इस वर्ष सोशल मीडिया पर जो दस दिवसीय कार्यक्रम विवरण घूम रहा है उसमें दो प्रकार का मनोविज्ञान काम कर रहा है एक तो बसंत ऋतु की प्राकृतिक विशेषता और दूसरी सहज मानवीय आकृषण ।
इन दिनों भारत में वैलेन्टाइन उत्सव की धूम मची है । यह उत्स पहले यह एक दिन का हुआ करता था, फिर तीन दिन का हुआ, फिर सात दिन का और अब यह सोशल मीडिया पर पूरे दस दिवसीय धूम मचाये हुए है । इन दस दिनों में किस दिन क्या करना चाहिए इसका भी बाकायदा विवरण दिया गया है और इस विवरण के अनुसार बाजार गिफ्ट पैक से भर गये हैं ।
कुछ कंपनियाँ तो आपन लाइन डिलेवरी भी कर रहीं हैं । पूरी दुनियाँ में कोरोना संकट के बाबजूद पिछले वर्ष लगभग सवा सौ करोड़ गिफ्ट पैक बिके थे । इस वर्ष यह आकड़े क्या होंगे यह फरवरी के अंत तक पता चलेगा । इसको विस्तार देने और व्यापक बनाने में विश्व की तमाम मार्केटिंग एजेंसियां जुटी हुईं हैं । वे किसके संकेत पर काम कर रहीं हैं इसकी अधिकृत जानकारी कहीं नहीं है । फिर भी अनुमान है कि इसके पीछे पश्चिमी मिशनरी और आर्थिक शक्तियों की युति है जो संसार की युवा पीढ़ी को आकर्षित करके अपने रंग में रंगना चाहती हैं, और गिफ्ट पैक का व्यापार करना चाहतीं हैं ।
उत्सव मनाना मनाना बुरा नहीं है । भारत में तो प्रतिदिन किसी न किसी उत्सव की परंपरा है । किंतु उन सब उत्सवों के पीछे कोई न कोई दर्शन है, उद्देश्य होता है, समाज को कोई संदेश होता है । उत्सवों के आयोजनों के इस सिद्धान्त के संदर्भ में हम देखें कि वैलेन्टाइन उत्सव का ध्येय क्या है । इस वर्ष जो दस दिवसीय आयोजनों का विवरण जारी हो रहा है उससे कौन जुड़ेगा और और जुड़ने वाले को संदेश क्या है । इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं हैं । वस एक वाक्य यह है कि "छोड़ो पुरानी बातें, आधुनिकता से जुड़ो" । इस वाक्य के आगे तमाम युवा पीढ़ी एकजुट हो जाती है और वह आधुनिक बनने की दौड़ में शामिल होकर अपने "वैलेन्टाइन" की खोज में लग जाती है । चूँकि यह खेल मनौवैज्ञानिक है । जिस ऋतु में यह दस दिवसीय वैलेन्टाइन का प्रोपेगंडा किया जा रहा है । यह बसंत ऋतु है, प्रकृति के परिवर्तन की ऋतु है । पुराने पत्ते झड़ते हैं और नयी कोपले फूटती हैं । नाचने का मन करता है । विचारों में भावनात्मक ज्वार सा उठता है । एक बारीक अंतर यह होता है कि विवेक का भाव कम और भावना का भाव प्रबल होता है । इसीलिये भारतीय चिंतकों ने इस ऋतु में तीर्थाटन, प्रकृति की विशेष सेवा और सकारात्मक कार्य आरंभ करने की परंपरा डाली थी । जिस किसी ने भी वैलेन्टाइन उत्सव की परंपरा आरंभ की उसने इसी प्राकृतिक मनौविज्ञान का अध्ययन किया और युवा पीढ़ी के बीच में अपनी पैठ बनाना आरंभ करदी ।
इस वर्ष सोशल मीडिया पर जो दस दिवसीय कार्यक्रम विवरण घूम रहा है उसमें दो प्रकार का मनोविज्ञान काम कर रहा है एक तो बसंत ऋतु की प्राकृतिक विशेषता और दूसरी सहज मानवीय आकृषण । चींटी से लेकर हाथी तक सभी प्राणियों में जोड़ा बनाने का आकर्षण होता है । मनुष्य में थोड़ा ज्यादा ही है । इसलिये इस वैलेन्टाइन आयोजन इन दोनों मनोविज्ञान का पूरा उपयोग किया गया है । इस दस दिवसीय आयोजन में आरंभिक पहले दिन पत्र लिखना, दूसरे दिन ग्रिटींग भेजना, तीसरे दिन "रोज" भेंट करना, चौथे दिन "प्रपोज" करना पाँचवे दिन "चाकलेट" भेंट करना, छठवें दिन "टेडीवियर" भेंट, सातवें दिन "प्राॅमिश", आठवें दिन "हॅग", नववें दिन "किस" । और अंत में दशवें 14 फरवरी को मिलन । इस कैलेण्डर में यह स्पष्ट नहीं है कि तिथियों का यह निर्धारण किसने किया है । पर इसके निहितार्थ में दो बातें बहुत स्पष्ट हैं । पहली तो यह कि चॉकलेट, टेडीवियर, ग्रिटींग आदि गिफ्ट का बाजार और दूसरा युवा पीढ़ी सब काम छोड़कर दस दिनों तक इन्हीं सब में लगी रहे । इन दोनों बातों से आज की दुनियाँ में किसको सबसे अधिक लाभ है । वह है चीन को । आज चीनी गिफ्ट सबसे सस्ता है और पूरी दुनियाँ में छाया है । इन दिनों चीन से सर्वाधिक विचलित भारत और अमेरिका जैसे देशों के बाजार भी चीनी गिफ्ट सामान से भरे पड़े हैं । यह सही है कि वैलेन्टाइन उत्सव परंपरा चीन से आरंभ नहीं हुई । वैलेन्टाइन का चीन से कोई संबंध भी नहीं है । इतिहास में पाँच वैलेन्टाइन पादरियों का उल्लेख मिलता है और पांचो का संबंध रोम से है । लेकिन उत्सव रोम से आरंभ नहीं हुआ । उत्सव अमेरिका से आरंभ हुआ लेकिन बाजार पर चीन ने कब्जा कर लिया । चीन के नागरिक वैलेन्टाइन में उतने नहीं उलझते जितने भारत या अमेरिका में उलझते हैं । पर चीन वैलेन्टाइन के बाजार का पूरा लाभ उठा रहा है । यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी पर्वत शिखर से कोई झरना आरंभ हुआ, उसने दिशा पकड़ी तो धीरे धीरे अनेक जल धारायें मिलने लगतीं हैं । आ मिलने वाली उन जल धाराओं में आपषी कोई तालमेल नहीं होता । कोई पर्वत शिखर की पवित्र धारा भी हो सकती है और कोई किसी ग्राम नगर के गटर का पानी । लेकिन सब आ मिलते हैं चल पड़ते हैं । अपना अपना स्वार्थ साधते हैं और आगे बढ़ते जाते है । धारा को विशाल नदी में बदल देते हैं