योग वास्तव में है क्या? क्या आसन ही योग है?


स्टोरी हाइलाइट्स

योग को हम बहुत उथले रूप में समझते हैं जबकी योग बहुत सरल है तो बहोत्त गूढ़ भी है इसमें धर्म भी है भक्ति भी है, पूजा भी है पाठ भी है, लेकिन इसका लक्ष्य बहुत ऊँचा है योग की ख़ास बात यही है कि इसमें मनुष्यों जीवन के सभी उद्देश्यों का संयोग है | नीचे कुछ बाते हैं जो भारतीय साहित्यों से ली गयी हैं जो योग को बहुत गहराई से परिभाषित करती हैं|

अतुल विनोद: योग को हम बहुत उथले रूप में समझते हैं जबकी योग बहुत सरल है तो बहोत्त गूढ़ भी है इसमें धर्म भी है भक्ति भी है, पूजा भी है पाठ भी है, लेकिन इसका लक्ष्य बहुत ऊँचा है योग की ख़ास बात यही है कि इसमें मनुष्यों जीवन के सभी उद्देश्यों का संयोग है | नीचे कुछ बाते हैं जो भारतीय साहित्यों से ली गयी हैं जो योग को बहुत गहराई से परिभाषित करती हैं| जैसे- दुख रुप संसार के संयोग से रहित होने का नाम ही योग है। वह साधन जिसके द्वारा परमात्मा के साथ ज्ञानपूर्वक संयोग है, जीवात्मा का। इस प्रकार योग का अर्थ जीवात्मा का परमात्मा के साथ संयोग हैं। योग साधनाओं को अपनाते हुए मन को नियन्त्रित कर, संयमित कर, आत्मा का परमात्मा से मिलन ही योग है। ज्ञानेन्द्रियो से अर्जित ज्ञान को मन आत्मा तक पहुॅचाता हैं। आत्मा उसे साक्षी भाव से देखता है, वुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस पूरी क्रिया में चित्त में जो प्रतिबिम्व बनता है, वही वृत्ति कहलाती है। चित्त हमारा दर्पण की तरह होता है। अतः विषय उसमें आकर प्रतिविबिम्व होता है। तब चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है। महर्षि व्यास ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है, योग नाम समाधि का है। जिसका भाव यह है कि समाधि द्वारा जीवात्मा उस सत्-चित्-आनन्द स्वरुप ब्रहम का साक्षात्कार करे और यही योग है। कठोपनिषद के अनुसार - जब चेतना निश्चेष्ठ मन शान्त, बुद्धि स्थिर हो जाती है, ज्ञानी इस स्थिति को सर्वोच्च स्थिति मानते है। चेतना और मन के दृढ निश्चय को ही योग कहते है।सांख्यशास्त्र में योग की परिभाषा इस प्रकार दी है - ‘पुरूष प्रकृत्योतियोगेऽपि योग इत्यभिधीयते।’- सांख्यशास्त्र अर्थात् प्रकृति - पुरुष का प्रथृकत्व स्थापित कर, अर्थात् दोनो का वियोग करके पुरुष के स्वरुप में स्थिर हो जाना योग है। कैवल्योपनिषद के अनुसार-‘श्रृद्धा भक्ति योगावदेहि।’ अर्थात् श्रृद्धा भक्ति और ध्यान के द्वारा आत्मा को जानना ही योग है। याज्ञवल्यक स्मृति के अनुसार - ‘संयोगो योग इत्यक्तो जीवात्मा - परमात्मनो।’ अर्थात् जीवात्मा परमात्मा के मिलन को योग कहते है। उस योग को उत्साह, श्रद्धा, धैर्य, से समाहित चित्त से निश्चय पूर्वक करना चाहिए। महर्षि अरविन्द के अनुसार - जीवन को बिना खोए भगवान की प्राप्ति योग है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार - प्राचीन आर्ष ग्रन्थो का अध्ययन ही योग है। रागेय राधव अपनी पुस्तक ‘गोरखनाथ और उनका युग’ में कहा है। - शिव व शक्ति का मिलन को योग कहते है। योग वशिष्ठ में योग को इस तरह परिभाषित किया गया है - संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम ही योग है। महर्षि वशिष्ठ का कथन है, कि योग के द्वारा मनुष्य अपने वास्तविक स्वरुप सद्-चित्-आनन्द का अनुभव कर लेता है। -वशिष्ठ संहिता 6/1/13/3 महोपनिषद के अनुसार ‘मनः प्रश्मनोपायो योग इत्याभिधीयते।’ - महो0 5/42 अर्थात् मन के प्रशमन का उपाय ही योग है। मन का प्रशमन अर्थात् मन का रम जाना या स्थिर हो जाना ही योग है। योग का उद्धेश्य हमारे जीवन का समग्र विकास करना है। ‘‘यस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं ज्ञातं भवति निश्चितम्। तस्मिन् परिश्रमः कार्यः किमन्यच्छास्य भावितम्।।’’ - शिव संहिता जिसके जानने से यह संसार जाना जाता है, ऐसे योग शास्त्र को जानने के लिए परिश्रम करना चाहिए। अन्य शास्त्रो को जानने का प्रयोजन फिर कुछ नहीं रह जाता है। ध्यान की स्थिति हासिल करना ध्यान का उद्धेश्य है, और समाधि ध्यान की उकृष्ट अवस्था है, जिसके द्वारा आत्म साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है। समाधि की उच्चतम अवस्था में परमात्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। महर्षि पतंजलि कृत योग सूत्र में क्रियायोग का उद्धेश्य कर्मयोग, भक्तियोग, तथा ज्ञानयोग की प्राप्ति हैं। तप को अपनाकर कर्म करने की प्रवृति होती है। मनुष्य कर्मयोगी बनता है, स्वाध्याय का उद्धेश्य है, ज्ञान की प्राप्ति और ईश्वर प्रणिधान का उद्धेश्य है, भक्ति की प्राप्ति। इस प्रकार कर्म, ज्ञान, भक्ति का समन्वय मनुष्य के लिए ज़रूरी है। जो कि मनुष्य जीवन को उच्च व दिव्य बनाता है। क्रियायोग का उद्धेश्य है, क्लेशों जो कि मनुष्य जीवन में कलुषता लाते है, दुख देते है, उन क्लेशों को खत्म कर सर्वांगीण विकास करना। मनुष्य जीवन की आकुलता, कलुषता, पीड़ा, चिन्ता, तनाव आदि को खत्मकर सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति योग का मुख्य उद्धेश्य है। तब आत्मा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है, और पुरुष के लिए वही स्थिति कैवल्य की है। इस प्रकार क्रियायोग का उद्धेश्य क्लेशो को कम करके कैवल्य की प्राप्ति है। आधुनिक युग में यदि देखा जाए तो योग का मकासद स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करना, धन अर्जित करना, शारीरिक सौन्दर्य की प्राप्ति, यश प्राप्ति तक ही सीमित रह गया है। लेकिन ये सभी गौंण है। योग का उद्धेश्य उस परम तत्व की प्राप्ति है। तीन पुरुषार्थ की पूर्ति करते हुए अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति ही योग का उद्धेश्य है।