• India
  • Sat , Aug , 23 , 2025
  • Last Update 03:49:AM
  • 29℃ Bhopal, India

पूर्वाग्रह और सवैधानिक संस्था

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Thu , 23 Aug

सार

संवैधानिक व्यवस्था में यह नौबत क्यों आनी चाहिए? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त शारीरिक और मानसिक तौर पर अक्षम हो गए हैं? क्या उनकी साख और निष्पक्षता निर्णायक तौर पर सवालिया अथवा आशंकित हो गई है? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ भ्रष्टाचार अथवा पक्षपात के आरोप कानूनन साबित हो चुके हैं और अदालत ने फैसला सुना दिया है?

janmat

विस्तार

देश में अजब-ग़ज़ब हो रहा है, अब मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग की नौबत…यकीनन संविधान और लोकतंत्र के लिए एक भयावह, चुनौतीपूर्ण और अस्वीकृति की स्थिति है। संवैधानिक व्यवस्था में यह नौबत क्यों आनी चाहिए? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त शारीरिक और मानसिक तौर पर अक्षम हो गए हैं? क्या उनकी साख और निष्पक्षता निर्णायक तौर पर सवालिया अथवा आशंकित हो गई है? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ भ्रष्टाचार अथवा पक्षपात के आरोप कानूनन साबित हो चुके हैं और अदालत ने फैसला सुना दिया है? विपक्ष की राजनीति के मद्देनजर महाभियोग की नौबत भी पक्षपाती है। 

विपक्ष के ‘वोट चोरी’ के आरोप ही पर्याप्त नहीं हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिला्र महाभियोग की प्रक्रिया संसद में शुरू की जाए। किसी भी संवैधानिक संस्था या पदासीन अधिकारी के खिलाफ महाभियोग मोहभंग और अस्वीकृति की पराकाष्ठा है। यह नौबत ही क्यों आनी चाहिए? यदि राजनीतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का एक ही पक्ष महाभियोग की बात करने लगे, तो वह उस संवैधानिक संस्था अथवा अधिकारी के प्रति दुराग्रह की भावना है। निश्चित तौर पर उसकी पृष्ठभूमि में प्रतिशोध का भाव भी निहित होगा। एक पक्ष के पूर्वाग्रहों मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग की नौबत…यकीनन संविधान और लोकतंत्र के लिए एक भयावह, चुनौतीपूर्ण और अस्वीकृति की स्थिति है।

संवैधानिक व्यवस्था में यह नौबत क्यों आनी चाहिए? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त शारीरिक और मानसिक तौर पर अक्षम हो गए हैं? क्या उनकी साख और निष्पक्षता निर्णायक तौर पर सवालिया अथवा आशंकित हो गई है? क्या मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ भ्रष्टाचार अथवा पक्षपात के आरोप कानूनन साबित हो चुके हैं और अदालत ने फैसला सुना दिया है? विपक्ष की राजनीति के मद्देनजर महाभियोग की नौबत भी पक्षपाती है। विपक्ष के ‘वोट चोरी’ के आरोप ही पर्याप्त नहीं हैं कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिला्र महाभियोग की प्रक्रिया संसद में शुरू की जाए। किसी भी संवैधानिक संस्था या पदासीन अधिकारी के खिलाफ महाभियोग मोहभंग और अस्वीकृति की पराकाष्ठा है। यह नौबत ही क्यों आनी चाहिए?

यदि राजनीतिक नेतृत्व और प्रतिनिधित्व का एक ही पक्ष महाभियोग की बात करने लगे, तो वह उस संवैधानिक संस्था अथवा अधिकारी के प्रति दुराग्रह की भावना है। निश्चित तौर पर उसकी पृष्ठभूमि में प्रतिशोध का भाव भी निहित होगा। एक पक्ष के पूर्वाग्रहों से संवैधानिक और संसदीय व्यवस्थाएं नहीं चल सकतीं। कुछ उदाहरण सामने हैं। अप्रैल, 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव विपक्ष ने राज्यसभा में दिया। आरोप खोखले, कुत्सित और पूर्वाग्रही थे, लिहाजा ऐसे ही कुछ आधारों पर तत्कालीन सभापति वेंकैया नायडू ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इसी तरह तत्कालीन उपराष्ट्रपति एवं सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ राज्यसभा में ही कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष ने महाभियोग का नोटिस दिया। प्रस्ताव में उन्हें पक्षपाती करार दिया गया कि वह विपक्ष को उसका पक्ष रखने को पर्याप्त समय नहीं देते हैं।

