आजादी के अमृत काल में हर घर तिरंगा अभियान के खिलाफ भी राजनीतिक आवाजों से ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है? अमृत काल तक पहुंचते-पहुंचते भारत ने सब रंग देखे हैं। देश ने जहां आपातकाल देखा, वहीं सेकुलर राजनीति और राजनीति का हिंदुत्व काल भी देखा। विकास का हाल भी देखा और सत्ता की राजनीति का अमृत काल भी देखा। भारत ने आस्तीन के सांप भी देखें और जाति की राजनीति का अभिशाप भी देखा। देश ने राजनीति में धर्म का प्रताप भी देखा, गवर्नेंस का टॉप देखा तो सिस्टम का संताप भी देखा। सत्ता की राजनीति में डूबे लोगों और उनका ईमानदारी का पाठ भी देखा। सेवा से शुरू राजनीति के सफर को सौदेबाजी की डगर पर भी जाते देखा।
कमाई से ज्यादा खर्च करने वाले ईमानदार राजनेता देश के अमृतकाल के अमृत कहे जा सकते हैं। नाग पंचमी पर सांपों के दुग्ध अभिषेक की सांस्कृतिक परंपरा निभाने के लिए अब सांप नहीं मिलते हैं। सांप की प्रकृति और चरित्र का चहुँओर बोलबाला है। अमृतकाल के 75 साल में विकास तेज़ और धीमा कहा जा सकता है। अर्थव्यवस्था की गति बढ़ी है तो मंदी भी आई है। केवल राजनीति ऐसा क्षेत्र रहा है, जहां कभी मंदी दिखाई नहीं पड़ी। राजनीति गंदी भले हो गई हो लेकिन मंदी का शिकार कभी नहीं हुई।
आजादी के अमृतकाल में देश के गौरव और स्वाभिमान को जहां याद किया जा रहा है। वहीं विकास के भविष्य की जरूरतों की परिकल्पना की जा रही है। जो क्षेत्र यह सब कुछ कर रहा है उसे अपनी कमियों और कमजोरियों को देखने का या तो समय नहीं है या जानबूझकर नजरअंदाज किया जा रहा है।
आजादी के समय धर्म के आधार पर विभाजित भारत आज भी धर्म के नाम पर विभाजित ही दिखाई पड़ता है। असहिष्णुता अपने चरम पर है। किसी वक्तव्य के कारण 'सिर तन से जुदा' करने के अभियान को क्या भारत की तासीर कहा जा सकता है? हर रोज धार्मिक मुद्दों को विवाद का विषय बनाया जाता है। पवित्र श्रावण मास में भगवान शंकर के अभिषेक के लिए कावड़ियों की सेवा पर भी सवाल भारतीय मानसिकता तो नहीं हो सकती।
तुष्टीकरण और तृप्तिकरण की राजनीति भले ही एक ही सिक्के के दो पहलू हों लेकिन उनके राजनीतिक संदेश इस ढंग से फैलाए जाते हैं कि बहुमत को प्रभावित किया जा सके। यह देखना जरूरी है कि समाज के सभी क्षेत्रों में आई गिरावट का सर्वाधिक असर राजनीतिक क्षेत्र पर ही दिखाई पड़ता है। राजनीति में आज क्या कोई सेवा का भाव दिखाई पड़ता है? अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि दुर्घटना में घायल व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाने का कर्तव्य निभाया जाता है तो उसकी तस्वीर भी वायरल कराने की कोशिश की जाती है। हमें राजनीति को सेवा का क्षेत्र मानने में भी संकोच होता है।
कार्यपालिका में जैसे अखिल भारतीय सेवाओं का कैडर है उसी प्रकार से राजनीतिक दलों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का एक कैडर काम करता है। जो वेतनभत्तों और पेंशन के साथ ही सभी तरह की सरकारी सुविधाएं हासिल करने का अभ्यस्त हो जाता है। जनप्रतिनिधियों को पेंशन क्यों दी जानी चाहिए? राजनीति को सेवा का माध्यम मानने वाले राजनेता पेंशन लेकर तो सेवा के भाव को ही तिरोहित कर देते हैं। विभिन्न दलों में कितनी भी टकराहट हो लेकिन जब जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों या पेंशन का मामला आता है तो सर्व सम्मति से निर्णय हो जाता है।
