मध्यप्रदेश की राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में निरंकुशता की चर्चा जोरों पर है। राज्य के मंत्री महेंद्र सिसोदिया ने ब्यूरोक्रेसी के शीर्ष मुख्य सचिव पर निरंकुशता का आरोप लगाया है। सबसे पहले यह समझना होगा कि निरंकुशता कब और कैसे आती है? मनुष्य विद कहते हैं कि मनुष्य जो जानता है, उसी की कल्पना करता है। निरंकुश व्यक्ति को दूसरे की निरंकुशता जल्दी दिखाई पड़ती है। आरोप लगाने वाले मंत्री के गुट ने कभी कमलनाथ में निरंकुशता देखकर अपनी पार्टी से बगावत की थी। वर्तमान सरकार को बनाने के अहंकार से निरंकुशता की शुरुआत होती है।
सेवा के लिए तो कभी तकरार होते हुए नहीं देखी गई। मंत्री और मुख्य सचिव दोनों लोक सेवक हैं। दोनों के निर्धारित दायित्व और भूमिका है और इसके लिए बाकायदा नियम प्रक्रिया और कार्य आवंटन निश्चित है। कोई भी व्यक्ति जो ईमानदारी से जनता की सेवा करना चाहता है उसके लिए किसी टकराव की जरूरत नहीं है। सेवा के साथ लाभ की राजनीति जुड़ते ही राग-अनुराग और निरंकुशता शुरू होती है।
कर्मचारियों-अधिकारियों की पोस्टिंग को लेकर टकराहट क्यों होती है? यह शायद इसलिए होती है कि हर सत्ताधारी राजनेता अपने मनमुताबिक अधिकारी अपने हितलाभ के क्षेत्रों में पदस्थ करना चाहता है ताकि सरकारी काम के साथ-साथ वक्त जरूरत पर उनकी गुलामी के काम पूरे हो सकें। ऐसी परिस्थिति में वही अधिकारी-कर्मचारी मुख्यधारा में टिक पाते हैं जो मंत्रियों और राजनेताओं की खुशामद में लगे रहते हैं।
निष्पक्षता निरंकुशता नहीं होती। राजनीतिक सत्ता डेमोक्रेटिक सरकारों को पोषण आहार के रूप में उपयोग करना चाहती हैं। उपयोग पूरा होना चाहिए लेकिन जवाबदेही ब्यूरोक्रेसी की निर्धारित हो जाती है। कई बार तो ऐसी स्थिति बनती है कि फाइलों पर हस्ताक्षर भी नहीं किये जाते और मौखिक आदेशों पर निर्देश जारी करा दिए जाते हैं। जिन अधिकारियों की कमर सीधी होती है और वह ऐसे किसी भी प्रयास को स्वीकार नहीं करते। उन्हें निरंकुश कहकर शासन प्रशासन की क्वालिटी को कमजोर किया जाता है।
मध्यप्रदेश में ब्यूरोक्रेसी बेलगाम है। ऐसे आरोप कई बार कई लोगों द्वारा लगाए गए हैं। इसका बड़ा कारण है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री सहजता और सरलता के साथ पूरी टीम को जोड़ते हुए जनसेवा करने में सिद्धहस्त माने जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह कमजोर हैं। शिवराज सिंह चौहान का बहुत चर्चित डायलॉग है कि वे अच्छे लोगों के लिए फूल से भी कोमल हैं और भ्रष्टाचारियों के लिए वज्र से भी कठोर हैं। कई बार उन्होंने ऐसा करके दिखाया है।
मुख्य सचिव अचानक राजनीतिक दलों के निशाने पर क्यों आ गए? इसके पीछे जो कारण बताए जा रहे हैं, उनमें पहला कारण तो यह माना जा रहा है कि इकबाल सिंह बैंस की मुख्यमंत्री से निकटता कई लोगों को खटकती है। यद्यपि यह एक परसेप्शन है। यह दोनों व्यक्ति ऐसे हैं जो निकटता को पास नहीं आने देते। काम को अंजाम देने तक जरूरी संपर्क ही बनाते हैं।
