कभी भाजपा के कर्णधार रहे केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी में उपजी राजनीतिक विरक्ति के कई मायने निकाले जा रहे हैं। कुछ ऐसा मान रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एकाधिकार की कार्यशैली से वे दबाव महसूस कर रहे हैं। राजनीति छोड़ने की गडकरी के मन की आवाज को कुछ लोग महाराष्ट्र के राजनीतिक घटनाक्रम से जोड़ रहे हैं।
आजकल तो राजनीति का यह स्तर हो गया है कि उसे समझने के लिए कोई अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की राजनीति में सभी के कपड़े गंदे दिखाई पड़ते हैं। इसके बावजूद राजनीतिक संदेश देने के लिए अपने चेहरे को दूसरे से चमकदार दिखाने की होड़ लगी रहती है। प्रचार के इस युग में वही नेता, ब्रांड और डायलॉग सफल माने जाते है जिस पर चर्चा हो या जो मोस्ट ट्रेंडिंग में हो । इसलिए राजनीतिक डायलॉग का बहुत अधिक मतलब निकालने का कोई औचित्य नहीं रहता।
राजनीति में विचारधारा, सिद्धांतों के हिसाब से एक दूसरे के कट्टर विरोधी दल कब मिलकर एक साथ सरकार चलाने लगेंगे यह कोई ज्योतिषी भी बताने में शायद सफल नहीं हो सकेगा। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा आज कांग्रेसी युक्त भाजपा के रूप में कई राज्यों में साकार हो रहा है। मध्यप्रदेश तो भाजपा के कांग्रेसीकरण का सक्सेसफुल मॉडल बन गया है।
नगरीय निकायों के चुनावों में भाजपा को मिले झटके को पार्टी में पनप रही कांग्रेसी बुराइयों के रूप में देखा जा रहा है। मध्यप्रदेश का भाजपा संगठन देश में आदर्श के रूप में माना जाता रहा है। भाजपा जब देश में शून्य पर थी तब भी उसका मध्यप्रदेश का संगठन प्रभावशाली ढंग से काम कर रहा था। संगठन के मामले में कांग्रेस की भाजपा से कोई तुलना नहीं की जा सकती थी। कांग्रेस जहां विभिन्न नेताओं और गुटों के समूह के रूप में मानी जाती थी, वहीं बीजेपी कैडर बेस पार्टी थी।
बीजेपी में कैडर सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था। संगठन के नेताओं की दक्षता इस बात में साबित होती थी कि कैडर की काबिलियत को पहचान कर उन्हें लोकतांत्रिक प्रणाली में अवसर दिया जाता था। कई बार ऐसे किस्से सामने आए हैं जब कार्यकर्ता को इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि उसे पार्टी किस पद के लिए मौका दे रही है और अचानक उसे मौका दे दिया जाता है। इस तरह की स्थिति कांग्रेस में नहीं होती। कांग्रेस में तो जमावट और नेताओं की परिक्रमा के बिना कोई पद या महत्व मिलना मुमकिन नहीं हो सकता था।
बीजेपी में भी अब कांग्रेस की बुराई शायद धीरे-धीरे पनप रही हैं। नगरीय चुनावों में इसके वायरस दिखाई पड़े हैं। नगर निगम में कांग्रेस के जो 5 महापौर जीते हैं उनमें ग्वालियर की विजयी प्रत्याशी ऐसे परिवार से आती हैं जो भाजपा के कार्यकर्ता रहे हैं और बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और विधायक बने। इसी प्रकार सिंगरौली में विजयी महापौर पहले भाजपा में थीं, बाद में आम आदमी पार्टी में शामिल होकर उन्होंने चुनाव लड़ा। यह दोनों घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि कहीं ना कहीं पार्टी में कैडर के स्तर पर कार्यकर्ता के महत्व और भूमिका को पहचानने और उन्हें अवसर देने की शैली में कमजोरी आ गई है।
कटनी में जो महापौर विजयी हुई हैं, वे भाजपा की कार्यकर्ता रही हैं। महापौर का टिकट नहीं मिलने के कारण उन्होंने विद्रोह कर निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ा और जीतने में सफल हुईं। कटनी मध्य प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष बीडी शर्मा के लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। संगठन के राज्य के मुखिया के क्षेत्र में महापौर प्रत्याशी के चयन में इसे चूक माना जाएगा या गुटबाजी अथवा अपने व्यक्ति को अवसर देने की शैली? इनमें से किसी भी हालात में निश्चित रूप से यही माना जाएगा कि संगठन अपनी भूमिका से भटक गया है। ये सारी परिस्थतियाँ क्या स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा का संकेत नहीं दे रही हैं?
