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नारे में तबदील होती घोषणा

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 02 Aug

सार

शुरू से ही हमारा देश क्रांतिकारी घोषणाओं के मुहाने पर खड़ा रहा है, देखते ही देखते सतहत्तर वर्ष बीत गए। पौन सदी की आजादी से गदगद होकर आजकल देश उसका अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन लगता है कि क्रांति घोषणाओं से आगे चल कर नारों में तबदील हो गई..!! 

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विस्तार

देश में आबादी की समस्या इतनी गंभीर हो गई है कि लगता नहीं इसका समाधान किसी नई क्रांतिकारी या मौलिक सोच से किया जा सकता है। शुरू से ही हमारा देश क्रांतिकारी घोषणाओं के मुहाने पर खड़ा रहा है। देखते ही देखते सतहत्तर वर्ष बीत गए। पौन सदी की आजादी से गदगद होकर आजकल देश उसका अमृत महोत्सव मना रहा है, लेकिन लगता है कि क्रांति घोषणाओं से आगे चल कर नारों में तबदील हो गई। 

क्रांतिकारी बुढ़ा कर राजनीति की अंधगलियों में अपने लिए किसी कुर्सी की तलाश में भटकते प्रसादों के जयघोष को अंधेरों में गुम हो गए, लेकिन क्रांति न हुई। इस क्रांति के लिए कई आयाम इन घोषणाओं की धरातल से उठे थे। आजादी की आंख खुली तो आबादी के लिहाज से विश्व में भारत दूसरे नंबर पर था। दुनिया का हर सातवां आदमी भारतीय था, और पांचवां चीनी। इजरायल के बाद पहला देश था भारत जिसने परिवार नियोजन को एक सरकारी नीति के तौर पर घोषित किया। तब सरकारीकरण का जमाना था, अमृत महोत्सव तक आते-आते यह सब मिश्रित हो गया।

निष्प्राण सरकारी क्षेत्र को जीवन स्पंदन देने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम पर निजीकरण की कार्यकुशलता का यशोगान होने लगा। अब जब पौन सदी के बारे देश उत्सवधर्मी हो रहा है, तो क्रांति घोषणाएं भूलुण्ठित होती नजर क्यों आ रही हैं? परिवार नियोजन का नारा उठा था, ‘हम दो, हमारे दो’ की लोक धुन पर, लेकिन यह धुन तो मध्य वर्ग की सीमा रेखाओं के बीच ही भटकती रही। परिवार नियोजन सर्वनियोजन न हो सका, क्योंकि सर्वहारा, शोषित वर्ग का क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया कि महंगाई और बढ़ती बेकारी ने निम्न मध्य वर्ग को वंचितों और प्रवंचितों की श्रेणी में शामिल कर दिया।

आबादी का विस्फोट किसी सीमा में बंधने के लिए तैयार नहीं हुआ। इन सतहत्तर वर्ष की आजादी में देश आबादी की तरक्की के सिवा कोई और रिकार्ड नहीं बना सका। आज भारत दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। चीन ने भी नारा लगाया था, ‘हम एक, हमारा एक।’ नतीजा यह निकला कि उनके यहां जवानों की संख्या कम हो गई, और उनकी आबादी में बूढ़ों का बोलबाला हो गया। देखते ही देखते चीन बूढ़ों का देश कहलाने लगा। अब देखो वहां भी नारों का मुखड़ा बदलने लगा। ‘बस दो या तीन बच्चे होते हैं अच्छे’ के नए ज्ञान के प्रकाश के लट्टू वहां जलते दिखाई देने लगे।

अब अपने भारत को ले लो। परिवार नियोजन के कैम्प तो इतने बरस यहां मिथ्या आंकड़ों की जादूगरी से अपनी सफलता की घोषणा करते रहे। इस देश में काम तलाशते नौजवानों की संख्या इतनी बढ़ गई कि यह कालावधि के लिहाज से बूढ़ा देश आबादी के लिहाज से ‘युवकों का देश’ बन गया, जिसकी आधी आबादी काम मांगते नौजवानों की है। सरकार ने भी इनकी समस्या का हल फिलहाल उदार संस्कृति से कर दिया, उदार खैरात बांटने की संस्कृति। देश की कानून पीठ ने कहा, इस देश की जनता को भूख से न मरने का मूलभूत अधिकार दिया जाए। देश के मुखिया ने सांत्वना दी, हमने इस देश की भूखी आबादी में से अस्सी करोड़ लोगों में रियायती या मुफ्त अनाज बांट दिया है, जरूरत पड़ी तो और बांट देंगे।

बेरोजगारी बढ़ी है तो इनकी हथेलियों पर नौकरी की सरसों मनरेगा से उगी और समस्या सुलझने लगी। अर्थात लार्ड केन्ज की रोजगार नीति की तरह अर्ध रोजगार का हल निकाला। बेकारों को पहले गड्ढे खोदने और फिर उनको भरने के काम पर लगा दो। चाहे इस प्रक्रिया को विकास योजनाओं से संबद्ध नहीं कर सकेंगे, क्योंकि उसके बीच भ्रष्टाचार और अंधपरता के स्तूप खड़े हैं। इसलिए फिलहाल बेकारों के हाथ में फावड़ा दो, उनसे गड्ढे खुदवाओ, फिर उनको भरते जाओ। यह भी तो रोजगार ही है।