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हे ! मतदाता किसी ने आपको सोचने से मना नहीं किया है

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 13 Sep

सार

उस वक्त जनता ने उस विज़न को चुना जो देश को तरक्की की ओर ले गया, जिस सोच ने वर्तमान विकसित भारत को गढ़ा और जिस विचारधारा ने न केवल भारत बल्कि विदेशी जमीन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी..!

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विस्तार

डॉन अतीक अहमद के मारे जाने से अन्य कई जरूरी मुद्दे छिप गए हैं या यूं कहा जाये कि छिपा दिए गए हैं। अतीक अहमद माफ़िया था परंतु साथ ही यह भी सच है कि वह एक चुना हुआ सांसद था। और उसी फूलपुर  सीट से , जहां से देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू चुनकर आये थे । उद्देश्य नेहरू जी और अतीक की कोई बराबरी नहीं है दोनों जनता की ताकत से चुने जाते थे,यही ताक़त सवालों की जद में है? नेहरू जी विद्वान, शिक्षित और दूरदर्शी थे वहीं उनके मतदाता कम पढ़े-लिखे रहे होंगे क्योंकि इस वक्त शिक्षा का स्तर आज की तरह नहीं था और न ही उस वक्त सभी बच्चों की स्कूल तक पहुंच थी। फिर भी उस वक्त जनता ने उस विज़न को चुना जो देश को तरक्की की ओर ले गया, जिस सोच ने वर्तमान विकसित भारत को गढ़ा और जिस विचारधारा ने न केवल भारत बल्कि विदेशी जमीन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। वहीं अतीक के केस में यह सब नहीं है।

हां, इतना जरूर है कि नेहरू जी के तत्कालीन मतदाताओं की ही वर्तमान पीढ़ी अतीक की समर्थक है। यह सच है कि ये पीढ़ी पढ़ी-लिखी है परंतु तार्किकता और बौद्धिक निर्णय लेने में उस पीढ़ी से कमतर ही मानी जायेगी। जरा सोचें कि मतदाता का कर्तव्य क्या होता है और मतदाता कौन होता है? दरअसल, एक लोकतांत्रिक देश में अपनी पसंद का नेता चुनने वाला मतदाता ही होता है जिसके पास यह ताक़त होती है कि वह अपने एक वोट की ताकत से सत्ता-परिवर्तन कर सकता है। परंतु अगर यही मतदाता महज सम्प्रदाय, भाषा या किसी लालच के चलते बाहुबलियों, दुराचारियों या माफियाओं को चुनकर सत्ता तक भेजता है तो देश की इस हालत के लिए वह बराबर का दोषी है। वोटर की ऐसी गलती से वर्तमान ही नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियां भी प्रभावित होती हैं। वजह यह कि जनता अपराधियों को चुनकर जब सत्ता पर काबिज़ करेगी तो विज्ञान, इतिहास, भूगोल, पर्यावरण, नैतिकता और मूल्यों का हनन ही होगा। अपराधी मनुष्य अपने कृत्यों से समाज का नुकसान ही करता है।

वोट देने से पहले उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता, नैतिक मूल्य, वैचारिक रुझान और सेवा भाव वाले पक्ष को देखना-समझना जरूरी है न कि केवल धार्मिक पक्ष को। परन्तु पिछले कुछ दशकों से देश की राजनीति की धुरी में धार्मिक स्थल और उनसे जुड़े मुद्दे ज्यादा हावी रहे हैं। धर्म-मजहब के नाम पर हिंसा का माहौल और सरकारों का बनना-बिगड़ना इस बात को इंगित करता है कि विकास की सही दिशा को छोड़ हम पीछे की तरफ जा रहे हैं।

धर्म हर व्यक्ति का निजी मामला है और घर की दहलीज पार करते ही कोई भी इंसान संकीर्ण व्यवहार न करे तो ज्यादा अच्छा है। क्योंकि धर्म के नाम पर कट्टर होना पूरे समाज के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। धर्म तो मुहब्बत, परोपकार, दया और करुणा सिखाता है। इसके विपरीत जब धर्म की आड़ में हिंसा होने लगे तो यह उस व्यक्ति समेत पूरे समाज व राष्ट्र को प्रभावित करता है। इसलिए मतदाता को यह भली-भांति समझना होगा कि जो उम्मीदवार केवल धर्म का सहारा लेकर उसके पास वोट मांगने आये उसे उसी समय वापस भेज दो और वोट देकर सत्ता तक पहुंचने में उसकी मदद न की जाये। ऐसे भी उदाहरण हैं कि हमारे कई माननीय अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए उच्च संस्थानों में भेजते हैं और मंचों से भाषण देकर गरीब, वंचित वर्ग के लोगों के बच्चों को दंगई बनाने में कहीं न कहीं उनकी भूमिका पायी जाती है। इसलिए वोट देते वक्त उम्मीदवार की पृष्ठभूमि जरूर पता होनी चाहिए। धर्म-मजहब के नाम पर लड़ने वाले आम कार्यकर्ता के बच्चे क्या इससे पेट भर पाएंगे यह वोट देने से पहले सोचना चाहिए।

मतदाता को तार्किक होना जरूरी है न कि किसी दल के प्रति श्रद्धा भाव रखने वाला क्योंकि इससे वह अपने राजनैतिक आका को आत्ममुग्ध बना सकता है जो स्थिति राष्ट्र के विकास में बाधक साबित होती है। हर पांच साल में जब नेता वोट मांगने निकले तो जनता को अपने सवालों के जवाब मांगने चाहिए कि इन पांच सालों में उसने उनके लिए क्या किया। मौजूदा समय में यह बहुत जरूरी है जब सारी दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदि तकनीकी के बल पर बहुत आगे निकल चुकी है और हम आज भी पूजा-इबादत स्थलों के फेर में ही उलझे हैं। 

ऐसे वक्त में जब टेक्नॉलोजी ने मानव सभ्यता को असम्भव-सी लगने वाली चीजों से भी परिचित करवा दिया है हम आज भी किसी उम्मीदवार को महज इसलिए वोट दे देते हैं कि उसने संप्रदाय विशेष का चोगा पहना हुआ है। मतदाता अपनी जिम्मेदारी अगर सही से समझ जाएगा तो नाटकीयता से युक्त लोगों को कभी भी सत्ता के आसपास नहीं फटकने देगा। इसी प्रकार यदि कोई भी पार्टी किसी अपराधी को टिकट देती है तो वह इसके लिए जिम्मेदार होती है लेकिन अगर वह अपराधी चुनकर संसद तक जाता है तो इसमें उस जनता की भागीदारी भी बराबर की होती है जो उसे वोट देती है। इसलिए एक जिम्मेदार मतदाता को तार्किक और ईमानदार होना जरूरी है क्योंकि उसके एक बटन दबाने का फैसला उसकी आने वाली नस्लों को भी प्रभावित करने की ताकत रखता है।