संसद के इस मानसून सत्र के पहले ही दिन संसद के दोनों सदनों में कार्यवाही के स्थगित होते ही साफ संकेत मिल गया कि आने वाले दिनों में संसद में हंगामा होना तय है..!
यह देश की टैक्स देने वाली जनता के साथ मेरा भी सवाल है? उन सारे सांसदों से जो दिल्ली में संसद सत्र के नाम पर मटर गश्ती में लगे हैं| उन्हें कभी यह भी सोचना चाहिए कि वे किस कीमत पर यह सब कर रहें हैं? क्या उन्होंने चुनाव सिर्फ इसलिए लड़ा था कि वे संसद ठप्प करने का औजार बनेगे? क्या उनके दल का यही प्रशिक्षण है कि वो संसद या विधानसभा में बाधा उत्पन्न करें और समय गुजार कर पेंशन और भत्ते लेने के हक़दार बने?
यह सब कहीं से भी देश हित या देशभक्ति नहीं है| अपना काम ठीक से नहीं करने पर देश में वेतन या मजदूरी काटने के कानून हैं, तो देश को यह कानून भी बनाना चाहिए की जो जन प्रतिनिधि संसद या विधानसभा की कार्यवाही रोकने के काम करेगा उसे वेतन, भत्ता और पेंशन नहीं मिलेगी|
संसद के इस मानसून सत्र के पहले ही दिन संसद के दोनों सदनों में कार्यवाही के स्थगित होते ही साफ संकेत मिल गया कि आने वाले दिनों में संसद में हंगामा होना तय है। सोमवार से शुरू हुआ संसद का मानसून सत्र मंगलवार सुबह 11 बजे तक के लिए स्थगित कर दिया गया था। वैसे इस सत्र में कुल 17 कार्य दिवस तय थे और यह सत्र 12 अगस्त तक चलना तय था।
कोई 32 विधेयक रखे जाने थे, अब उनमें से कितने पारित होंगे या नहीं होंगे, यह बताना मुश्किल है? पिछले अनुभव हंगामे के कारण जो कार्यवाही लम्बित हुई या स्थगित हुई फिर गुम हो गई तो फिर देश का कामकाज कैसे चलेगा या चल रहा है? जिनका उत्तरदायित्व सदन में पक्ष या प्रतिपक्ष के रूप में है क्या यह सवाल उनके मष्तिष्क में नहीं आता? वे अपने किस कर्तव्य की पूर्ति के लिए दिल्ली में हैं?
सब जानते है, संसद या विधान सभा सत्र से पहले ही यह तय हो जाता है की सदन में कौन से विषय आयेंगे| यह भी अंदाज सब को होता है कौन से मुद्दों पर प्रतिपक्ष को क्या करने की अनुमति है? सब कुछ लिखा पढ़ा और समझा होता है| जैसे इस बार महंगाई, ईंधन की कीमतें, अग्निपथ योजना, बेरोजगारी और डॉलर के मुकाबले रुपये के गिरने जैसे मुद्दों को सदन में लाना तय था|
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विपक्ष के पास पर्याप्त मुद्दे हैं, जिन पर वह सरकार से जवाब माँगा सकता था, पर सदन में| सदन न चलने देने से सिर्फ मीडिया में सुर्खी के अलावा क्या मिलता है ? देश की संसद की विपरीत छबि बनती है| सांसदों को सत्र की शुरुआत में ही देखना चाहिए कि संसद को चलाने में प्रतिदिन कितना खर्च आता है? यह खर्च देश नागरिक कैसे उठाते हैं?
पहले ही नेताओं और हस्तियों को श्रद्धांजलि देने और नए सदस्यों को शपथ दिलाने के दौरान भी यह साफ समझ आ जाता है कि सदन कैसा रहेगा। पहले ही दिन आसन के सामने आ जाना और नारेबाजी का संकेत अच्छा नहीं है। आज जहाँ देश के सामने महंगाई का प्रश्न है, तो विपक्ष महंगाई की समस्या को गंभीरता से उठाता और चर्चा करता।
केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भी लंबे समय तक विपक्ष में रही है और वह महंगाई के मुद्दे का महत्व बहुत अच्छी तरह से समझती है। महंगाई हमेशा ही सरकारों पर हमले के लिए एक मारक हथियार रही है, अगर इस बार भी इसका उपयोग संभावित था तो सत्ता पक्ष को जवाब खोजकर रखना चाहिए था।
अब तो देश में आटा, दूध, दही, पनीर, लस्सी, शहद, मटर जैसे अनेक जरूरी उत्पादों पर भी जीएसटी की वसूली शुरू हो चुकी है। लगता है कि सरकार हरसंभव उत्पाद पर टैक्स लगाकर राजस्व जुटाना चाहती है। ऐसे विषय से दोनों पक्षों द्वारा सदन न चलने देना इस बात द्योतक है कि चुने हुए सांसद जनता के साथ नहीं हैं|
दोनों को गरीबों या आम लोगों पर पड़ने वाले बोझ को भी देखना चाहिए था। जो उनका कर्तव्य है, अर्थशास्त्री सरकार को कमाई के सहज स्रोत बता सकते हैं, परन्तु सांसदों जनता के मुद्दों पर बात करना चाहिए था| वे अपने कर्तव्य को ठीक से नहीं निभा रहे हैं|
देश में महंगाई हमेशा ही सरकारों की अलोकप्रियता बढ़ाने का बड़ा कारण रही है, और उस पर सदन में चर्चा न होने देना किसी अपराध से कम नहीं है। वैसे महंगाई अगर बढ़ी है, तो यह अर्थव्यवस्था का विषय है, राजनीति का नहीं| संसद में इन दिनों कार्यवाही नहीं राजनीति हो रही है, जिसका पहला पायदान हंगामा है| सांसदों को खुद से पूछना चाहिए की वे क्या सिर्फ हंगामा करने ही संसद में जाते हैं?