित की है. उन्हें सजा मिले यह जरूरी है लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे और निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के वक्तव्यों की वैधानिकता तथा संवैधानिकता पर देश में स्पष्ट गाइडलाइन की जरूरत है.
भारतीय सेना को राजनीति में घसीटना मतलब सेना को राजनीति में घुसने का अवसर देना है. इस मामले में उच्च न्यायालय जबलपुर ने स्वतः संज्ञान लिया फिर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त आदेश दिया. बयानों की राजनीतिक बमबारी से देश को नुकसान होता है, समाज पर जो दुष्प्रभाव पड़ता है उसको रोकने में कोर्ट का अंतिम फैसला कारगर हो सकता है.