विभिन्न चुनावों में टिकट वितरण में संघर्ष, मारपीट और बगावत कभी कांग्रेस का कॉपीराइट हुआ करता था। अब यह सारी बुराइयां भाजपा में भी देखी जा रही हैं। इस बार के नगरीय निकाय चुनाव में हजारों भाजपा कार्यकर्ताओं ने विद्रोह कर निर्दलीय चुनाव लड़ा। शायद इसी कारण पार्टी को चुनाव परिणामों में नुकसान उठाना पड़ा। पार्टी में अनुशासन के लिए भाजपा को पहचाना जाता था जो अब कहीं ना कहीं व्यक्तिवाद के कारण कमजोर हुआ लगता है। बीजेपी कार्यकर्ताओं को बगावत के कारण निष्कासित भी किया गया है।
‘कांग्रेस मुक्त भारत’ एक नारे के रूप में प्रचलित हुआ था। चुनावी राजनीति में धीरे-धीरे कांग्रेस को हो रहे नुकसान के कारण इसका कहीं-कहीं प्रभाव भी दिखा है। चुनाव प्रणाली से कांग्रेस को हो रहे नुकसान के अलावा बड़े पैमाने पर नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। इसको देखते हुए राजनीतिक हलकों में मजाक में यहां तक कहा जाने लगा कि कांग्रेसियों को बीजेपी में शामिल कर लो, अपने आप देश कांग्रेस मुक्त हो जाएगा।
असम में वर्तमान मुख्यमंत्री कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता हुआ करते थे। जब वह बीजेपी में शामिल हुए तो वहां कांग्रेस कमजोर हुई और भाजपा को ताकत मिली। मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार कांग्रेस में बगावत के कारण गई। केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी और अपने पदों से इस्तीफा दिया और मंत्रिमंडल में शामिल हुए। चुनाव में इनमें से अधिकांश को फिर से जनादेश प्राप्त हो गया।
लगभग 2 साल हो गए कांग्रेसी युक्त भाजपा की राज्य सरकार सक्सेसफुल ढंग से जनसेवा को अंजाम दे रही है। क्या कांग्रेस की संस्कृति अपनाए बिना सत्ता और संगठन को नहीं चलाया जा सकता? पहले ऐसा माना जाता था कि बीजेपी संगठन और सरकार में मुख्य पद अपनी विचारधारा और संस्कृति में शिक्षित और दीक्षित नेता को ही दिए जाते थे। इसलिए दूसरे दलों से आए नेता घुटन महसूस करते थे।
अगर हम इतिहास में देखें तो दूसरे दलों से बीजेपी में शामिल नेताओं को कभी महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जाता था। मध्यप्रदेश में भी ऐसा देखा गया है। विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव के समय उपनेता प्रतिपक्ष राकेश चौधरी ने पद छोड़ा था और बीजेपी में शामिल हुए थे जो बाद में निराश होकर फिर कांग्रेस में चले गए।
नई भाजपा ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। भाजपा के कांग्रेसीकरण के मध्य प्रदेश मॉडल में बगावत करने वाले हर नेता को पद दिया गया है। भले ही वह चुनाव हार गया हो। राजनीतिक प्रतिबद्धता निभाने की इस शैली से दूसरे दलों के नेताओं का रुझान बीजेपी की ओर बढ़ा है।
यह सही है कि संसदीय शासन प्रणाली में शासन व्यवस्था चलाने का मौका हासिल करना मुख्य लक्ष्य होता है। सिद्धांत और विचारधारा प्रदर्शन के लिए हो सकती है। क्रियान्वयन के समय तो वास्तविक परिस्थितियों के अनुरूप ही काम करना पड़ता है। पब्लिक की बात की जाय तो उसे सत्ता की राजनीति के कांग्रेसीकरण से फर्क नहीं पड़ता।
कार्यकर्ता किसी भी संगठन की बुनियाद होता है। सत्ता का पत्ता लहराता रहे इसके लिए जरूरी है कि बुनियाद मजबूत रहे। उन राजनीतिक दलों को इस पर अधिक सचेत रहने की जरूरत है जो कार्यकर्ता आधारित माने जाते हैं।