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जवाब तो यह भी संतोषप्रद नहीं था

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 20 Aug

सार

मुख्य चुनाव आयुक्त अपनी पहली प्रेस वार्ता में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के आरोपिया सवालों के संतोषजनक जवाब नहीं दे सके, सिर्फ इतना ही कहा कि ‘वोट चोरी’ शब्द उचित नहीं है, वे संविधान का अपमान करते हैं। संसद और आम मतदाता के विवेक का अपमान करते हैं’..!!

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विस्तार

उस दिन पत्रकार वार्ता में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के चेहरे पर तल्खी और चिंता की लकीरें पढ़ी जा सकती थीं। वह कुछ गुस्से में भी लग रहे थे। बेशक ‘वोट चोरी’ के गंभीर आरोपों के बीच उन्हें चुनावी शुद्धता और निष्पक्षता साबित करनी थी, लेकिन अधिकांश समय वह एकालाप की स्थिति में रहे। 

मुख्य चुनाव आयुक्त अपनी पहली प्रेस वार्ता में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के आरोपिया सवालों के संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। सिर्फ इतना ही कहा कि ‘वोट चोरी’ शब्द उचित नहीं है। वे संविधान का अपमान करते हैं। संसद और आम मतदाता के विवेक का अपमान करते हैं।’ दरअसल इस मुद्दे को सार्वजनिक रूप से उछालने या चुनाव आयोग और भाजपा-आरएसएस की मिलीभगत सरीखे पूर्वाग्रही आरोप लगाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को आयोग के कार्यालय में आमंत्रित कर सकते थे, क्योंकि दोनों व्यक्ति संवैधानिक पदों पर आसीन हैं।

 मुख्य चुनाव आयुक्त विपक्ष के नेता के आरोपों और उनकी आशंकाओं को सुनते और एक संतोषजनक जवाब देने की कोशिश करते। दुर्भाग्य और विडंबना है कि ऐसा नहीं किया जा सका, बल्कि दोनों ही मैदान में कूद पड़े। यह बिल्कुल भी लोकतांत्रिक नहीं था, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त राजनीतिक जुबां में बोलते रहे कि चुनाव आयोग आरोपों से नहीं डरता। वोटर को अपराधी कहना ठीक नहीं है।चुनाव आयोग के कंधे पर बंदूक रख कर सियासत न करें। 

ज्ञानेश कुमार ने राहुल गांधी को दो टूक कहा-‘या तो सात दिनों में हलफनामा दें अथवा देश से माफी मांगें। तीसरा कोई विकल्प नहीं है।’’ दरअसल इस बयान में धमकी भी निहित है। चुनाव आयुक्त से यह अपेक्षा नहीं की जाती। राहुल गांधी की टीम ने क्या अपराध किया है, जो वह देश से माफी मांगें? टीम ने आयोग के दस्तावेजी तथ्यों से ‘वोट चोरी’ का जो निष्कर्ष निकाला है, उसे चुनाव आयोग ही गलत साबित कर कांग्रेसी टीम को बेनकाब कर सकता था। मुख्य चुनाव आयुक्त ऐसा क्यों नहीं कर पाए? उन्हें हलफनामा ही क्यों चाहिए? भाजपा नेताओं के ‘वोट चोरी’ के पुराने आरोपों पर हलफनामे क्यों नहीं मांगे गए? चुनाव आयोग तटस्थ, ईमानदार और पारदर्शी नहीं लगता। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हलफनामे को गैर-जरूरी मानते हैं। बहरहाल अब ‘वोट चोरी’ कमोबेश बिहार विधानसभा चुनाव का मुख्य मुद्दा बन गया है। 

मताधिकार को संविधान से जोड़ कर नेरेटिव तैयार किया गया है। लोग भ्रमित होकर भावुकता में बह सकते हैं। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ‘वोटर अधिकार यात्रा’ पर हैं। चुनाव आयोग की खूब छीछालेदर की जा रही है। हालांकि मुद्दा अब भी सर्वोच्च अदालत के विचाराधीन है। अगली सुनवाई 22 अगस्त को है। चुनाव आयोग ने इतना जरूर किया है कि जिन 65.64 लाख मतदाताओं के नाम सूचियों से काट दिए गए हैं, उन्हें आयोग की वेबसाइटों पर सार्वजनिक किया गया है।

अंतिम संतुष्टि सर्वोच्च अदालत की होगी, क्योंकि अदालत ने इतने नाम काट देने के ‘कारण’ भी पूछे हैं। शीर्ष अदालत ने इस आशय का अंतरिम आदेश दिया था। अदालत ने स्थानीय भाषा के और अंग्रेजी अखबारों समेत टीवी एवं सोशल मीडिया में अच्छी तरह उनके नाम छापने और प्रसारित करने के आदेश भी दिए थे। चुनाव आयोग को ऐसा ही करना पड़ेगा। ‘वोट चोरी’ न भी कहें, लेकिन मतदाता सूचियों में गड़बड़ी एक पुरानी और सर्वत्र व्याप्त विसंगति रही है। बेशक मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण किए जाते रहे हैं। चुनाव आयोग को बिंदुवार जवाब देना चाहिए कि बाहरी देशों के कितने अवैध वोटर हैं, जिनके नाम सूची से काट दिए गए हैं।