वैसे शहरों में अवसरों की बड़ी उपलब्धता के चलते भी रोजगार सृजित होते हैं। वर्तमान भारतीय शहर जब दुनिया में सबसे कम रहने योग्य शहरों में शुमार होने लगे हैं, तब यह हमारे लिए नए शहरों के निर्माण का मौका है।
सरकार के अपने आंकड़े, घोषणा और कल्पनाएँ होती है, समाज की मांग अलहदा, भारत में रोजगार ऐसा ही विषय है | सरकार मुहैया करा पाए या न करा पाए लक्ष्य जरुर बनाती और बताती है | उसके आंकड़ो से इतर अध्ययन कहते हैं भारत में हर वर्ष कम से कम दो करोड़ लोगों को रोजगार की जरूरत है और इतने लोगों को रोजगार देना सरकार का लक्ष्य होना चाहिए | दुर्भाग्य से, रोजगार की कमी को लेकर जनभावनाएं बहुत प्रबल हैं। कहने को सरकार अंतत: रोजगार की समस्या का संज्ञान ले रही है।
आंकड़ों के अनुसार अगले पांच वर्षों में देश में ६० लाख नौकरियां पैदा हो सकती हैं, यानी हर साल औसतन १२ लाख नौकरियां। मोटे तौर पर हर साल एक करोड़, ८० लाख भारतीय १८ साल के हो जाते हैं, जिनमें से एक बड़ा बहुमत कार्यबल में प्रवेश करता है। इसके अतिरिक्त कम से कम १० करोड़ लोगों को कृषि क्षेत्र में कम उत्पादकता और कम वेतन की वजह से बाहर निकलने की जरूरत पड़ती है। प्रच्छन्न बेरोजगारों को ज्यादा उत्पादक गैर-कृषि नौकरियों में जाना पड़ता है। अंत में, बेरोजगारों का जो अंबार लगता है, उसमें लगभग २० करोड़ भारतीय शामिल दिखते हैं। ये बेरोजगार श्रम बल भागीदारी दर ४२ प्रतिशत में नहीं हैं। भारत में श्रम बल भागीदारी तुलनीय उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम है। हर साल भारत में कम से कम दो करोड़ लोगों को रोजगार की जरूरत है और इतने लोगों को रोजगार देना एक लक्ष्य है, पर पूरा नहीं होता है |
देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए मुश्किल तब होती है । जब भारत में हर साल दो करोड़ नौकरियां पैदा नहीं होती है, तब तक सब अशांति, आरक्षण की मांग, राजनीतिक सक्रियता और सामाजिक गड़बड़ियां खोजते रहेंगे। नौकरियों का जवाब आमतौर पर सीधा होता है और इसके लिए आर्थिक विकास की जरूरत पड़ती है। वैसे, देश की अनूठी आर्थिक संरचना इसे और जटिल बना देती है। दो करोड़ नौकरियों के लक्ष्य को पाने के लिए हमें हर साल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में १० प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर की जरूरत है। अभी हम ओ.१ प्रतिशत की दर से रोजगार दे पा रहे हैं, इसमें कई गुना वृद्धि होनी चाहिए। आज अगर सकल घरेलू उत्पाद में १० प्रतिशत की वृद्धि हो, तो रोजगार उपलब्धता में लगभग एक प्रतिशत की वृद्धि होती है, जाहिर है, अभी रोजगार बढ़ाने की बड़ी दरकार है। कहने को पिछले तीन दशक में भारत ने सकल घरेलू उत्पाद में ज्यादा वृद्धि देखी है, लेकिन बेरोजगारी भी काफी हद तक उसका हिस्सा रही है। गहरे संरचनात्मक मुद्दों, जैसे श्रम कानूनों ने श्रम-प्रचुर देश के सामाजिक ताने बाने को कंपनियों की कृपा पर आधारित पूंजी प्रधान बना दिया है।
रास्ता एक ही दिखता है, बड़े पैमाने पर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार पैदा करना, लेकिन भारत में मैन्युफैक्चरिंग कायदे से अभी शुरू भी नहीं हुई है। इसके लिए पुराने श्रम कानूनों, गैर-निष्पादित संपत्ति संकट, व्यवसाय करने में कठिनाई को दोषी ठहरा दिया जाता है। हां, इन क्षेत्रों में कुछ सुधार हुए हैं, लेकिन अभी बहुत कुछ करना शेष है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का एक अध्ययन भविष्यवाणी करता है कि आने वाले वर्षों में भारत में कौशल की भारी कमी होगी और २०३० तक हमारे पास दो करोड़, ९० लाख नौकरियां ऐसी होंगी, जो सही कौशल के अभाव के चलते काम नहीं आएंगी। अत: भारतीयों में कौशल विकसित करने में सहयोग के लिए बडे़ पैमाने पर जोर देने की जरूरत है। लोगों को कौशल युक्त बनाने के लिए जोखिम उठाने की जरूरत पडे़गी, ऋण देना होगा, ताकि लोग अपना कौशल बढ़ा सकें, यह रोजगार की तैयारी के लिए देश को स्थायी रूप से कुशल बनाने का एक शानदार तरीका हो सकता है।
वैसे शहरों में अवसरों की बड़ी उपलब्धता के चलते भी रोजगार सृजित होते हैं। वर्तमान भारतीय शहर जब दुनिया में सबसे कम रहने योग्य शहरों में शुमार होने लगे हैं, तब यह हमारे लिए नए शहरों के निर्माण का मौका है। यह शैक्षिक संस्थानों, औद्योगिक समूहों या बड़े चिकित्सा या परिवहन केंद्रों के आसपास केंद्रित बड़े शहर बसाने का अवसर है। यदि हम लगभग ८० लाख से एक करोड़ की आबादी वाले २०-३० नए शहर बनाते हैं, तब हम उन शहरों के निर्माण, रखरखाव और संचालन में बड़ी संख्या में नई नौकरियां पैदा कर सकेंगे।रोजगार बढ़ाने के कुछ अन्य विचार या तरीके भी हैं। श्रम की कमी से जूझ रहे देशों के साथ हमें संधियां करनी चाहिए। गिग इकोनॉमी, मतलब अनुबंध आधारित अस्थायी नौकरी देने वाली अर्थव्यवस्था में नौकरियां तो पैदा हो रही हैं, लेकिन यहां आय की अस्थिरता और खराब कामकाजी हालात भी बन रहे हैं। बेशक, गिग कामगारों के लिए सुरक्षा प्रबंध करने से इस सेक्टर में विकास को बल मिलेगा। रोजगार सृजन के लिए और भी तरीके हैं, लेकिन पहला कदम यह है कि हम इस समस्या की भयावहता को स्वीकारें फिर समाधानों के बारे में सोचें|