आश्चर्य यह है कि गुनाह का जवाब गुनाह से दिया जा रहा है. उन्होंने एक बयान दिया और दूसरे लोग गर्दन कलम करने लगे, यह कैसी परिस्थिति है कि धर्म के नाम पर हम होश खो रहे हैं..!
नूपुर शर्मा की टिप्पणी पर प्रतिक्रियाएं दिल दहलाने वाली हैं। खुदा भी गलती मान लेने पर माफी देता है, जो लोग पूरे जीवन इसी तरीके की तालीम लेने का दावा करते हैं, वह इतने कट्टर कैसे हो सकते हैं कि किसी व्यक्ति के सिर को धड़ से अलग कर दें। उदयपुर और अमरावती में हुई धार्मिक हत्याएं बर्बरता की चरम स्थिति हैं। दोनों घटनाओं की जांच हो रही है। दोषी दंडित होंगे ऐसी उम्मीद की जा सकती है। नूपुर शर्मा के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई हो रही है। कानून में यह तय होगा कि उन्होंने जो गुनाह किया है उसकी क्या सजा होगी?
अभी नूपुर शर्मा के विवाद में प्रतिक्रियाएं चल ही रही थीं कि काली मां के अपमान का मामला सामने आ गया। फिल्म निर्माता जिस तरह का पोस्टर जारी कर रहे हैं उसमें देवी के प्रति अपमानजनक दृष्टिकोण साफ़ दिखता है। बंगाल में काली के उपासकों में इसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी। टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा तो उस पोस्टर का समर्थन कर रही हैं यह बात अलग है कि टीएमसी ने इसे उनकी निजी राय बताया है। अयोध्या के महंत भी विवाद में कूद गए और उन्होंने फिल्म निर्माता को चुनौती देते हुए कहा कि क्या वह भी अपनी गर्दन धड़ से अलग करवाना चाहती हैं।
भारत कहां पहुंच गया है? यहाँ जितने भी धार्मिक विवाद पैदा होते हैं या पैदा किए जाते हैं कहीं इनके पीछे कोई सुनियोजित प्रयास तो नहीं होता? ऐसे-ऐसे लोग बयान देते हैं जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं है लेकिन मीडिया उनको हाइलाइट करता है। विवादों को पैदा करने और बढ़ाने में मीडिया का रोल भी चिंताजनक है। नूपुर शर्मा का विवाद भी मीडिया डिबेट से ही शुरू हुआ है। कैसे कोई मीडिया ऐसी बात को अनुमति दे सकता है जिसके कारण किसी की भी धार्मिक भावना भड़के और विभाजनकारी शक्तियां समाज में कट्टरता फैलाने में जुट जाएं?
अब खबरें और डिबेट एजेंडे के तहत होती हुई दिखाई पड़ती हैं। किसी धर्म और समुदाय की तरफ से किसी को भी बिठाकर सबको समान अवसर देने का दावा चैनल जरूर कर सकते हैं लेकिन लोगों का चयन किस आधार पर किया गया? उनकी क्या योग्यता है? उनके पास क्या अनुभव है? समाज में उनका क्या स्थान है? इसकी अनदेखी हो रही है जबकि हर समाज से निश्चित शैक्षणिक योग्यता के स्कॉलर को ही डिबेट में बैठने का मौका मिलना चाहिए।
धर्म पर विवाद क्यों बढ़ रहा है? इसका भी कारण शायद यह होगा कि इससे किसी न किसी को लाभ होता होगा। बिना लाभ के तो लोग कोई भी काम नहीं करते तो फिर समाज और धर्म पर क्यों अपनी ऊर्जा बर्बाद करेंगे?
