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जनतंत्र : जनता का सरेआम अपमान

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sun , 20 Apr

सार

उत्तर प्रदेश का ताजा उदाहरण तो बड़ा अफसोसजनक है। सरकार के एक मंत्री कांग्रेस से बीएसपी में, बीएसपी से समाजवादी पार्टी में, फिर भाजपा में और भाजपा से वापस समाजवादी पार्टी में चले गए।

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विस्तार

देश में इन दिनों जहाँ –तहां आयाराम – गयाराम दिख रहे हैं, आया-राम गया-राम का व्यंग्य वाक्य अब पूरे देश में फैल हुआ है | देश के कई राज्यों में जनमत से बनी सरकारें इस बीमारी के कारण गिरी हैं | न तो चुनाव के पहले यह प्रवृत्ति ठीक है और चुनाव जीतने के बाद सरकार पर कब्जे का शार्टकट तो और भी खतरनाक है | प्रश्न यह है कि समाज दल-बदलुओं को स्वीकार क्यों करता है? आमजन का यह कहना है कि राजनीतिक पार्टियां उत्तर दें, वे उन लोगों के लिए अपने दरवाजे पलक पांवड़े बिछाकर हर समय खुले क्यों रखते हैं, जो सिद्धांतहीन हैं पर सत्ता के लालच में दौड़ते हुए उनके दरवाजों पर आते हैं? कितना विद्रूप दृश्य होता है जब फूलों का आदान-प्रदान होता है, दल के रंग दिखाते पटके गलों में डाले जाते हैं और दल बदलू नेता वहां इतने समभाव वाले दिखतेहैं कि निंदा, स्तुति, मान-अपमान का कोई मायना शेष नहीं है | इसके बाद सौदेबाजी के तहत पदों की रेवड़ियाँ बंटती है और देश चुपचाप सहन करता है |

कभी यह सवाल भी उठता है कि जो लोग उस पार्टी के वफादार नहीं, जिससे उन्हें पहचान मिली, सम्मान मिला, राजपद प्राप्त हुए और उनकी जिंदाबाद के नारे गली-गली में लगे, ऐसे लोग दूसरी पार्टी में जाकर उनके कैसे वफादार हो जाएंगे? जो लोग सार्वजनिक सभाओं में अपनी जनता के दुख-सुख में साथी बनने की घोषणा करते रहे वे केवल मंत्री पद या अपने परिवार की विधानसभा सीट के लिए ही क्यों दल बदल कर जाते हैं? क्या यह मतदाताओं को धोखा देना नहीं हैं?

अभी तो हालत यह है उत्तर प्रदेश पंजाब उत्तराखंड में देखने को मिल रहा है दल बदलने वाले नेता किस-किस गली में और कैसे कैसे चक्कर लगाकर आए हैं | मध्यपदेश में तो चुनाव के बाद एक बड़ी पार्टी का धडा ही इधर से उधर हो गया और निर्वाचित सरकार सबके सामने गिरी | सब जानते है आये –गये लोग वर्तमान पार्टी में आने से पहले किस तरह और कैसे धन-सत्ता कमा रहे थे, आज भी उनकी यह भूख साफ- साफ दिखती है ।

उत्तर प्रदेश का ताजा उदाहरण तो बड़ा अफसोसजनक है। सरकार के एक मंत्री कांग्रेस से बीएसपी में, बीएसपी से समाजवादी पार्टी में, फिर भाजपा में और भाजपा से वापस समाजवादी पार्टी में चले गए। संभवतः वहां अब और कोई ऐसी बड़ी पार्टी बची नहीं, जिसकी दलदल में वह डुबकी लगा सकें। दल बदलने की बीमारी का एक सीजन विशेष ही होता है। वर्षों तक एक पार्टी में सत्तासुख भोगने के बाद अचानक ही इन्हें दलितों की पीड़ा, कमजोरों के साथ हो रहा अन्याय, युवकों की बेरोजगारी का दर्द याद आने लगता है और फिर एक नहीं बल्कि आधा दर्जन से ज्यादा मंत्री और विधायक दूसरी पार्टी का झंडा और डंडा थाम लेते हैं।

पंजाब में तो एक एमएलए भाजपा में गए। फूलों के हार पहनाए, पर अगले दिन ही वापस कांग्रेस में चले गए। अमृतसर जिले के एक कांग्रेस नेता चौबीस घंटे भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में न काट सके। वहां उन्हें जितने फूल और पटके मिले थे उतने घंटे बिताए बिना ही वे वापस कांग्रेस में आ गए। पंजाब का शायद ही ऐसा कोई शहर बचा हो जहां स्वार्थी दल बदल की बीमारी न फैल रही हो।

उत्तराखंड में भी एक ऐसा ही उदाहरण है। उसके अनुसार अपनी पुत्रवधू के लिए जब टिकट प्राप्त नहीं कर सके तो फिर वापस कांग्रेस में चले गए। फिर भाजपा का पलटवार हुआ , कांग्रेस की पूर्व महिला अध्यक्षा भाजपा में आ गई। गजब आदान-प्रदान हो रहा है। सब जानते ही हैं कि सत्तापतियों और धनपतियों को शगुन ज्यादा मिलता है। मुलायम सिंह की पुत्रवधू भी चुनाव लड़ने के लिए यूं कहिए घरेलू राजनीतिक क्लेश के कारण अब भाजपा की झंडा बरदार बन चुकी हैं।

अब चुनाव पूर्व दल बदलने की बात छोड़िए, मध्यप्रदेश तो चुनावों के बाद उस शब्द का जीता-जागता उदाहण है जिसे आम बोलचाल की भाषा में हार्स ट्रेडिंग अर्थात‍ घोड़ों की बिक्री कहा जाता है , यह लोकतंत्र पर धब्बा है और मत तथा मतदाताओं का अपमान ।