इस बार जहां बसंत के चरम चैत्र में ही लगने लगा था कि अत्यधिक गर्म मौसम हो गया है, वहीं अब बैसाख के अंत में राजधानी दिल्ली सहित उत्तर और मध्य भारत के प्रांतों-क्षेत्रों में भी मूसलाधार वर्षा ने कम से कम हफ्ता-दस दिन के लिए गर्मी का प्रभाव कम या समाप्त कर दिया है..!!
इस बार लोगों ने सोचा कि अप्रैल के अंत से लेकर और वर्षा ऋतु आने तक ग्रीष्म-ताप से जीवन बुरी तरह पस्त हो जाएगा, किंतु मई के दो हफ्तों तक मौसम वर्षाऋतु जैसा हो उठा। इस कारण उत्तर और मध्य भारत में वर्षा, अंधड़, आंधी आने, बिजली गिरने और बादल फटने की अनेक घटनाएं हुईं। ऐसे मौसमीय परिवर्तन द्वारा जलवायु तो शीतल हो ही गई और लोग इस मौसम का आनंद भी लेते रहे, किंतु जलवायु के प्रति संवेदनशील लोगों के मन-मस्तिष्क में यह चिंता भी पसर गई कि यह कैसा मौसमीय परिवर्तन है! छह प्रमुख ऋतुओं में विभाजित मौसम ऋतुओं के अनुसार प्रसारित जलवायु के समय-संतुलन के साथ स्थिर है ही नहीं।
इस बार जहां बसंत के चरम चैत्र में ही लगने लगा था कि अत्यधिक गर्म मौसम हो गया है, वहीं अब बैसाख के अंत में राजधानी दिल्ली सहित उत्तर और मध्य भारत के प्रांतों-क्षेत्रों में भी मूसलाधार वर्षा ने कम से कम हफ्ता-दस दिन के लिए गर्मी का प्रभाव कम या समाप्त कर दिया है। तापमान सामान्य हो गया है। पर्वतीय राज्यों में शीत का प्रभाव बढ़ गया है। ऋतु अस्थिरता का यह उपक्रम भारतीय भूभाग तक ही सीमित नहीं है। आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड समेत दक्षिण एशिया के अधिसंख्य देशों में भी मौसम लगभग ऐसा ही बनकर परिव्याप्त है।
बादल मंडरा रहे हैं। कभी ये बादल काले-भूरे रंगों के साथ घनीभूत हो जा रहे हैं तो कभी धरा से ऊपर नभ ही नभ पर तीव्र वेग से प्रसारित वायुबल द्वारा छितरते-बिखरते हुए प्रतीत हो रहे हैं। सूर्य का अस्तित्व धुंधला-सा गया है। आकाश पर तीव्रता से वायु सरकती है तो धरती पर जीवों की श्वासें सहज हो उठती हैं और जब घने-काले-भूरे-मटमैले मेघों से परिपूर्ण आकाश व धरा पर वायु थमती है तो श्वासें भारी, असहज और अस्वस्थ हो उठती हैं। ऐसा मौसम न केवल श्वासों को अस्वस्थ करता है, अपितु आंखों के लिए भी अत्यधिक कुरूप बनकर मनुष्य के मन-मस्तिष्क व आत्मा को भी कुंठाओं से ग्रस्त करता है।
आधुनिकीकरण, नगरी व महानगरीकरण के कारण पहले ही मनुष्य का जीवन वन-वनस्पतियों से वंचित है, ऊपर से जलवायु असंतुलन द्वारा उत्पन्न आकाशीय, क्षितिजीय धुंध-धूल उसे जीवन के अनुभव से हीन कर रही है। मौसम की अस्थिरताएं विचित्र स्थितियां उत्पन्न कर रही हैं। ऐसे में मनुष्य क्या करे, कहां जाए? आज से कुछ वर्ष पहले नगरों में रहकर इस प्रकार की मौसमीय अस्थिरताओं से दुखित होने के बाद, इनसे बचने लोग गांवों की ओर प्रस्थान किया करते थे, किंतु अब तो क्या नगर और क्या गांव, सब एकसमान हो चुके हैं, बल्कि गांव तो न पूरी तरह गांव ही रहे और न ढंग से नगरीय शैली में ही ढल पाए हैं।
जीवन के चरम सुख और आनंद के आधार गांव और गांव का सार्वजनिक जीवन ही जब नगरीय विसंगतियों को घृणित रूप में ढोते हुए दिखाई दे, तो फिर मनुष्य की स्थिति किंचित वैसे ही हो जाती है जैसी कहावत है कि ‘न घर के न घाट के’। जैसा आधुनिक जीवन हमें अपने चहुंओर दिखाई दे रहा है, जो तथाकथित भोगोपभोगी सुविधाएं हमारे लिए यहां-वहां सब जगह उपलब्ध हैं और जिनके आधार पर भिन्न-भिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं की पारस्परिक होड़ हो रही हैं, उसी कारण और उसी आधुनिकदोष के परिणामस्वरूप आज हमारे सम्मुख जलवायु संकट अप्रत्याशित हो चुका है। एक दिवस भी प्राकृतिक नहीं रहा। किसी एक ऋतु या मौसम की प्रकृतिवत्ता तो अब संभव ही नहीं लगती।