महाभारत युद्ध में कौरवों के सभी चार सेनापति पाण्डवों की विजय चाहते थे-दिनेश मालवीय


स्टोरी हाइलाइट्स

मानवता का इतिहास युद्धों से भरा पड़ा है. हमेशा से इंसान किसी न किसी नाम पर एक दूसरे से लड़ता ही रहा है.

महाभारत युद्ध में कौरवों के सभी चार सेनापति पाण्डवों की विजय चाहते थे करीब 38 लाख लोगों ने युद्ध में भाग लिया -दिनेश मालवीय मानवता का इतिहास युद्धों से भरा पड़ा है. हमेशा से इंसान किसी न किसी नाम पर एक दूसरे से लड़ता ही रहा है. बड़े-बड़े युद्ध हुये और इनमें जीत-हार का सिलसिला भी चलता रहा. लेकिन कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का जो युद्ध लड़ा गया वह अपनी विशालता के हिसाब से सबसे बड़ा था. इसके अलावा इसमें कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं, जो किसी दूसरे युद्ध में पढ़ने-सुनने को नहीं मिलतीं. ऐसा अनूठा युद्ध, पृथ्वी पर कभी लड़ा ही नहीं गया. महाभारत ग्रंथ के अनुसार इनमें कौरवों की तरफ 11 अक्षोहिणी और पाण्डवों की ओर से 7 अक्षोहिणी सेना ने भाग लिया. इसी ग्रंथ की गणना के अनुसार एक अक्षोहिणी सेना में 21 हज़ार 870 रथ, इतनी संख्या में ही हाथी, 1,01 935 पैदल सैनिक और 65 हज़ार 610 घोड़े होते थे. इस हिसाब से कौरवों की सेना में 23 लाख 24 हज़ार 135 लोग शामिल थे. पांडवों की सेना 7 अक्षोहिणी थी. उपरोक्त हिसाब से इसमें 1, 53 हज़ार 090 रथ,इतने ही हाथी, 7 लाख 13 हज़ार 545 पैदल और 4 लाख 59 हज़ार 270 घोड़े थे. इनकी संख्या 14 लाख 78 हज़ार 99 हुयी. इस प्रकार दोनों पक्षों से इस महाविनाशकारी युद्ध में 38 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया. संख्या के अलावा इस युद्ध में एक और बहुत अनूठी बात है. इसमें जिस कौरव पक्ष को अधर्मी अथवा असत्य कहा गया उसमें अधिक राजा और उनकी सेनाएँ शामिल थीं. जिस पक्ष को सत्य माना गया उसके साथ देने वाले राजाओं और उनकी सेनाओं की संख्या कम थी. इससे वर्तमान में कही जानी वाली यह बात भी सही सिद्ध होती है कि सत्य के साथ रहने वालों की संख्या हमेशा कम होती है. इसकी एक और बड़ी विशेषता की बात करते हैं. इस महायुद्ध में उस युग के महानतम योद्धा कौरवों, यानी असत्य के साथ खड़े थे. इनमें अपराजेय भीष्म पितामह, युद्ध में किसी से न हार सकने वाले गुरु द्रोणाचार्य, महाप्रतापी अंगराज कर्ण और युद्धकुशल मद्र नरेश महाराज शल्य शामिल हैं. इसके विपरीत पाण्डव सेना का सबसे बड़ा आधार महान धनुर्धर अर्जुन और भीम ही थे. ये दोनों महावीर कौरवों के उक्त चार महानायकों में से प्रथम तीन के सामने कुछ भी नहीं थे. पाण्डवों के पक्ष में सबसे बड़ी निर्णायक बात यह थी कि उनके साथ योगयोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण थे. परन्तु इसकी भी सबसे विचित्र बात यह थी कि उन्होंने इस युद्ध में हथियार न उठाने की शपथ ली थी. उनके राज्य द्वारका की एक अक्षोहिणी सेना कौरवों की ओर से लड़ रही थी. है न बहुत अजीब बात! सेना का स्वामी एक पक्ष में और उसकी सेना दूसरे पक्ष में. अब हम इस युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता की बात करते हैं, जो न इतिहास