इसके पीछे भी कोई आर्थिक या राजनीतिक गणित जरूर होना चाहिए। धार्मिक भावनाओं के विवाद अक्सर चुनाव के आसपास ही अचानक क्यों बढ़ जाते हैं? हिजाब विवाद अचानक उभरा और गायब हो गया। आज इस पर कोई बात नहीं करता, ना इसका कोई समाधान हुआ, ना ही कोई इसके लिए रास्ता निकाला गया। बस सभी पक्ष चुप हो गए। फिर कभी चुनाव होंगे तो फिर किसी न किसी स्वरूप में सभी पक्ष सक्रिय हो जाएंगे और उस बुखार का लाभ लेकर कुछ लोग अपना राजनीतिक समीकरण सिद्ध कर लेंगे।
कश्मीर में आतंकवाद ने देश को कितना नुकसान पहुंचाया है? क्या यह आतंकवाद भी राजनीति का एक चेहरा है? इस साल कश्मीर में पर्यटकों की संख्या ने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। एक साल में औसतन जितने पर्यटक कश्मीर जाते थे, इस साल उससे 5 गुना अधिक पर्यटक कश्मीर पहुंचे हैं। कश्मीर में रहने वाले हर व्यक्ति को पता है कि पर्यटक ही उनकी रोजी-रोटी हैं। आज तक पर्यटकों पर कोई आतंकी हमला नहीं हुआ। आतंकी हमले हमेशा सुनियोजित ढंग से संदेश देने के लिए किए जाते रहे हैं।
पूरे कश्मीर में जितने व्यवसाई हैं, सुकून के साथ अपना व्यवसाय कर रहे हैं। आतंकवादी आसमान से नहीं टपकते। वह भी समाज में ही रहते है लेकिन चुन-चुन कर हमले करते हैं। इससे क्या संदेश निकलता है? स्थानीय लोग तो ऐसा मानते हैं कि आतंकवादी घटनाओं के पीछे राजनीति है। इसमें कितनी सच्चाई है, यह धीरे-धीरे सरकार ही सामने ला रही है। अभी कई संगठनों को पकड़ा गया है जो विदेशों से पैसा लेकर आतंकी घटनाओं को अंजाम देते थे।
आजकल तो लोकतंत्र के चुनाव ईवीएम मशीनों से होते हैं।आज से 25 साल पहले चुनाव में मतपत्रों की लूट मतदान केंद्रों पर जाकर अपने लोगों को जबर्दस्ती जिताने का खेल खुलेआम हुआ करता था। आपराधिक तत्व राजनीति के संरक्षण में फलते फूलते थे और जब राजनीतिज्ञों को चुनाव में उनकी मदद की जरूरत होती थी उन्हें लाभ मिलता था। कई राजनीतिक दल तो आज भी अपराधियों को अपने साथ जोड़ कर रखते हैं। ऐसी स्थिति आतंकवादियों की भी है। ये भी अपराधी हैं। राजनीतिक क्षेत्र में उनकी भागीदारी नहीं हो ऐसा मुमकिन नहीं लगता।
आजकल ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब कोई ना कोई धार्मिक भावनाएं भड़काने की बयानबाजी न करता हो. इसके लिए कोई एक धर्म का व्यक्ति जिम्मेदार है ऐसा नहीं है। सभी धर्मों के लोग इसमें शामिल होते हैं। जो इस्लाम पीठ पीछे किसी की बुराई करने, चुगली करने, धोखा देने, किसी दूसरे को नुकसान पर खुश होने, क्षमता के बावजूद किसी की मदद ना करने, छोटों पर रहम न करने, किसी के माल का नुकसान करने, दूसरे की जमीन पर अपना हक जताने, झूठी गवाही देने, रिश्वत लेने, शराब पीने, ब्याज लेने, अमानत में खयानत करने और किसी का दिल दुखाने को गुनाह मानता हो, उसी इस्लाम के नुमाइंदे किसी की गर्दन कैसे कलम कर देते हैं? बेगुनाह को मौत के घाट कैसे उतार देते हैं?
खुदा सब का हिसाब रखता है। कयामत के दिन सजा भी मुकर्रर करता है। यह सब जानते हुए भी गुनाह करना इंसानियत नहीं हो सकती। यह सारी परिस्थितियां सुधारने के लिए राजनीति और राजनेताओं को सुधरना होगा। हमें जड़ को ठीक करना होगा, जहां से ऐसे हालातों को खाद पानी मिलता है।