कांग्रेस गठबंधन की असली परीक्षा राज्यों के चुनाव में है. इस साल बिहार में चुनाव होने हैं, इसके बाद पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, यूपी और पंजाब के चुनाव दो सालों में होंगे. इन सभी राज्यों में कांग्रेस के इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के साथ ही सीधा मुकाबला है. बिहार में जरूर आरजेडी और कांग्रेस में सीट शेयरिंग हो सकती है, लेकिन बाकी राज्यों में कांग्रेस को गठबंधन सहयोगियों से कोई भी चुनावी ऑक्सीजन मिलने की संभावना नहीं है..!!
राज्य के चुनाव में क्षेत्रीय दलों से यूनिटी की ज्यादा जरूरत कांग्रेस को है. लेकिन क्षेत्रीय दल राज्यों में कांग्रेस को किसी भी कीमत पर पांव जमाने का मौका नहीं दे रहे हैं. कोरोना के समय जैसे सांसों के लिए ऑक्सीजन की मारा-मारी थी, वैसे ही कांग्रेस राज्य के चुनाव में गठबंधन की यूनिटी के लिए सहयोगियों से ऑक्सीजन मांग रही है. सहयोगियों को राजनीति में अपनी सांसे बचाना है, तो कांग्रेस से बचना ही पड़ेगा. बीजेपी का एनडीए गठबंधन हर राज्य में चुनौती के रूप में खड़ा है.
लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन परिणामों से उत्साहित हुआ था. इसी उत्साह में कांग्रेस विशेषकर राहुल गांधी नेतृत्व की अपनी राष्ट्रीय छवि स्थापित करने की कोशिश में लग गए. गठबंधन सहयोगियों के कान खड़े हुए. सहयोगी तो गठबंधन की लीडरशिप के लिए राहुल गांधी को स्वीकार करने से भी पीछे हट गए. दिल्ली के चुनाव में इंडिया गठबंधन के सहयोगी कांग्रेस और आप की राजनीति के सितारे डूब गए हैं. पंजाब में जब चुनाव होंगे, तब कांग्रेस और आप का सीधा मुकाबला होगा. वहां किसी गठबंधन की कोई संभावना नहीं देखी जा सकती.
बिहार में लालू यादव की आरजेडी पिछले चुनाव में भी कांग्रेस के कारण ही सत्ता से दूर रह गई थी. जितनी सीटों पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था, उसकी जीत का प्रतिशत बहुत ही खराब रहा. इसीलिए इस बार राजद कांग्रेस को अधिक सीटें नहीं देना चाहेगी.
महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली की जीत के बाद बीजेपी का गठबंधन बिहार में उत्साहित है. नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के लिए एनडीए की तैयारीआगे दिखाई पड़ रही है. कांग्रेस जब या बीजेपी के सीधे मुकाबले वाले एमपी, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों में कुछ नहीं कर पाई तो, बिहार जैसे राज्यों में तो उसका आधार ही नहीं बचा है. महाराष्ट्र के चुनाव में भी कांग्रेस उम्मीद कर रही थी, लेकिन इतिहास की सबसे करारी हार कांग्रेस को भुगतनी पड़ी है.
बंगाल में तो ममता बनर्जी कांग्रेस को किसी कीमत पर खड़े नहीं होने देंगी. बामपंथी और कांग्रेस गठबंधन मिलकर फिर वहां चुनाव लड़ेगा, तो भी बंगाल चुनाव में मुकाबला टीएमसी और बीजेपी के बीच में ही सिमट कर रह जाएगा. इन राज्यों में तो कांग्रेस दिल्ली जैसा वोट कटवा पार्टी रह जाएगी. केरल में बामपंथियों के साथ भी कांग्रेस का सीधा मुकाबला होगा. केरल में बीजेपी का बहुत अधिक जनाधार नहीं है, लेकिन फिर भी भाजपा पूरी ताकत के साथ वहां खड़ी हो रही है. तमिलनाडु में भी कांग्रेस के लिए हालात अच्छे नहीं हो सकते हैं.
