स्टोरी हाइलाइट्स
जन्मते ही हंसने और दाहिने पांव का अंगूठा चूसने को सांदीपनि और आंगिरस ने विशेष योगमुद्रा का प्रतीक बताया। कितना रोचक है कृष्ण का स्वरूप।
गर्ग और श्रीकृष्ण जन्म: श्रीकृष्णार्पणमस्तु -14
रमेश तिवारी
श्याम वर्ण: अधपके जामुन के समान रक्तिम। मानो स्वर्ण में जामुन का रस मिला दिया गया हो। प्रथम नाम श्याम, नामकरण के बाद कृष्ण और गर्ग द्वारा लाक्षणिक आंकलन "श्री"। बहुत बाद में! जन्मते ही हंसने और दाहिने पांव का अंगूठा चूसने को सांदीपनि और आंगिरस ने विशेष योगमुद्रा का प्रतीक बताया।
कितना रोचक है कृष्ण का स्वरूप। और जो कभी राजा ही नहीं बना, उस कृष्ण को जन्मते ही गर्ग ने चक्रवर्ती कह दिया था कहा था! "इसके पांव कभी एक जगह ठहरेंगे ही नहीं"!
श्रीकुष्ण के जन्म की अवर्णनीय कथा का संबंध महान मुनि गर्ग से भी है। गर्ग के संबंध में अभी हम इतना ही जान पाये हैं कि कालयवन उनका पुत्र था। किंतु अवैधानिक।
कालनेमि नामक यवन ने गोपाली नामक एक अपसरा को दबाव बना कर, मुनि के आश्रम में रखवा दिया और फिर गोपाली ने एक रात्रि में मुनि को पड़यंत्र पूर्वक अपने सौन्दर्य जाल में फंसा लिया था। गर्ग, पश्चिमी भारत के अति मुनि और प्रभावी विद्वान थे। उनकी अनुमति के बिना पश्चिमी दिशा से आर्यावर्त में कोई प्रवेश नहीं कर सकता था।
वे महान ज्योतिषी, वास्तुशास्त्री और यादवों के पुरोहित थे।
श्रीकृष्ण उनका बहुत आदर करते थे, क्योंकि यदुमहल (गजराज महल) कारागार में श्रीकृष्ण का जन्म और गोकुल में नंद के घर तक कृष्ण (शिशु) को सकुशल पहुंचाने की योजना गर्ग की ही थी। देवकी और वासुदेव की प्रमुख प्रहरी पूतना और पुरोहित गर्ग के अलावा, कोई अन्य तो कारागार में प्रवेश भी नही कर सकते थे।
भाद्रपद की अष्टमी। यदु महल के एक कक्ष में तेल का दीपक टिमटिमा रहा था। गोकुल और मथुरा में एक दिन पूर्व से ही धारासार वर्षा हो रही थी। यमुना का जलस्तर बढ़ता ही जा रहा था। विद्युत उत्पात ऐसा कि लोगों के ह्रदय दहशत से बैठने लगे।
अनेक बार तो लगता कि गजराज महल भी हिल रहा है। धारासार, वर्षा, पवन का प्रकोप, धराशायी होते बड़े बड़े वृक्ष। और जल मयी हुई मथुरा की तमाम नालियां, गलियां और प्रांगण, सब के सब सरावोर। अष्टमी की संझा तो अंधियारी देकर इतने शीध्र आई की लोगों का कहीं भी निकलना ही दूभर हो गया। इन्द्र का ऐसा प्रकोप संभवत: वर्षों से न देखा गया होगा। दैनंदिन की भांति वासुदेव और देवकी को पूजन करवाने हेतु महल में आने वाले गर्ग मुनि अत्यंत कठिनाई से पहुंच सके। पूजन के अलावा उन्होंने कुछ बातें कीं और चले गये। वर्षा के कारण कंस का पूरा सूचना तंत्र भी मानो अव्वस्थित हो गया था।
यद्यपि नारद की भविष्यवाणी के अनुसार 8 वी संतान के जन्म की घडिय़ां समीप आते आते कंस न केवल 24 घंटों चिंतित रहता,किंतु अब तो वह विचलित भी था। उसने अत्याचार कर करके ऐसा भयभीत करने वाला वातावरण बना दिया था कि कोई बोल ही नहीं सकता था। उसकी सर्वाधिक विश्वस्त परिचारिका पूतना उसको देवकी के प्रसव की संभावना की प्रतिदिन जानकारी देती रहती थी। एक प्रकार से महल में सुई भी गिर जाये तो उसकी भी जानकारी पूतना रखती थी।
