15 महीने बाद होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सेमीफाइनल के रूप में हुए नगरीय निकाय चुनाव का जनादेश अप्रत्याशित और चौंकाने वाला है। इस जनादेश ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को चौंकाया है। परंपरागत रूप से भाजपा शहरों की पार्टी मानी जाती रही है। शहरों में ही भाजपा का हारना पार्टी पचा नहीं पाएगी।
जो पार्टी पिछले नगरीय निकाय चुनाव में सभी 16 निगम में महापौर पद जीती थी, उस पार्टी ने इन चुनावों में 7 निगमों को गँवा दिया है। भाजपा को जिन शहरों में हार मिली है वे काफी अहम हैं। सेमीफाइनल माने जा रहे इन चुनावों का जनादेश क्या फाइनल से पहले बदलाव का संकेत हैं? या जनता ने सत्तारूढ़ पार्टी को सचेत होने के लिए सबक सिखाया है?
नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में भाजपा ने अपना परचम लहराया है। इसके बाद भी बड़े शहरों में हार से राजनीतिक संदेश पार्टी के खिलाफ ही गया है। मध्यप्रदेश में महाकौशल, विन्ध्य, ग्वालियर-चंबल, मालवा निमाड़ और मध्य भारत अंचल की राजनीतिक तासीर अलग-अलग है।
पिछले विधानसभा चुनाव में जहां विन्ध्य प्रदेश ने भाजपा का भरपूर समर्थन किया था। वहीं ग्वालियर-चंबल में भाजपा को कम सफलता मिली थी। मालवा-निमाड़ परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहा है। इन चुनावों में भी इस इलाके में बीजेपी को जबर्दस्त सफलता मिली है।
महाकौशल अंचल में जबलपुर और छिंदवाड़ा नगर निगम आते हैं। इन दोनों निगमों में महापौर पद कांग्रेस ने जीता है। विंध्य प्रदेश में रीवा और सिंगरौली नगर निगम आते हैं। रीवा में कांग्रेस ने और सिंगरौली में आम आदमी पार्टी ने विजय हासिल की है। इसी प्रकार ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस ने भाजपा को शिकस्त दी है।
महाकौशल, विंध्य प्रदेश और ग्वालियर-चंबल में महापौर के चुनाव में इस तरह भाजपा का सफाया हो गया है। यह बात अलग है कि नगर परिषदों में भाजपा के पार्षद ज्यादा संख्या में जीते हैं। अधिकांश नगरों में परिषद भाजपा की ही बनने जा रही है लेकिन पार्षद एक सीमित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और महापौर के क्षेत्र में कई विधायक भी आते हैं। ऐसे में अगर पार्षदों की जीत से तसल्ली की जाय तो यह भी याद रखना होगा कि महापौर की हार उस क्षेत्र के विधायकों की भी हार है जो ज्यादा गंभीर नतीजों की सूचक है।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, कमलनाथ सरकार जाने के बाद पार्टी के कार्यकर्ता निराशा के दौर में चले गए थे। सिंधिया के नेतृत्व में पार्टी विधायकों की बगावत के बाद लंबे समय तक तो कांग्रेसी सदमे में रहे। नगरीय निकाय चुनाव के परिणाम कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकते हैं। कांग्रेस जो गुटीबाजी के लिए जानी जाती है वह अब मध्यप्रदेश में गुटबंदी को साधने में सफल होती दिखाई दे रही है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ पार्टी के वरिष्ठतम नेता हैं। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जनता में लोकप्रियता पर सवाल उठाये जा सकते हैं लेकिन उनके पॉलिटिकल मैनेजमेंट पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। इन दोनों नेताओं के मैनेजमेंट के कारण गुटबंदी कम होती दिखाई पड़ रही है, जिसका लाभ कांग्रेस को इन चुनावों में मिलता दिखा है।
बीजेपी जो संगठन और समर्पित कार्यकर्ताओं की पार्टी मानी जाती है। यही उसकी सबसे बड़ी ताकत भी है। अब इस ताकत में कहीं ना कहीं कमी दिख रही है। पार्टी और सरकार के पदधारक एकाधिकार की मानसिकता को प्राथमिकता देने लगे हैं।
संवादहीनता चरम पर पहुंच गई लगती है। सरकार और संगठन एकाकार लगने लगे हैं। संगठन से ज्यादा व्यक्तिवादी सोच हावी होती दिखाई दे रही है। जहाँ परिवारवादी राजनीति को भाजपा ख़तरा मानती है वहीं उसे अब व्यक्तिवादी राजनीति को भी हतोत्साहित करना चाहिये।
