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प्रार्थना,अरदास, प्रेयर और इबादत की अनिवार्य शर्त

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sat , 09 Sep

सार

अजीब सा तनाव है, देश में प्रार्थना के लिए विश्व विख्यात देश भारत में “ध्वनि विस्तारक”[लाउड स्पीकर] के प्रयोग को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लोग आमने-सामने हैं. वैसे प्रार्थना के लिए ध्वनि विस्तारक यंत्र का प्रयोग किसी भी प्रार्थना,अरदास, प्रेयर और इबादत के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है..!

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विस्तार

प्रार्थना,अरदास, प्रेयर और इबादत तो शांति के साथ और शांति के लिए ही किए जाने का उल्लेख हर जगह मिलता है । भारत और विश्व में शांति के लिए यह प्रक्रिया ध्वनि विस्तारक यंत्र के प्रादुर्भाव से पुरानी है। अफ़सोस हम न तो प्रार्थना के मर्म को समझ रहे हैं और न ही हमारी रुचि ध्वनि विस्तारक यंत्र के उस वैज्ञानिक पक्ष को समझने में है, जो हमें बीमार कर रहा है ।

मेरे सामने एक रिपोर्ट है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की ‘वर्ल्ड हीयरिंग रिपोर्ट’ है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व की डेढ़ अरब आबादी बहरेपन के साथ जी रही है, जिनमें से कम से कम 43 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके मर्ज का इलाज हो सकता है। अंदेशा है,  साल 2050 तक ऐसे लोगों की संख्या 70 करोड़ हो जाएगी, ये सब ध्वनि प्रदूषण को भुगत रहे हैं । ध्वनि प्रदूषण दरअसल ऐसे अवांछित विद्युत-चुंबकीय संकेत हैं, जो इंसान को कई रूपों में नुकसान पहुंचाते हैं। इसीलिए, शोर-प्रेरित बहरेपन पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है। ध्वनि प्रसारक के इस नुक़सान को समझना ज़रूरी है। यह कोई जटिल बात नहीं है।

अध्ययन बताते हैं कि निर्माण कार्य, औद्योगिक कामकाज (मोटर वाहन उद्योग, खदान, कपड़ा उद्योग आदि), जहाज बनाने या मरम्मत करने संबंधी काम, अग्निशमन, नागरिक उड्डयन आदि सेवाओं में लगे श्रमिकों में शोर-प्रेरित बहरेपन का खतरा ज्यादा होता है। हालांकि, श्रवण के लिहाज से असुरक्षित मनोरंजन के साधन, आवासीय स्थान, और असैन्य व सैन्य सेवाएं भी बहरेपन की समस्या बढ़ा सकती हैं। आकलन है कि 15 प्रतिशत नौजवान संगीत कार्यक्रमों, खेल आयोजनों और दैनिक कामकाज में होने वाले तेज शोर से बहरेपन का शिकार होते हैं।शोर-प्रेरित बहरेपन की समस्या विकासशील देशों में ज्यादा है, जहां तीव्र औद्योगिकीकरण, अनौपचारिक क्षेत्र के विस्तार और सुरक्षात्मक व शोर-नियंत्रणरोधी उपायों की कमी से लोग चौतरफा शोर-शराबे में दिन बिताने को अभिशप्त हैं।

भारत में तो शोर-प्रेरित बहरेपन को फैक्टरी ऐक्ट ऐसी बीमारी मानता है, जिस पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। महानिदेशालय कारखाना सलाह सेवा व श्रम संस्थान ने आठ घंटे तक ही अधिकतम 90 डेसीबल आवाज में रहने की अनुशंसा की है। सन् 2024 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अनुमान लगाया था कि श्रवण के असुरक्षित तरीकों से १अरब नौजवानों में बहरेपन का खतरा है। कार्यस्थलों पर शोर ही मूल समस्या नहीं है, हाल के दिनों में धर्मस्थलों या इबादतगाहों में आस्था के नाम पर लाउडस्पीकरों का जमकर इस्तेमाल होने लगा है। अब तो इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कुछ लोग आमने-सामने आने को तैयार खड़े हैं।

हद तो यह है विश्व शांति के लिए होने वाले आयोजन भी बिना शोर-शराबे के पूरे नहीं होते हैं, जबकि 85 डेसीबल से अधिक तेज आवाज अगर हमारे कानों में पहुंचती है, तो हमें अस्थायी बहरेपन की समस्या हो सकती है और हमारी सुनने की क्षमता कम हो सकती है। तेज आवाज के संपर्क में आने के 10-15 दिनों में इसका इलाज संभव है। मगर कान की रोम कोशिकाएं और संबंधित तंत्रिका तंतु यदि बार-बार या निरंतर शोर के संपर्क में रहे, तो बहरापन स्थायी बन सकता है।

अत्यधिक शोर के असर से स्थायी स्मृति लोप और मानसिक रोग भी हो सकते हैं। यह भी एक स्थापित सत्य है कि तेज संगीत और आसपास के शोर या अचानक तेज आवाज के संपर्क में आने से भी सुनने की हमारी क्षमता धीरे-धीरे खत्म हो सकती है। दरअसल, तेज आवाज नाजुक श्रवण कोशिकाओं को उत्तेजित करती है, जिससे वे स्थायी रूप से चोटिल या खत्म हो सकती हैं।

इस तरह से एक बार यदि सुनने की क्षमता खत्म हो जाए, तो उसे फिर से हासिल करना नामुमकिन है। देश के अलग-अलग समुदायों में सामाजिक व धार्मिक जलसों में लाउडस्पीकरों के व्यापक उपयोग से भी कई तरह की स्वास्थ्यगत समस्याएं हो सकती हैं। इनसे मानसिक रोग, बहरापन, उच्च रक्तचाप, चक्कर आना, घबराहट, अनिद्रा जैसी बीमारियां हो सकती हैं। तेज शोर के संपर्क में आने वाला व्यक्ति रक्त-बहाव तंत्र से जुड़ी बीमारियों, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, पेप्टिक अल्सर और तंत्रिका संबंधी रोगों का शिकार भी हो सकता है।

किसी और की न मानें, तो कम से कम विज्ञान की बात पहले और धर्म की बात पर ठंडे दिमाग़ से सोंचे कि प्रार्थना,अरदास, प्रेयर और इबादत के लिए क्या ज़रूरी है? और यह सब हम शांति के लिए ही तो करते हैं, तो फिर शांति के साथ क्यों नहीं कर सकते?