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ग्रंथों के अनुवाद में अनर्थ, ग्रंथ पढ़ने की तीन विधियाँ -दिनेश मालवीय

सार

आजकल लोग ग्रंथों को पढ़ने का बढ़चढ़ कर दावा कर रहे हैं. जिन ग्रंथों के नाम का वे उच्चारण तक ठीक से नहीं कर सकते, उन्हें पढ़ने और समझने का भी दावा कर रहे हैं. विशेषकर हिन्दू धर्म के ग्रंथों के बारे में ही सबकुछ कहा जा रहा है...

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विस्तार

आजकल लोग ग्रंथों को पढ़ने का बढ़चढ़ कर दावा कर रहे हैं. जिन ग्रंथों के नाम का वे उच्चारण तक ठीक से नहीं कर सकते, उन्हें पढ़ने और समझने का भी दावा कर रहे हैं. विशेषकर हिन्दू धर्म के ग्रंथों के बारे में ही सबकुछ कहा जा रहा है. मसलन कोई कह रहा है, कि उसने उपनिषद पढ़ लिए है, हालाकि उपनिषदों की संख्या भी उन्हें पता हो, इसकी भी गारंटी नहीं है, उनके नाम याद होने की तो बात ही छोडिये. कोई मीमांसा की बात कर रहा है तो कोई वेदों पर वक्तव्य दे रहा है.
 
खैर, यदि कोई ग्रंथ पढ़ रहा है या पढ़ना चाहता है, तो बहुत अच्छी बात है. पढ़ना भी चाहिए. इनमें भारत के ज्ञान-विज्ञान का निचोड़ है. लेकिन भारतीय लोगों के साथ तो त्रासदी ही यही रही, कि उन्होंने अपने मूल ग्रंथों को पढ़ना छोड़ दिया है . इन ग्रंथों के विषय में दूसरे लोगों ने जो लिखा, उसी के आधार पर अपने ग्रंथों को समझना शुरू कर दिया. जिन विदेशी लोगों ने उनके अनुवाद किये या उन पर भाष्य किये, उनका अपना एजेण्डा रहा.

इसके अलावा अनुवाद के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि अनुवादक जिस भाषा में अनुवाद कर रहा हो, वह भले ही कमज़ोर हो, लेकिन जिस भाषा से अनुवाद किया जा रहा हो, उसकी सही और पूरी जानकारी होनी चाहिए. एक और बहुत महत्वपूर्ण बात यह है, कि ऋषियों ने चेतना के जिस स्तर पर जाकर ग्रंथों को लिखा था, उसी चेतना के स्तर पर जाकर उन्हें इतना समझा जा सकता है, कि उनका अनुवाद किया जा सके.
 
हिन्दू धर्म के सभी मूल ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये. एक षड्यंत्र के तहत भारतीय लोगों को यह कहकर संस्कृत से विमुख कर दिया गया, कि यह डेड लेंग्वेज है. इस तरह हमने तो अपने ग्रंथों को मूल रूप में पढ़ा ही नहीं. अंग्रेज़ी या किसी अन्य विदेशी भाषा में जिन लोगों ने अनुवाद किये, उनके साथ सबसे बड़ी समस्या यही रही, कि उन्हें संस्कृत का सही ज्ञान नहीं था. ज़रा सोचिये, कि जिस संस्कृत के बुनियादी व्याकरण को सीखने में ही करीब आठ साल लगते हैं, उन्हें विदेशी अनुवादकों ने किस तरह समझा होगा? उनकी समझ में जो आया, उन्होंने अनुवाद कर दिया.
 
साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा था, कि अनेक जगहों पर उन्होंने अपने “धार्मिक” एजेण्डा के आधार पर वह अनुवाद किया, जो वे करना चाहते थे. हिन्दी अनुवाद करने वालों ने भी मूल ग्रंथों के अर्थों के कुछ कम अनर्थ नहीं किये. इसीके चलते तैंतीस कोटि देवताओं का अनुवाद तैंतीस करोड़ कर दिया गया. आज भी ऐसे अज्ञानियों की कमी नहीं है, जो तैंतीस करोड़ ही रट रहे हैं. इसके अलावा जिन विषयों की पुस्तकों का अनुवाद विदेशी लोगों ने किया, उन्हें उन विषयों का कोई ज्ञान ही नहीं था. लिहाजा मक्खी पर मक्खी ही अधिक मारी गयी.
 
पढ़ने की तीन विधियाँ :
 
यह तो रही ग्रंथों के साथ हुए भाषागत और अनुवाद से हुए अनर्थ की बात. अब हम देखते हैं, कि पढ़ने की दो विधियाँ कौन सी हैं. पहली विधि वह होती है, जब हम किसी ग्रंथ या पुस्तक में क्या लिखा है, उसको समझने के लिए उन्हें पढ़ते हैं.
 
दूसरी विधि में हम पहले से ही कोई अवधारणा बनाकर रखते हैं और उस अवधारणा की पुष्टि के लिए ग्रंथ या पुस्तक को पढ़ते हैं. यदि उसमें लिखी बातें आपकी अवधारणा के अनुरूप नहीं है, तो आप उस ग्रंथ को ख़ारिज कर देते हैं. यदि पुष्टि होती है, तो उसका समर्थन कर देते हैं, उसकी तारीफ़ करते हैं.
 
तीसरी विधि बहुत ख़तरनाक है. इसमें हम किसी ग्रंथ या पुस्तक में अपनी अवधारणा या विचारधारा के विरुद्ध या पक्ष में उल्लेख तलाशते हैं. इसमें किसी ग्रंथ या पुस्तक में चुन-चुन कर उन बातों को सामने लाते हैं, जो हमारे एजेण्डा के अनुरूप हों.
 
किसी भी बात या वक्तव्य का एक संदर्भ और पूर्वापर सम्बन्ध होता है. जब उस बात को उसी संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा जाए, तभी उसका सही अर्थ समझ में आता है. लेकिन इस विधि में समझने का उद्देश्य तो होता ही नहीं है. इसी के चलते हमारे मूल ग्रंथों से  ऐसी बातें संदर्भ से हटकर प्रस्तुत की जाती रही हैं, जिनसे हमारे धर्म को बदनाम किया जा सके. उसी ग्रंथ में जो अच्छी बातें लिखी होती हैं, उनको जानबूझकर छोड़ दिया जाता है. उनका कोई उल्लेख भी करे, तो उसपर ध्यान नहीं दिया जाता.
 
आजकल तीसरी तरह का चलन बहुत बढ़ गया है. कई लोग कह रहे हैं, कि उन्होंने वेद और उपनिषद पढ़े, लेकिन उनमें “हिन्दू” शब्द का उल्लेख नहीं है. इन लोगों ने यही देखने के लिए इन ग्रंथों को पढ़ा, कि इनमें “हिन्दू” शब्द का उल्लेख है कि नहीं. कुछ लोगों ने तो पढ़ने के लिए किराये के लोग रख लिए हैं. वे उन्हें पढ़कर अपने आकाओं को बताते हैं. इसमें भी वे इस बात का ध्यान रखते हैं, कि वही बात बताई जाए, जो उन्हें अच्छी लगती हों. ऐसे तथाकथित “ज्ञानियों” की बहुत बाढ़ आयी हुयी है. इन तीनों पद्धतियों में से सबसे पहली वाली ही सर्वश्रेष्ठ है, जिसमें व्यक्ति ज्ञान की जिज्ञासा के साथ ग्रंथों या पुस्तकों को पढता है. दूसरी और तीसरी पद्यतियां केवल अनर्थ कर सकती हैं. इनसे कोई ज्ञान अर्जित नहीं किया जा सकता. इसके विपरीत ये समाज के लिए भी हानिकारक है.