में कभी सुनी गयी और भविष्य में शायद ही कभी सुनी जायेगी. वह बात यह है कि 18 दिन चले इस महायुद्ध में कौरवों के चार सेनापति हुए- भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, अंगराज कर्ण और मद्र नरेश महाराज शल्य. सबसे रोचक बात यह है कि कौरवों के ये चारों सेनापति भले ही दुर्योधन की ओर से लड़ रहे थे,लेकिन वे विजय पाण्डवों की ही चाहते थे. कौरव पक्ष से लड़ने की उनकी अपनी-अपनी मजबूरियाँ रहीं, लेकिन उनका मन हमेशा पाण्डवों के साथ रहा. भीष्म पितामह 10 दिन तक कौरव सेनापति रहे. उनके बाद द्रोणाचार्य 5 दिन तक, कर्ण 2 दिन तक और शल्य आधे दिन तक सेनापति रहे. पितामह ने तो सेनापति बनते ही दुर्योधन से साफ कह दिया था कि वह इस युद्ध में किसी पाण्डव का वध नहीं करेंगे, सिर्फ उनके सैनिकों और अन्य योद्धाओं को ही मारेंगे. दुर्योधन की मजबूरी यह थी कि पितामह के रहते वह किसी और को सेनापति नहीं बना सकता था. दस दिन युद्ध करके उन्होंने एक भी पाण्डव को नहीं मारा, जबकि यह उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. इससे व्यथित हो, दुर्योधन ने जब उनसे बहुत कड़वी बातें कर उलाहना दिया, तो उन्होंने पाण्डवों का वध करने की शपथ तक  ले ली , लेकिन एक रात पहले ही पाण्डवों को अपने वध का उपाय भी बता दिया. अर्थात वह जानबूझकर युद्ध से हट गये. इसके बाद द्रोणाचार्य सेनापति बने. लेकिन वह भी पाण्डवों से सहानुभूति रखते थे. उन्हें हराना किसी के वश की बात नहीं थी. उन्होंने दुर्योधन के कहने पर अभिमन्यु के अनीतिपूर्वक वध के साथ ही अनेक ऐसे कार्य किये, जिससे वह पूरी तरह दुर्योधन के पक्ष में दिखाई देते थे. लेकिन वास्तविकता अलग थी. उन्होंने युधिष्ठिर को बंदी बनाने की शपथ ली, जिससे दुर्योधन युद्ध ही जीत जाता. लेकिन इस शपथ का पालन करने में उन्होंने ढिलाई बरती. वह युधिष्ठिर के सामने जाने के पहले अर्जुन के आने का इंतज़ार करते रहे, ताकि उनकी शपथ पूरी न हो सके. ऐसा ही हुआ भी. अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर पाने के बाद तर्कसम्मत बात तो यह है कि वह दोगुनी ताकत से युद्ध कर उसका प्रतिशोध लेते. लेकिन वह निश्चेष्ट हो रथ पर बैठ गये और धृष्टदयुम्न ने उनकी गर्दन उतार ली. उनके बाद अंगराज कर्ण सेनापति बना. उसे एक रात पहले ही श्रीकृष्ण ने बता दिया था कि पाण्डव उसके छोटे भाई हैं. उसने युद्ध तो जमकर किया, लेकिन युद्ध में उसने चार पाण्डवों को जीवनदान देकर उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त किया. अर्जुन के साथ भी उसने वैसा युद्ध नहीं किया जैसा करना चाहिए था. इस प्रकार वह भी किसी न किसी तरह पाण्डवों की विजय ही चाहता था. आखिरी कौरव सेनापति शल्य ने तो खुलकर युधिष्ठिर को विजय का आशीर्वाद दिया. वह बहुत बड़े वीर तो थे लेकिन अर्जुन-भीम के सामने उनकी कोई बिसात नहीं थी. वह भी अनमने ढंग से युद्ध करते हुए मारे गए. इस प्रकार कोई कह सकता है कि दुर्योधन के साथ बहुत धोखा हुआ. लेकिन वह तो इसी के लायक था. उसने जीवन भर धोखा ही तो किया. अस्तित्व ने उसे उसी के दांव से पराजित करवा दिया. कहावत है न कि जैसा करो वैसा भरो.