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जाति का जाजम, सियासत का समागम

सार

राष्ट्रीय चुनाव से पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का सेमीफाइनल खेला जा रहा है. मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनावी मैच हो चुके हैं. नतीजा EVM में कैद है. राजस्थान में चुनाव प्रचार बंद हो गया है. 25 नवंबर को यहाँ वोट डाले जाएंगे. चुनावी सेमीफाइनल के नतीजे तीन दिसंबर को आएंगे..!!

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विस्तार

बिहार में भले ही अभी चुनाव नहीं हो रहे हैं लेकिन बिहार की जातीय राजनीति के 'फसल प्रयोग' सभी चुनावी राज्यों में दिखाकर कांग्रेस EVM में अपनी ताकत बढ़ाने की पुरजोर कोशिश कर रही है. कास्ट सेंसेक्स के बाद बिहार सरकार ने सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 75% कर दिया है. सुप्रीम अदालत की व्यवस्था के विपरीत आरक्षण की सीमा बढ़ाने का बिहार सरकार का आदेश भले ही भविष्य में अदालती निर्णय पर टिका हुआ हो लेकिन चुनावी राजनीति में तो आरक्षण की मिसाइल दागी ही जा रही है. 

चुनावी राज्यों में वोटों की गणना के साथ जातिगत जनगणना की धार भी अपना राजनीतिक असर दिखाएगी. चुनावी राज्यों में कांग्रेस का तो सबसे बड़ा मुद्दा जातिगत जनगणना का वायदा ही माना जा सकता है. भाजपा भले ही जातिगत जनगणना का वायदा नहीं कर रही है लेकिन वह भी सधे कदमों से जातीय जनगणना के साथ ही दिखाई पड़ रही है.

बिहार के आरक्षण विधेयक का बीजेपी ने समर्थन किया है. जहां राज्यपाल विधेयकों को महीनों मंजूरी के लिए लटकाए रखते हैं वहीं बिहार के राज्यपाल ने एक दिन के भीतर ही बढ़े हुए आरक्षण के विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए हैं तो इसका सीधा मतलब है कि भाजपा भी जातीय जनगणना की मशाल को अपने हाथ से छोड़ना नहीं चाहती है.

पांचो राज्यों के चुनाव में कांग्रेस सीधे मुकाबले में है. तेलंगाना और मिजोरम में क्षेत्रीय दलों के साथ तो छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी के साथ उसका सीधा मुकाबला है. जातीय जनगणना और OPS दो मुद्दे हैं जिस पर बीजेपी कांग्रेस के वायदे की तोड़ के लिए कोई सीधा वायदा नहीं कर सकी है. इसीलिए शायद कांग्रेस इन दोनों मुद्दों से चुनावी राज्यों में बढ़-चढ़कर कर्मचारी और पिछड़ी जातियों को लुभाने की कोशिश कर रही है. राहुल गांधी तो अपनी हर चुनावी सभा में जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाने से नहीं चूके हैं. इस मुद्दे को वे सामाजिक क्रांति के रूप में भी रेखांकित कर रहे हैं.

दुनिया आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डीपफेक से चिंतित है तो भारत की सबसे बड़ी चिंता अभी भी जातिगत राजनीति ही बनी हुई है. यद्यपि सरकारी सेक्टर ही इस राजनीति का लाभान्वित क्षेत्र बना हुआ है. निजी क्षेत्र में जातियों से ऊपर योग्यता के आधार पर वास्तविक भारत का दिग्दर्शन देखा जा सकता है.

कर्नाटक में कांग्रेस की पूर्व में रही सरकार द्वारा जातिगत जनगणना कराई गई थी लेकिन उसका डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया है. चुनावी राज्यों में कांग्रेस द्वारा जातिगत जनगणना का वायदा अपने वचन पत्र में किया गया है. जातिगत जनगणना सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आकलन के लिए कर लेने से कोईआमूलचूल बदलाव नहीं आएगा. 

जहां तक बिहार राज्य का सवाल है वहां कास्ट सेंसेक्स के जो आंकड़े सामने आए हैं उसमें गरीबी का स्तर सभी वर्गों में कमोबेश तुलनात्मक रूप से एक ही अनुपात में बना हुआ है. विकास की दृष्टि से बिहार का कास्ट सेंसेक्स बाकी राज्यों के लिए आधार नहीं हो सकता है  क्योंकि देश के कई राज्य हैं जो प्रगति के रास्ते पर बिहार से काफी आगे निकल गए हैं. रोजगार सृजन में सरकारों की भूमिका अब बहुत कारगर भी नहीं रही है. आजादी के बाद से ही कई ऐसी योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च किए गए हैं लेकिन उसके कोई भी सार्थक दीर्घकालीन परिणाम नहीं देखे गए हैं.

सामाजिक न्याय की राजनीति की सीमा को भी राजनेताओं को स्वीकार करना पड़ेगा. जातिगत जनगणना और आरक्षण की राजनीति सियासी लाभ के लिए तो उपयोगी हो सकती है लेकिन इससे सामाजिक न्याय की अवधारणा अब तक तो फलीभूत होती दिखाई नहीं पड़ रही है. जातिगत जनगणना के जरिए सामाजिक न्याय की राजनीति को एक नया जीवन दिया जा रहा है. देश के लिए इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राजनीतिक दल सर्वाधिक पिछड़े समुदायों और सामाजिक समूह को तुलनात्मक रूप से हाशिये पर दिखाने में गहरी दिलचस्पी दिखा रहे हैं. 

चुनावी राज्यों के अभियानों ने यह तथ्य भी रेखांकित किया है कि सामाजिक न्याय के बहुमुखी विचार भविष्य के राजनीतिक विमर्श की शर्तें तय करने जा रहे हैं.
राजनीतिक रूप से प्रेरित उपायों को सामाजिक न्याय के नाम पर वैध बनाने की कोशिश की जा रही है. देश में बढ़ती सामाजिक और आर्थिक विषमता पर सार्थक चर्चा के लिए सामाजिक न्याय के चुनाव केंद्रित लक्ष्यों पर सवाल उठाया जाना चाहिए. लोगों के आर्थिक जीवन के इस आमूल पुनर्गठन ने एक गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है. राज्यों को मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था और भारतीय समाज के गरीब और हाशिये पर मौजूद वर्गों की आकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाना था लेकिन दुर्भाग्य से राज्यों ने सामाजिक न्याय की परिकल्पना और उद्देश्यों को एक चुनावी तंत्र के रूप में ही कार्यवाही का जरिया बना लिया है.

बिहार में जातीय जनगणना के माध्यम से सामाजिक न्याय का जो नया राजनीतिक अस्त्र फेंका गया है उससे कोई भी दल बच नहीं सकता है. कांग्रेस ने तो अपने गठबंधन की सरकार के इस अस्त्र को अमोघ अस्त्र के रूप में चला दिया है. पांचो राज्यों में वोटों की गणना के साथ ही जातिगत जनगणना का भी राष्ट्रीय दृष्टिकोण निर्धारित होगा. परिपक्व होते लोकतंत्र और जातियों के टूटते जंजाल के बीच आरक्षणकोटा, सबकोटा और कोटे में कोटा के नए दरवाजे जरूर खोले जायेंगे. लोकतंत्र का प्राण सबका कल्याण है और यही राजनीति की भी प्राणवायु होना चाहिए.