अष्टमी को भी उसने कंस को नूतन स्थिति से अवगत करवाया। और फिर अपने घर चली गई। जब पूतना जा रही थी, उस समय मथुरा की हालत जल प्लवन जैसी हो रही थी। पूतना शाम तक यदु महल नहीं लौटी.! अरे.! अब तो रात्रि भी हो गयी। पूतना का तो कोई समाचार भी नहीं आया। यदु महल के द्वार रक्षकों ने मुख्य द्वार को पूतना के लिए खुला छोड़ दिया। आंधी, तूफान और धारासार वर्षा से बचने की दृष्टि से वे भी कपाट बंद करके सो गये।
देवकी को प्रसव पीडा़ प्रारंभ हुई। वासुदेव उन्हें दूसरे कक्ष में ले गये प्रसव परिचारिका की भूमिका का निर्वहन भी वासुदेव को ही करना पड़ा। बालक का जन्म हुआ। सामान्यत:जन्म लेते ही रोने वाले बच्चों की तरह कृष्ण रोये नहीं। अरे..! इस नवजात के मुख पर तो स्मित है। मुंचे हुए नेत्रों के साथ हल्की सी स्मित। माता पिता की अवर्णनीय प्रसन्नता। देवकी ने बालक को साफ स्वच्छ किया। बार बार मुख दर्शन किया। अचानक वासुदेव चौकन्ने हुए.! कुछ याद आया। यमुना तीर खुलते हुए झरोखे पर खड़े हुए, दो दीपक जलाये। और उनको ऐसे प्रदिक्षित किया जैसे कोई आरती कर रहा हो।
तब ही यमुना पार गोकुल की ओर से भी प्रकाश दिखाई दिया। मशाल ही थी। जो प्रकाश कर रही है। अपने कर्तव्य का पालन करने तत्पर वासुदेव ने एक शाल लिया। सुदृढ से लगने वाले बालक को एक डलिया में रखा। ऊपर से चटाई ढंकी। डलिया कांधे पर रखने के पूर्व द्वार रक्षकों की टोह लेने गये। भारी वर्षा के कारण सभी स्थितयां अनुकूल थीं। न तो कोई द्वार रक्षक था और न ही पूतना। भयानक वर्षा, मार्ग के अवरोध, विद्युत, पवन और धराशायी वृक्षों के कारण आज पूतना नहीं आ सकी। डलिया में बालक दाहिने पांव का अंगूठा चूस रहा था।
वासुदेव ने जाने पहचाने स्थान से यमुना में प्रवेश किया। ऊंचे स्थान से निकले। उसी समय बिजली चमकी। वर्षा के पानी को रोकने मानों बादलों ने (घनों ने) घनश्याम की टोकरी पर छांव करदी। वासुदेव मशाल लिये खड़े लोगों तक पहुंचे। वहां मुनि गर्ग और गोप श्रेष्ठ नंद सामने थे। गर्ग ने वासुदेव से टोकरी ली और नंद को सौंप दी। जबकि नंद के हाथ में रखी जो टोकरी थी, उसको वासुदेव को सौंप दी। वासुदेव ने आश्चर्य से पूछा -नंद इसमें है क्या ! नंद ने विनीत भाव से कहा।
यशोदा ने एक बालिका को जन्म दिया है। जन्म देते ही वह बेसुध हो गई। अभी भी सुध नहीं लौटी.! नंद के नेत्रों से आत्मरस छलक पडा़। नंद..उंउंउं.! मैं कभी भी तुम्हारा उपकार नहीं भूलूंगा! नंद। बेसुध यशोदा की सुध जब तक लौटी, तब तक नंद उसके आंचल के समीप कृष्ण को लिटा चुके थे। और उधर मथुरा के गजराज महल में यशोदा की कन्या आ चुकी थी। अब तो स्थापित भी हो चुका था कि, देवकी ने कन्या को जन्म दिया है। दूसरे दिन पहुंची पूतना ने देवकी से भेंट की। और फिर समाचार देने कंस के पास जा पहुंची। अपनी अनुपस्थिति से क्षुब्ध और भयभीत पूतना बार बार पूछने पर भी कंस को यही विश्वास दिलाती रही कि बालिका ने ही जन्म लिया है।
आज की कथा बस यहीं तक। तब तक विदा।
धन्यवाद।