एमपी के ट्राईबल मिनिस्टर फिर एक बार अशालीन और अमर्यादित सुर्खियों में हैं. आतंकवादियों ने धर्म पूछ कर गोली मारी थी, तो संसदीयवादी विजय शाह धर्म की बोली दाग रहे हैं..!!
यह पहला अवसर नहीं है जब उन्होंने अशालीनता की हदें पार की हैं. जब भी उन्हें मीडिया में सुर्खियां मिली हैं, तब उनके ऐसे ही विचारों और आचरण के कारण संभव हुआ है. उनकी मनुष्यता शायद राजनीति प्रेरित है. उनकी सबसे बड़ी खूबी यही है, कि वे चुनाव नहीं हारते, लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी यह है, कि वे कभी शालीनता की परवाह नहीं करते.
ऐसा कहा जाता है, कि वह एक ट्राइबल समाज के राजा हैं. डेमोक्रेसी में यही उनकी ताकत है. इसी ताकत को चुनाव और पार्टी में हमेशा भुनाते रहते हैं. ऑपरेशन सिंदूर को लेकर कर्नल सोफिया कुरैशी से जुड़ा उनका वक्तव्य ना केवल निंदनीय है, बल्कि विभाजनकारी भी है. ऑपरेशन सिंदूर पर जब पूरा राष्ट्र एकजुट है, इस मामले में ना कोई धर्म है और ना ही कोई वर्ग है. इसमें कोई राजनीति भी नहीं है. राजनीति में भी आम सहमति है और सभी धर्म और समाज राष्ट्र धर्म पर एक साथ खड़े हैं.
ट्राईबल मिनिस्टर ने शायद पीएम नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन या तो सुना नहीं होगा या उसको गंभीरता को समझा नहीं होगा. गोली और बोली ऐसे ही है जो एक बार निकल गई तो फिर उनको पकड़ा नहीं जा सकता. माफी भी उस नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती जो बोली दागने के साथ हो गई है.
मिनिस्टर का पद एक शपथ के साथ शुरू होता है. इस शपथ में सभी वर्ग और धर्म के लोगों के साथ न्याय और सेवा का संकल्प होता है. जब यह शपथ टूटती है, तो केवल मर्यादा नहीं टूटती, बल्कि भारत का संविधान भी टूटता है. अपराध जगत में आदतन अपराधियों को ज्यादा दंड की भावना है. गलती एक बार होती है, जब इसी तरह की गलती बार-बार दोहराई जाती है, तो वह आदतन अशालीन आचरण का आरोपी हो जाता है.
विजय शाह तो इस मामले में इतने दुस्साहसी कहे जा सकते हैं कि उन्होंने अपने ही मुख्यमंत्री की पत्नी के साथ अशालीन बातचीत की थी, जिसके कारण उनको मंत्री पद से हटा दिया गया था. बाद में राजनीतिक रस्साकसी चली तो उन्हें फिर से मंत्री बनाया गया था, लेकिन यह रहस्य अभी भी बना हुआ है कि जिस अपमान के लिए उन्हें मंत्री पद से हटाया गया था फिर दोबारा उन्हें वह पद किन परिस्थितियों में दिया गया.
सोफिया कुरैशी के मामले में उनकी टिप्पणी पर भी देशव्यापी प्रतिक्रिया हो रही है. विरोधी दल के रूप में कांग्रेस की प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक है, लेकिन उनके दल के लोग भी इस मामले में उनका समर्थन नहीं कर सकते. बीजेपी संगठन की ओर से उन्हें फटकारा गया है. ऐसा भी कहा जा रहा है, कि मुख्यमंत्री और पार्टी शीर्ष नेतृत्व ने भी ट्राइबल मिनिस्टर के इस आचरण को गंभीरता से लिया है. पार्टी द्वारा उन पर एक्शन की भी उम्मीद की जा रही है.
विजय शाह की सबसे बड़ी ताकत ट्राइबल होना है. जाति और धर्म की राजनीति हर पार्टी में सच्चाई बनी हुई है. जात-पात की राजनीति के लिए भले ही राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं है. विजय शाह के मामले में हर बार बीजेपी शायद इसीलिए कमजोर पड़ जाती है, कि उसे ऐसा लगता है, कि आदिवासी समाज में इसका नुकसान हो सकता है. इसी डर का फायदा विजय शाह अब तक उठाते रहे हैं, जबकि आदिवासी समाज में अब तो बहुत शिक्षित और शालीन व्यक्तित्व उपलब्ध हैं, लेकिन स्थापित राजनेता नया नेतृत्व उभरने में अपने हित को देखते हुए बाधा पैदा करते हैं.
बीजेपी ऐसा दावा करती है, कि नया नेतृत्व को उभारना उनकी सतत प्रक्रिया है. लेकिन इसके वास्तविक परिणाम तो आकर्षक नहीं दिखाई पड़ते. विजय शाह की गलती पर गलती के बाद भी बीजेपी न केवल उन्हें पार्टी प्रत्याशी बनाती है, बल्कि मंत्री पद देने तक के लिए भी मजबूर हो जाती है.
जब कोई नेता लगातार ऐसी अशालीन और अमर्यादित व्यवहार करने का आदतन दोषी पाया जाता है और ऐसे नेता को हर बार बचने का मौका मिल जाता है, राजनीतिक दल उस पर कोई भी कठोर कार्रवाई करने में सफल नहीं हो पाता, ऐसी परिस्थितियों में ऐसा व्यक्तित्व फिर ऐसी गलतियां ऑटोमेटिक करने लगता है. उसे लगता भी नहीं कि वह कोई अशालीन काम कर रहा है. जब उसे इस बात की निश्चिंतता है कि वह कुछ भी करेगा तो उसे दंड मिलना संभव नहीं है. क्योंकि उसके पास पार्टी के वोट को प्रभावित करने का एक सामाजिक हथियार है.
विजय शाह लंबे समय से मंत्री के पद पर बने हुए हैं. उन्हें किसी अच्छे काम के कारण अब तक शायद ही सुर्खियां मिली हैं. जब भी वह मीडिया की सुर्खियों में आए हैं, तब कोई ना कोई ऐसा अमर्यादित व्यवहार उन्होंने किया है, जो क्षम्य नहीं हो सकता, लेकिन फिर भी वह हर बार बचकर निकल जाते हैं.
देश की राजनीति में बीजेपी ने जो एक अलग मुकाम बनाया है, देश का विश्वास प्राप्त किया है, उस पर ऐसे नेताओं के अशालीन व्यवहार से चोट पहुंचती है. खुद को पार्टी विद डिफरेंस कहकर ऐसे आचरण को ढ़ांका नहीं जाना चाहिए. ट्राइबल समाज में भी अब प्रतिस्पर्धा की स्थिति है. फिर ऐसे व्यक्तित्व को बीजेपी को क्यों ढ़ोना चाहिए जो बार-बार उसकी छवि को नुकसान पहुंचाता है.
विजय शाह और कंट्रोवर्सी एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं. बीजेपी का अनुशासन इससे तार-तार हो जाता है. इसके बावजूद दोषी को दंड नहीं मिलता. किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह विजय का नहीं बल्कि पराजय का मार्ग है.
पावर का नशा जब सिर पर चढ़ जाता है, तब ही ऐसी घटनाएं होती हैं. भाजपा का शीर्ष नेतृत्व जितना गंभीर दिखाई पड़ता है. जमीन पर उतनी ही अगंभीर हालत चिंता पैदा करती है. पहले गाली फिर माफी यह राजनीति हो सकती है. यह समाज की जीत नहीं बल्कि राजनीति की हार ही कही जाएगी.