शिवराज सिंह चौहान जब चौथी बार मुख्यमंत्री बने थे, तब 2018 के पहले उनके साथ रहे नौकरशाहों को दूर कर दिया गया है। बिल्कुल नई ब्यूरोक्रेसी के साथ इस बार वे काम कर रहे हैं। वर्तमान मुख्य सचिव इकबाल सिंह बैंस जब पहली बार शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने थे तब उनके सचिव के रूप में पदस्थ हुए थे। उसके बाद अब तक कई बार उनके सचिवालय से अन्य स्थानों पर पदस्थ होते रहे। तब भी वे निकटता का भ्रम पालते हुए नहीं दिखाई पड़े।
दूसरा कारण यह माना जा रहा है कि मुख्य सचिव को शायद कुछ समय के लिए सेवावृद्धि मिल जाए, उनका कार्यकाल नवंबर में समाप्त होने वाला है। राजनीतिक और ब्यूरोक्रेटिक क्षेत्र में मुख्यमंत्री से मुख्य सचिव की नजदीकी के कारण ऐसा माना जा रहा है कि सेवा वृद्धि हो जाएगी, इसीलिए उनके खिलाफ एक माहौल बनाया जा रहा है। जो लोग इकबाल सिंह बैंस को जानते हैं, समझते हैं। उन्होंने देखा है कि उन्होंने कभी भी फेवर लेने में विश्वास नहीं किया। उनका व्यक्तित्व जमीन से जुड़ा और अध्यात्मिक है।
कमलनाथ की सरकार में जब उन्हें लूपलाइन में डाला गया था, तब भी उन्होंने खास पदों पर जाने का प्रयास नहीं किया था। उन पर कभी भी पद हावी होता नहीं दिखाई पड़ा। मुख्य सचिव के पद पर सेवावृद्धि देने का प्रस्ताव भी शायद वह स्वीकार नहीं करेंगे, वैसे भी अगले साल विधानसभा चुनाव को देखते हुए इतनी लंबी सेवावृद्धि मिलना संभव नहीं है। इसलिए राज्य के मुख्यमंत्री के हित में भी यही है वह नए मुख्य सचिव के साथ काम को अंजाम दें।
एक बात जरूर परेशान करने वाली है कि इकबाल सिंह बैंस मुख्य सचिव बनने से पहले विवादों से दूर रहा करते थे। ऐसी क्या परिस्थितियां बन गईं कि मुख्य सचिव बनने के बाद उन पर तरह-तरह के विवाद और आरोप मड़े जाते हैं। राजनीति और ब्यूरोक्रेसी का टकराव इस बात का प्रतीक है कि ब्यूरोक्रेसी निष्पक्षता के साथ अपना काम करने की कोशिश कर रही है।
मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया की नाराजगी भी शिवपुरी जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक से जुड़ी हो सकती है। पंचायत ग्रामीण विकास के प्रमुख सचिव से टकराव की खबरें समय-समय पर आती रहती हैं। पोषण आहार की आपूर्ति का विषय भी विवाद के पीछे देखा जा रहा है। समाचार पत्रों में यह खबर भी प्रमुखता से आई है कि महालेखाकार ने मिड-डे मील और फ्री-फूड स्कीम में बड़ा घोटाला पकड़ा है। पोषण आहार के मामले में भी गड़बड़ियाँ सामने आईं हैं। पंचायत ग्रामीण विकास विभाग इन सारी गतिविधियों से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ होता है।
राजनीति में बढ़ती निरंकुशता, प्रशासनिक निरंकुशता को बढ़ा रही है। इसका एक बड़ा उदाहरण झारखंड राज्य में सामने आया है। जहां मुख्यमंत्री स्वयं अपने नाम से खदान आवंटित करा लेते हैं और चुनाव आयोग द्वारा 'ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट' के मामले में दोषी पाए जाते हैं। यह एक घटना नहीं है। यह एक राजनीतिक अप्रोच है और यह अप्रोच कोई एक राज्य का विषय नहीं है। ऐसा हर राज्य में होता ही रहता है। जो ब्यूरोक्रेसी इस तरह के अनैतिक और गलत काम करने के लिए तैयार हो जाए वह समर्पित और बाकी सब निरंकुश। अगर ऐसा है तो मध्यप्रदेश की ब्यूरोक्रेसी को निरंकुशता मुबारक।