स्थित-प्रज्ञ क्या है ? स्थितप्रज्ञ कैसे बना जा सकता है ? 


स्टोरी हाइलाइट्स

सामान्य तौर पर का अर्थ है सुख और दुख में समभाव| राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह के आवेगों में भी सहज और शांत रहना | स्थित-प्रज्ञ  जैसा श....

ATUL VINOD:- सामान्य तौर पर का अर्थ है सुख और दुख में समभाव| राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह के आवेगों में भी सहज और शांत रहना | स्थित-प्रज्ञ  जैसा शब्द से ही पता चल रहा है| अपनी प्रज्ञा में स्थित रहना|प्रज्ञा यानी अपनी मूलभूत चैतन्य बुद्धि|  वह बुद्धि जो जानकारियों से मुक्त है| वह बुद्धि जो बाहरी धारणाओं से परे है| जिसमे आग्रह या दुराग्रह नहीं है| जो  वैचारिक बंधनों से ऊपर है|सबसे पहला काम तो है अपनी प्रज्ञा को जानना, अपनी प्रज्ञा को जानने के लिए आत्मा को जानना जरूरी है| आत्मा को जानने के लिए अध्यात्म पर चलना होता है| आध्यात्मिक उन्नति करते हुए एक वक्त  आत्मा का साक्षात्कार(प्रज्ञा) हो जाता है| हम सुख और दुख से भरे हुए हैं| हमारे अंदर अनेक तरह के संस्कार हैं| हमारे संस्कार हमारे अनुभवों और विचारों से बने हैं| सुख-दुख से मुक्त होकर अपनी प्रज्ञा में स्थित होकर स्थितप्रज्ञ बना जा सकता है| सुख और दुख से मुक्ति कहना आसान है होना कठिन? शरीर के साथ सब कुछ लगा हुआ है| यह संसार द्वेत का संसार है| प्रेम के साथ घ्रणा, राग के साथ द्वेष, वैराग्य के साथ मोह, मैत्री के साथ दुश्मनी, सहजता के साथ अहंकार जुड़े हुए हैं|व्यक्ति को अच्छाई के साथ बुराई को भी लेकर चलना होता है|  जैसे दिन के साथ रात होती है ऐसे ही हर अस्तित्व के दो पहलू होते हैं| जब हम इन दोनों स्थितियों में सम हो जाते हैं| अच्छाई और बुराई को स्वीकारते हुए इन दोनों को नियति का खेल समझते हैं| खुद को हर स्थिति में सम रखते हुए इन्हें एक दर्शक कि तरह देखते हैं| ये तब होता है जब हमे ये अनुभव हो जाता हैं कि ये सब खेल है| जिनसे मैं सिर्फ "अतुल विनोद" नही हूँ| ये शरीर और इससे जुडी पहचान उस महा अस्तित्व का छोटा सा हिस्सा भी नहीं| और मेरा महा जीवन उस ब्रम्हांडीय जीवन का तुच्छ हिस्सा भी नहीं|  जीवन में हर तरह के भाव व स्थितियां आते हैं लेकिन उनके साथ बहना नहीं है| जैसे दुःख आता है तो उस दुख के साथ ही ना बह जाएँ| कुछ अच्चा हुआ तो उसी के जश्न में ना डूब जाएँ| हमारी पांच इन्दिर्यों में से एक ही काफी है हमें बहा ले जाने में, जैसे सुगंध हमे मदहोश कर सकती है| सुन्दरता हमे मोहित कर सकती है| किसी की मीठी आवाज़ हमे सम्मोहित कर सकती है| एक द्रश्य हमे वासना के वेग में बहा ले जा सकता है| इन इंद्रियों के जाल को देखते रहना उसमे फसना नहीं | और फस गए तो तुरंत होश में आ जाना, अपराध बोध से ग्रस्त न होना बेवजह का मलाल न करना, यह स्थितप्रज्ञ व्यक्ति का लक्षण है| इन्द्रियां बुद्धि को हर लेती हैं| इंद्रियों से आने वाले सिग्नल के प्रभाव में आकर मन उछलने लगता है| "नाव" बुद्दी है और "हवा" मन… जैसे नाव की दिशा हवा बदल देती है वैसे ही मन बुद्धि को पलट देता है| बड़े से बड़े पहुंचे हुए व्यक्ति  फिसल जाते हैं| भावनाओं के आवेग में बह जाते हैं| इसलिए हर समय सावधान रहना ज़रूरी | एक व्यक्ति सन्यासी बन गया लेकिन मन भोगों में लगा है तो वो स्थितप्रज्ञ नहीं, एक व्यक्ति भोगी है लेकिन भोग करते हुए भी सम है वह भी स्थित प्रज्ञ हो सकता है| एक संसारी भी स्थितप्रज्ञ हो सकता है और साधू नही भी|हमेशा जागरूक रहिये, सजग रहिए, जैसे समुद्र कितनी ही नदियों के मिलने के बावजूद भी अविचलित रहता है| वैसे ही मनुष्य को भी समुद्र की तरह अनेक तरह के विषय विकार और भावनाओं की नदियां मिलते रहने पर भी स्थितप्रज्ञ रहना चाहिए| स्थितप्रज्ञ के लिए सुख और दुख, शुभ अशुभ सब कुछ परमात्मा का प्रसाद है| उसे बुराई में बुराई नजर नहीं आती|  ऐसा व्यक्ति काम, क्रोध, मोह, भय से दूर नहीं भागता  बल्कि उनका सामना करता है| भोग में भी योग ढूंढता है| एक सामान्य व्यक्ति छोटी सी गलती हो जाने पर, काम, क्रोध, मोह, लोभ में फस जाने पर खुद को कोसता है| लेकिन स्थितप्रज्ञ व्यक्ति कुछ गलत हो जाने पर भी दुखी नहीं होता| उसके लिए सब परमात्मा का खेल है| वह सिर्फ एक अभिनेता है जो हो रहा है या होगा सबको एक अभिनय (खेल) की तरह लेता हुआ आगे बढ़ जाता है| अध्यात्म के शिखर पर पहुंचने पर पता चलता है ना तो कुछ पाप है, ना ही कुछ पुण्य है| न कुछ शुभ है ना ही कुछ अशुभ? सब परमात्मा का विलास है और कुछ नहीं| दुनिया द्वेत का संसार है इस दिन द्वेत खत्म उस दिन विश्व परमात्मा में विलीन| इसलिए दन और रात की तरह जीवन में हर स्तर पर दोहरे अस्तित्व को स्वीकारते हुए खुद को संतुलित करना ही एक आम मनुष्य के लिए स्थित प्रज्ञ होना है|