कांग्रेस के इंडिया गठबंधन को लोकसभा में जो सफलता मिल गई थी, उसने ही कांग्रेस के भविष्य के नुकसान की नई रख दी थी. समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में लोकसभा में जितनी सीटें कांग्रेस को दी थीं, विधानसभा में सीट शेयरिंग में कांग्रेस नुकसान में रहेगी. यूपी में बसपा थर्ड फ्रंट के रूप में उपलब्ध रहेगी. ऐसी भी खबरें सामने आई हैं, कि सपा और बसपा समझौता करके चुनाव लड़ सकते हैं. अगर ऐसे हालात बनते हैं तो फिर कांग्रेस एक दो सीटों तक ही सिमटकर रह जाएगी.
कांग्रेस के जनाधार को हथियाकर क्षेत्रीय दलों में राज्यों में अपनी ताकत बनाई है. इनमें मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा है. कांग्रेस को साथ में मौका देने से क्षेत्रीय दलों का यह आधार खिसक सकता है. इस डर के मारे भी कांग्रेस को केवल सांस लेने लायक मौका ही क्षेत्रीय दल देने का प्रयास करेंगे.
महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली का चुनाव हारने के बाद कांग्रेस में वर्तमान लीडरशिप के प्रति निराशा बढ़ती जा रही है. कांग्रेस संगठन में फेर-बदल की भी चर्चाएं हो रही हैं. जो नेता पार्टी पर बोझ साबित हो रहे हैं, उन्हें हटाने की भी कोशिशें हो रही हैं.
पार्टी के संगठन महासचिव के.सी.वेणुगोपाल की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं. मीडिया चेयरमैन जयराम रमेश भी अपने पद से हटाए जा सकते हैं. पुराने नेता जो पदों पर जमे बैठे हुए हैं, लेकिन उनका परफॉर्मेंस पार्टी के लिए लायबिलिटी बन गया है, उन्हें भी हटाया जा सकता है.
पार्टी की यह शैली बन गई है, कि किसी भी जीत के लिए गांधी परिवार राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को श्रेय दिया जाता है. हार के लिए दूसरे नेताओं की गर्दनें तलाशी जाती हैं. राहुल गांधी का भी ट्रैक रिकॉर्ड जिताऊ से ज्यादा हार के इतिहास से भरा हुआ है. गांधी परिवार पार्टी के लिए मजबूरी है. राहुल गांधी के चेहरे के अलावा पार्टी में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को जोड़ के रख सके. कांग्रेस में पीढ़ी परिवर्तन की जरूरत है. पदाधिकारियों के पत्ते फेंटने से अब शायद कोई परिणाम नहीं आ पाएगा. अब तो नया प्लेकार्ड ही उपयोग करना पड़ेगा.
कांग्रेस की समस्या यह रही है, कि नए लोगों को मेरिट के आधार पर मौका नहीं दिया गया. नेताओं के परिवार और दूसरे अन्य कारणों से गांधी परिवार के चहेते बन जाते हैं. जो जनता में चहेते नहीं हैं वह कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व के चहेते बन जाते हैं, इसी कारण चुनाव में कांग्रेस का परफॉर्मेंस अच्छा नहीं रहता.
कांग्रेस पब्लिक कनेक्ट खोती जा रही है. राहुल गांधी समय-समय पर विभिन्न समूहों से जाकर मिलते हैं. उनके यह कदम भी भरोसा निर्मित नहीं कर पाते. फॉल्स नॉरेटिव ओर फॉल्स पर्सनालिटी अंत में जाकर फॉल्स इमेज पर समाप्त हो जाती है. राहुल गांधी किसानों से, कुलियों से, मैकेनिक से मिलने के बजाय अगर इन समूहों को अपने पास बुलाकर अपनी जीवन यात्रा के बारे में बताएं, तो यह ज्यादा भरोसा पैदा कर पाएगा.
कांग्रेस गूंगी पीड़ा का शिकार है. कांग्रेस में जो भी इतिहास में विश्वास कमाया था, उसको पार्टी स्वयं डस रही है और सहयोगी भी डस रहे हैं. कांग्रेस पार्टी तब तक नहीं खड़ी हो सकती है, जब अपने बलबूते पर खड़ी होने का प्रयास नहीं करेगी. सहयोगियों के गठबंधन से कांग्रेस का भविष्य नहीं संवर सकता.
चुनाव में जीत हार से ज्यादा कांग्रेस को विचारधारा के स्तर पर एक तरफा सोच से हटना होगा. भारत की सत्ता का सपना भारतीय परंपरा और संस्कृति से किनारा करके तो पूरा नहीं हो सकता.