बहरहाल अपरिहार्य आधार पर वह प्रस्ताव भी खारिज हो गया, लेकिन इस अंतराल में, मीडिया के विभिन्न प्रारूपों में, इन संवैधानिक हस्तियों के खिलाफ जो कुछ लिखा या कहा गया, यकीनन उनकी शख्सियत पर कीचड़ उछाले गए, उसकी भरपाई कौन करेगा? अब बारी मुख्य चुनाव आयुक्त की है। सोशल मीडिया पर उन्हें ‘केंचुआ’ करार दिया जा रहा है। क्या यह उपमा उचित है? बेशक संविधान के अनुच्छेद 324 (5) में मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की व्यवस्था दी गई है, लेकिन ‘महाभियोग’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं है। ‘वोट चोरी’ पर विपक्ष और मुख्य चुनाव आयुक्त के बीच विरोधाभास हैं। यह स्पष्ट है कि संसद में मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग का विपक्षी प्रस्ताव ध्वस्त होना तय है, क्योंकि दो-तिहाई बहुमत उसके पक्ष में नहीं है और बेशक सत्ता पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त को जरूर बचाएगा।

प्रधानमंत्री और गृहमंत्री वाली चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति की है। वह पक्ष महाभियोग को सफल क्यों होने देगा? इस यथार्थ के बावजूद और ध्रुवीकरण की राजनीति के मद्देनजर यह नेरेटिव फैलाना शुरू किया गया है कि विपक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने पर विमर्श कर रहा है। विपक्षी गठबंधन के अधिकतर दल इसके पक्ष में हैं। ‘वोट चोरी’ का मामला अभी सर्वोच्च अदालत में है और अगली सुनवाई 22 अगस्त को होनी है। अदालत के अंतरिम आदेश के मुताबिक, आयोग ने मतदाता सूचियों से काटे गए 65.64लाख नामों को अपनी वेबसाइटों पर सार्वजनिक कर दिया है। दावा यह भी किया जा रहा है कि नाम काटने के ‘कारण’ भी बताए गए हैं। अब आयोग ने ‘आधार कार्ड’ को स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है। इस कार्ड के साथ आवेदन स्वीकार किए जा रहे हैं। मतदाताओं की निजता का मुद्दा भी अदालत के विचाराधीन है। विपक्ष को सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए था।

 इस तरह से संवैधानिक और संसदीय व्यवस्थाएं नहीं चल सकतीं। कुछ उदाहरण सामने हैं। अप्रैल, 2018 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव विपक्ष ने राज्यसभा में दिया। आरोप खोखले, कुत्सित और पूर्वाग्रही थे, लिहाजा ऐसे ही कुछ आधारों पर तत्कालीन सभापति वेंकैया नायडू ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इसी तरह तत्कालीन उपराष्ट्रपति एवं सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ राज्यसभा में ही कांग्रेस नेतृत्व वाले विपक्ष ने महाभियोग का नोटिस दिया। प्रस्ताव में उन्हें पक्षपाती करार दिया गया कि वह विपक्ष को उसका पक्ष रखने को पर्याप्त समय नहीं देते हैं।

बहरहाल अपरिहार्य आधार पर वह प्रस्ताव भी खारिज हो गया, लेकिन इस अंतराल में, मीडिया के विभिन्न प्रारूपों में, इन संवैधानिक हस्तियों के खिलाफ जो कुछ लिखा या कहा गया, यकीनन उनकी शख्सियत पर कीचड़ उछाले गए, उसकी भरपाई कौन करेगा? अब बारी मुख्य चुनाव आयुक्त की है। सोशल मीडिया पर उन्हें ‘केंचुआ’ करार दिया जा रहा है। क्या यह उपमा उचित है? बेशक संविधान के अनुच्छेद 324 (5) में मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की व्यवस्था दी गई है, लेकिन ‘महाभियोग’ शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं है। ‘वोट चोरी’ पर विपक्ष और मुख्य चुनाव आयुक्त के बीच विरोधाभास हैं। यह स्पष्ट है कि संसद में मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग का विपक्षी प्रस्ताव ध्वस्त होना तय है, क्योंकि दो-तिहाई बहुमत उसके पक्ष में नहीं है और बेशक सत्ता पक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त को जरूर बचाएगा।

प्रधानमंत्री और गृहमंत्री वाली चयन समिति की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर ज्ञानेश कुमार की नियुक्ति की है। वह पक्ष महाभियोग को सफल क्यों होने देगा? इस यथार्थ के बावजूद और ध्रुवीकरण की राजनीति के मद्देनजर यह नेरेटिव फैलाना शुरू किया गया है कि विपक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने पर विमर्श कर रहा है। विपक्षी गठबंधन के अधिकतर दल इसके पक्ष में हैं। ‘वोट चोरी’ का मामला अभी सर्वोच्च अदालत में है और अगली सुनवाई 22 अगस्त को होनी है। अदालत के अंतरिम आदेश के मुताबिक, आयोग ने मतदाता सूचियों से काटे गए 65.64 लाख नामों को अपनी वेबसाइटों पर सार्वजनिक कर दिया है। दावा यह भी किया जा रहा है कि नाम काटने के ‘कारण’ भी बताए गए हैं। अब आयोग ने ‘आधार कार्ड’ को स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है। इस कार्ड के साथ आवेदन स्वीकार किए जा रहे हैं। मतदाताओं की निजता का मुद्दा भी अदालत के विचाराधीन है। विपक्ष को सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए था।