भारत की बड़ी चिंता यह है कि रुपये के मूल्य में गिरावट से हमारे तमाम आयात महंगे हो रहे हैं और निरंतर महँगे होते जायेंगे..!
भारतीय मुद्रा रुपये का डॉलर के मुकाबले लुढ़कना गंभीर चिंता का विषय है, खराब होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में यह गिरावट स्वाभाविक, लेकिन गम्भीर बात है। यह एक सर्व विदित तथ्य है कि भारत ही नहीं एशिया की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इन दिनो मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। फिर भी इस तरह रुपये का डॉलर के मुकाबले अब तक की बड़ी गिरावट के साथ निरंतर गिरना बड़ी फिक्र की बात ही है।
इस घटनाक्रम में भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भी भारी गिरावट हुई है। इस दौर की कठिन और गम्भीर बात यह है कि भारत का आयात निर्यात के मुकाबले अधिक है। भारत को 80 प्रतिशत से अधिक कच्चा तेल विदेशों से आयात करना पड़ता है जिसके चलते पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में वृद्धि हुई जिसके नीचे आने की उम्मीद कम दिखती है, इससे कालांतर पहले से बढ़ी महंगाई के और बढने के आसार है। रुपये के कमजोर होने का असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ेगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
इन हालातों में भी आरबीआई कह रहा है कि कोरोना दुष्काल से पहले स्तर की अर्थव्यवस्था पर लौटने में एक दशक से ज्यादा समय लग सकता है तो अर्थव्यवस्था को लेकर हमारी चिंताएं और गहरी हो जाती हैं। महंगाई दर ऊंची है, बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी हुई है तो ऐसे में रुपये के मूल्य में गिरावट से समस्याओं में और वृद्धि ही होगी।कोरोना दुष्काल से बाधित वैश्विक आपूर्ति शृंखला में रूस-यूक्रेन युद्ध ने आग में घी का काम किया है, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।
जब भी वैश्विक अर्थव्यवस्था में गहरी अनिश्चितता उभरती है दुनिया का संपन्न वर्ग डॉलर की ओर दौड़ता है, जिससे उसके मूल्य में वृद्धि होती है। हाल ही में अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि से वैश्विक स्तर पर डॉलर मजबूत हुआ है। ऐसे में संस्थागत निवेशक अमेरिकी अर्थव्यवस्था में निवेश कर रहे हैं और भारतीय शेयर बाजार से पैसा निकाल रहे हैं।
जिससे भारतीय बाजार में विनिवेश की प्रक्रिया तेज हुई है और रुपये के मूल्य में गिरावट हुई है। दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अंतर्राष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला में बाधा के साथ ही रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते मौद्रिक नीतियां सख्त हुई हैं, जो कालांतर मुद्रा अवमूल्यन का कारक बनी हैं, एक दम स्पष्ट है।
भारतीय रुपये में गिरावट का क्रम स्थायी नहीं है, देर-सवेर उसमें सुधार की संभावना है। आज तो असली सवाल यह है कि हम इस संकट का मुकाबला मौद्रिक व अन्य नीतियों से कैसे कर सकते हैं? इसमें विदेशी निवेशकों से भी सहारा मिल सकता है।
हमारे देश भारत की बड़ी चिंता यह है कि रुपये के मूल्य में गिरावट से हमारे तमाम आयात महंगे हो रहे हैं और निरंतर महँगे होते जायेंगे। उसके लिये हमें अधिक भुगतान करना होगा। वहीं एक दूसरा पहलू यह भी है कि हमारे निर्यात सस्ते होते जायेंगे। इससे हमारे निर्यात बढ़ सकते हैं। यदि सरकार निर्यातकों को बढ़ावा दे तो इससे निर्यात बढ़ने के साथ ही रोजगार के नये अवसर भी सृजित किये जा सकते हैं। जिससे निर्यातकों को डॉलर के लिये अधिक रुपये मिलेंगे।
इसके विपरीत आम आदमी की चिंता यह है कि कच्चे तेल के दाम बढ़ने से ट्रांसपोर्ट व्यय बढ़ जायेंगे, जो कालांतर पहले से बढ़ी महंगाई को और बढ़ा सकता है। आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ने से लोगों की क्रयशक्ति कम हो जायेगी। वहीं विदेशों में पढ़ रहे और पढ़ने जाने की तैयार कर रहे छात्रों की मुश्किलें भी बढ़ जायेंगी। उनकी पढ़ाई इससे और महंगी हो जायेगी। वहीं फार्मा व आईटी कंपनियां फायदे में रहने वाली हैं, रुपये के कमजोर होने उनकी कमाई बढ़ जायेगी।
स्पष्ट तौर पर रुपये के गिरने का एक संदेश दुनिया में यह भी जायेगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। वैसे कोरोना दुष्काल में आय कम होने से लोगों की क्रय शक्ति में गिरावट आई है। जिसके चलते मांग में आई गिरावट सेदेश का उत्पादन भी प्रभावित हुआ है।
अब तो, सरकार को लोगों की मांग बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। खासकर असंगठित क्षेत्र को मजबूत बनाने की जरूरत है जो भारत में रोजगार का बड़ा माध्यम भी है। विकास दर को गति देने के लिये बाजार में मांग व आपूर्ति का संतुलन बनाना भी जरूरी है। यह कदम उद्योगों को गति देने के लिये भी आवश्यक है। यह सरकार पर निर्भर है कि वह इस आपदा को अवसर में कैसे बदलती है?