सरकारी नियम कानून के अंतर्गत जो सुविधाएं दी जाती हैं उसके इतर जो अनैतिक सौदेबाजी और सरकारी सिस्टम से वसूली और कमीशन बाजी की जाती है वह तो पूरी तौर से सफलता की कुंजी मानी जाती है।
एक जानकारी के अनुसार, किसी भी राज्य में विधानसभा के एक निर्वाचित प्रतिनिधि को अधिकतम 1.50 लाख तक प्रतिमाह वेतन भत्ते मिलते हैं। हमारे जनप्रतिनिधियों का जो रहन-सहन होता है, उनका अपने क्षेत्र के लोगों के साथ जिस तरह का कनेक्ट होता है, उसको देखते हुए कार्यालय में सामान्य शिष्टाचार चाय-नाश्ते आदि पर होने वाले खर्च का ही अनुमान लगाया जा सकता है।
किसी भी जनप्रतिनिधि के एक कार्यालय का अवलोकन करने पर स्पष्ट पता लग जाएगा कि हर जनप्रतिनिधि के कार्यालय में क्षेत्र के लोगों का इलाज और राजधानी आने जाने के किराए आदि की व्यवस्था अमूनन रहती है। एक जनप्रतिनिधि अपने वेतनभत्तों से तो इसकी पूर्ति नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि यह बात किसी को पता नहीं है। शासन के सूत्र भी जनप्रतिनिधियों के हाथ में होते हैं। उन्हें सब कुछ पता होता है। जनप्रतिनिधि अपना खर्च कैसे चलाते हैं, उसकी भरपाई के लिए क्या-क्या तरीके अपनाए जाते हैं? किस तरह सिस्टम से वसूली होती है? यह सबको पता होता है लेकिन क्योंकि सब इसमें शामिल होते हैं इसलिए इस पर कभी भी कोई बातचीत नहीं होती।
मध्यप्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने विधानसभा में यह वक्तव्य दिया था कि भ्रष्टाचार फाइलों में देखने का कोई मतलब नहीं है। भ्रष्टाचार और भ्रष्ट कमाई सिस्टम से जुड़े लोगों के जीवन, रहन-सहन और चेहरों पर दिखाई पड़ती है। यह बात सौ टका सच लगती है। संसदीय प्रणाली में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वित्तीय झंझट से दूर रखने की सोच हुआ करती थी लेकिन अमृतकाल तक आते-आते चाहे संसद के जनप्रतिनिधि हों या विधानसभाओं के जनप्रतिनिधि, सबने सांसद और विधायक निधि के रूप में बड़ी राशि स्वयं के डिस्पोजल पर खर्च होने की प्रक्रिया निर्धारित कर ली है। सांसद और विधायक निधि के खर्च को लेकर आए दिन शिकायतें होती रहती हैं। भ्रष्टाचार और कमीशन बाजी आम शिकायत मानी जाती है।
राजनीतिक दलबदल आजकल रोज का विषय हो गया है। महाराष्ट्र में शिवसेना की टूट के बाद नई सरकार गठित हो गई है, भले ही अभी मंत्रिमंडल नहीं बन सका है लेकिन झारखंड में भी सरकार को अस्थिर करने के किस्से सामने आने लगे हैं। देश के अमृतकाल में राजनीति में दलबदल का कोई ऐसा पुख्ता प्रबंध नहीं हो सका है कि जिस सिम्बल पर जनता जनप्रतिनिधि को चुनती है उसमें निर्धारित कार्यकाल तक कोई बदलाव न किया जा सके।
अब तो एक नया ट्रेंड चल पड़ा है। बहुमत के लिए विधायकों को अपने साथ मिलाने में अगर दलबदल कानून आड़े आ रहा है तो विधायक के पद से त्यागपत्र ही दिला दिया जाता है। आज़ादी के 75 साल बाद यह सोचने में भी आ रहा है कि देश का रुपया तेजी से गिर रहा है या राजनीति..! साथ ही कमाई से ज्यादा खर्च पर भी राजनीति ईमानदार कैसे है?
आजादी के अमृतकाल में अमृत महोत्सव का आयोजन देश के गौरव और स्वाभिमान के लिए जरूरी है। राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रभक्ति राजनीति से ऊपर है। हर घर तिरंगा अभियान को सफल बनाना प्रत्येक देशवासी का दायित्व है। इसको राजनीतिक नजरिए से देखना आत्महीनता की पराकाष्ठा होगी।