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मानहानि से ज्यादा खतरनाक लोकतांत्रिक मर्यादा की हानि

सार

राजनीतिक बयानों से सुर्खियां हासिल करने वाले नेताओं में राहुल गांधी आजकल सबसे आगे चल रहे हैं. लंदन में दिए गए बयानों पर माफी की मांग के चलते देश की संसद चल नहीं रही थी कि आज सूरत के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट द्वारा मानहानि के मुकदमे में उन्हें दो साल की मिली सजा ने सनसनी फैला दी है..!

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विस्तार

अदालत ने एक बयान जिसे मानहानि कारक मानते हुए अपना फैसला दिया है, उस पर प्रतिक्रिया भी लोकतंत्र की मानहानि के नए द्वार खोल रही है. राहुल गांधी अदालती फैसले को लेकर अपनी प्रतिक्रिया में महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के सहारे नहीं डरने और नहीं झुकने का डंका पीट रहे हैं. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मलिकार्जुन खड़गे अपनी प्रतिक्रिया में कहते हैं कि ‘कायर तानाशाह भाजपा सरकार राहुल गांधी और विपक्ष से तिलमिलाई हुई है क्योंकि हम उनके काले कारनामे उजागर कर रहे हैं’, लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार को कायर और तानाशाह कहना किसी की भी राजनीतिक आह हो सकती है लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की राह नहीं है.

पहले भी कई बार भारत के लोकतंत्र ने आपातकाल जैसे दौर देखे हैं. राजनीतिक आहें उस समय भी भरी जाती थीं और आज भी भरी जा रही हैं. लोकतंत्र भारत में और भारत लोकतंत्र में समाया हुआ है. यह बात जरूर है कि मानहानि के अपराध से ज्यादा लोकतांत्रिक मर्यादा की जो हानि हो रही है वह अब ज्यादा खतरनाक दिखाई पड़ रही है.

अदालत के फैसले पर वैसे भी कोई टिप्पणी नहीं की जाना चाहिए फिर भी राजनीतिक प्रतिक्रियाएं ऐसी आ रही हैं जैसी अदालत के फैसले पर नहीं आनी चाहिए. राहुल गांधी ने अपने ट्वीट में कहा है- 'मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है सत्य मेरा भगवान है, अहिंसा उसे पाने का साधन'. भारत में ऐसा कोई नागरिक नहीं हो सकता है जो यह कहे कि असत्य उसका धर्म है. अदालतें भी सत्य की बुनियाद और ध्येय पर काम करती हैं. 

अदालतों में तो भगवान का वास माना जाता है. भारतीय संस्कृति में पंच को परमेश्वर कहा गया है. अदालत के भगवान ने जो फैसला दिया है उस पर सत्य और अहिंसा का बाहरी भार लादना उसकी मर्यादा को बढ़ाना नहीं कहा जाएगा बल्कि यह बात कहने का राजनीतिक तरीका होता है. नेगेटिव पॉलिटिक्स आज राजनीति में सक्सेस का नेरेटिव क्यों बन गया है? राजनीतिक बयान भी क्या अपमानजनक और मानहानि कारक होने चाहिए? अगर ऐसी परिस्थितियां कहीं बनती हैं तो क्या कानून के राज में उस पर मुकदमा नहीं चलना चाहिए? किसी भी समाज में जाति को अपमानित करने की कोशिश कैसे बर्दाश्त की जा सकती है?

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी राहुल गांधी पर आए अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए राजनीतिक बयानों पर नेताओं को फंसाने की प्रवृत्ति की आलोचना की है. वैसे तो केजरीवाल कांग्रेस के कट्टर विरोधी हैं लेकिन अभी बीजेपी के साथ उनकी कट्टरता कुछ ज्यादा हो गई लगती है. इसलिए दूसरे कट्टर का समर्थन उनकी राजनीतिक मजबूरी ही हो सकती है.

मानहानि के मामले में जो अदालती फैसला आया है, उस पर निश्चित रूप से राहुल गांधी अगली अदालत में जाएंगे और न्यायिक दृष्टि से उचित फैसला निश्चित आएगा. राजनीति में तो लोग खुशी और गम दोनों को भुनाने से पीछे नहीं रहते. कर्नाटक में चुनाव की घोषणा कभी भी हो सकती है. ऐसे में राहुल गांधी और कांग्रेस इस फैसले को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करने से पीछे नहीं रहेगी, रहना भी नहीं चाहिए राजनीति में तो सब कुछ जायज माना जाता है.

लोकतंत्र में अक्सर राजनेताओं की ओर से ऐसे वक्तव्य आते हैं कि वह किसी से डरते नहीं हैं और ना ही झुकते हैं. राजनेता आखिर क्यों डरेगा और क्यों झुकेगा? अक्सर डरती और झुकती तो पब्लिक है. राजनेता तो इसी आदर्श पर काम करते हैं कि डर के आगे जीत है. जीत राजनीति का पहला और आख़िरी सिद्धांत होता है. राहुल गांधी को भी जीत के सिद्धांत पर अपनी सारी रणनीतियों को अंजाम देने की जरूरत है.

जहां तक चर्चा का सवाल है भारतीय राजनीति आजकल बिना राहुल गांधी की चर्चा से पूरी नहीं हो पा रही है. वह नकारात्मक हो चाहे सकारात्मक हो लेकिन चर्चा तो जरूर होती है. ऐसे व्यक्ति को सफल  माना जाता है जिसे  भले स्वीकार किया जाए या अस्वीकार किया जाए लेकिन उसे इग्नोर ना किया जा सके. इस दृष्टि से राहुल गांधी राजनीतिक रूप से सफल माने जायेंगे. भारतीय राजनीति में आज उन्हें इग्नोर करना संभव नहीं लगता है.

मलिकार्जुन खड़गे द्वारा तानाशाह की जो प्रतिक्रिया दी गई है वह निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्रित कर कही गई लगती है. लोकतंत्र में तानाशाह की कोई गुंजाइश नहीं होती. लोकतंत्र तो जनता के विश्वास और प्रेम का प्रतीक माना जाता है. निर्णय और अपने एक्शन के प्रति दृढ़ता को अगर तानाशाही के रूप में देखा जाएगा तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं माना जा सकता. 

भारतीय लोकतंत्र ने आपातकाल भी देखा है. भारत में बहुत ताकतवर प्रधानमंत्री रह चुके हैं. इंदिरा गांधी को तो कांग्रेस के ही नेता 'इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा' कह कर भारत के प्रतीक के रूप में प्रचारित करते थे. संजय गांधी की राजनीतिक शख्सियत और उस दौर में शासन-प्रशासन की शैली देखने वाले तानाशाही की बारीकी को आसानी से समझ सकते हैं.

भारतीय राजनीति और राजनेता आज अभिनेता की भूमिका में ज्यादा दिख रहे हैं, जहां भी दृश्य बनने की लालसा होती है दिखने की चाह होती है, वहीं दिखावा शुरू हो जाता है. अच्छा, नेक और प्रगतिशील दिखने की आकांक्षा से पाखंड की शुरुआत होती है. दर्शक सब जानता है लेकिन दिखने के आकांक्षी कई बार दर्शकों को भी ‘टेकन फॉर ग्रांटेड’ मानकर चलते हैं. इससे भारतीय लोकतंत्र का तो नुकसान नहीं होता लेकिन नेता को जरूर नुकसान उठाना पड़ता है.