इन चुनाव परिणामों के विश्लेषण से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि पार्टी ने महापौर के प्रत्याशियों के चयन में कहीं ना कहीं चूक की है। कटनी में तो भाजपा की बागी प्रत्याशी निर्दलीय के रूप में महापौर का चुनाव जीत गई हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि पार्टी ने वास्तविक हकदार को प्रत्याशी नहीं बनाया।
इसी प्रकार ग्वालियर और जबलपुर में महापौर के प्रत्याशी चुनाव हार गए हैं लेकिन इन दोनों शहरों में परिषद में बहुमत भाजपा को ही प्राप्त हुआ है। चुनाव परिणामों में सबसे ज्यादा रीवा ने चौंकाया। विंध्यप्रदेश में पिछले चुनाव में अप्रत्याशित ढंग से भाजपा को भरपूर समर्थन मिला था। रीवा जिले में सभी आठों विधायक बीजेपी के हैं।
जब सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद बीजेपी की सरकार बनी थी तब मंत्रिमंडल गठन में रीवा की उपेक्षा की गई थी। राजेंद्र शुक्ला जो विंध्य प्रदेश के पार्टी के समर्पित नेता और मुख्यमंत्री शिवराज के भरोसेमंद माने जाते हैं उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया था। उस समय ऐसा मीडिया में रिपोर्ट हुआ था कि उन्हें मंत्री नहीं बनाने का वीटो संगठन की ओर से लगाया गया था।
फिर विंध्य प्रदेश से गिरीश गौतम को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया। विंध्य प्रदेश में भाजपा के संतुलन और समीकरण को पार्टी ने क्यों बिगाड़ा, यह बात अभी तक राजनीतिक प्रेक्षकों को समझ नहीं आ रही है। भाजपा के बड़े नेताओं नरेंद्र सिंह तोमर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, राकेश सिंह के क्षेत्रों में पार्टी की हार को नेताओं के साथ जोड़कर देखा जा रहा है।
किसी भी सिस्टम में लीडर ही ब्रांड होता है और ब्रांड पर ही जीत और हार होती है। देश में नरेंद्र मोदी आज बीजेपी के सबसे बड़े ब्रांड हैं। भाजपा को जो सफलता मिली है उसका श्रेय नरेंद्र मोदी को जाता है। जब ब्रांड को जीत का श्रेय जाता है तो हार की स्थिति में ब्रांड को ही जिम्मेदार माना जाएगा।
मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बीजेपी के ब्रांड हैं। प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वीडी शर्मा संगठन की कमान संभाल रहे हैं। इन दोनों नेताओं को चिंतन-मनन की आवश्यकता है कि कार्यकर्ताओं में उपेक्षा का भाव क्यों पनपा है? पार्टी और सरकार कार्यकर्ताओं में अपनेपन का भाव मजबूत रखने में क्यों सफल नहीं हुई?
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में भी कार्यकर्ताओं की निराशा के कारण ही बीजेपी को सत्ता से जाना पड़ा था। कांग्रेस की फूट के कारण भले ही फिर से भाजपा ने सरकार बना ली हो लेकिन नगरीय निकाय के परिणाम भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं माने जाएंगे। भाजपा की खूबी है कि वह अपनी कमियों को चिंतन-मनन कर दूर करने में जुट जाती है।
ऐसी स्थिति में इन परिणामों के संदेशों को समझ कर पार्टी और सरकार कमियों और गलतियों को दूर कर भविष्य सुरक्षित करने में सफल हो सकती है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, मध्यप्रदेश में दो दलीय व्यवस्था अभी तक चलती रही है। इन चुनावों में आम आदमी पार्टी और ओवैसी की पार्टी ने भी मध्यप्रदेश में प्रवेश किया और दोनों पार्टियों को जनता ने सम्मानजनक महत्व भी दिया है।
ऐसे हालात में आगामी विधानसभा चुनाव में यह दोनों दल भी सक्रियता के साथ बीजेपी और कांग्रेस के सामने चुनौती पेश करेंगे। यह अलग बात है कि प्रदेश में तीसरी ताकत की उपस्थिति से भाजपा या कांग्रेस में किसको फायदा और किस को नुकसान होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। तीसरी ताकत दोनों दलों के लिए खतरे की घंटी मानी जा सकती है।