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सावधान ! पृथ्वी खतरे में है

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Wed , 05 Oct

सार

इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं..!

janmat

विस्तार

० प्रतिदिन विचार-राकेश  दुबे

26/10/2022

एक ओर मनुष्यों की संख्या हरेक दिन बढ़ती जा रही है, शीघ्र ही यह संख्या 8  अरब से भी अधिक हो जायेगी, पर दुखद बात यह है कि पृथ्वी पर शेष प्रजातियां खतरे में हैं और उनकी संख्या घटती जा रही है। पक्षियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृप वर्ग के जंतुओं में वर्ष1970  से 2018  के बीच दो-तिहाई की कमी आ गई है। यही सब चला तो अगले 20 वर्षों के दौरान पृथ्वी से लगभग 500 जन्तुओं की प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगीं|

 वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फण्ड और जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित रिपोर्ट प्रकाशित की है |लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट, के अनुसार दुनियाभर में जंतुओं की संख्या पिछले  वर्षों के दौरान औसतन 39  प्रतिशत कम हो गयी । इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों को बड़े पैमाने पर काटा जाना है, जबकि मानव की उपभोक्तावादी आदतें और सभी तरह के प्रदूषण दूसरे मुख्य कारण हैं।

यह रिपोर्ट को हर दो वर्ष के अंतराल पर प्रकाशित की जाती है। नई रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जंतुओं की संख्या में 69 प्रतिशत की कमी आ गई, पिछले रिपोर्ट में यह कमी 68  प्रतिशत थी, जबकि 4 वर्ष पहले जंतुओं की संख्या में महज 30  प्रतिशत कमी ही आंकी गई थी। इस रिपोर्ट को दुनियाभर के 89  वन्यजीव विशेषज्ञों ने तैयार किया है, और बताया है कि यह दौर पृथ्वी पर जैव-विविधता के छठे सामूहिक विलुप्तीकरण का है। इस विलुप्तीकरण और पहले के 5  विलुप्तीकरण के दौर में सबसे बड़ा अंतर यह है कि पहले के विलुप्तीकरण की घटनाएं प्राकृतिक कारणों से हुईं, जबकि इस दौर में प्रजातियां मनुष्यों की गतिविधियों के कारण संकट में हैं।

इस अध्ययन को जंतुओं की 5230 प्रजातियों के 32000 समूहों पर किया गया है। जंतुओं के विनाश का सबसे बड़ा क्षेत्र दक्षिण अमेरिका महाद्वीप है, जहां पिछले 48 वर्षों के दौरान इनकी संख्या में 94  प्रतिशत की कमी आंकी गई है। इस महाद्वीप पर स्थित अमेजन के वर्षा वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है, पर इन वर्षा वनों का तेजी से विनाश किया जा रहा है। अफ्रीका के 66  प्रतिशत जंतु समाप्त हो चुके हैं, जबकि एशिया पसिफिक में यह आंकड़ा 55  प्रतिशत है। उत्तरी अमेरिका के 20 प्रतिशत प्राणी समाप्त हो चुके हैं, जबकि यूरोप के 18 प्रतिशत जंतु समाप्त हो चुके हैं।

पृथ्वी एक बड़े खेत में तब्दील होती जा रही है, और कृषि भूमि के विस्तार के कारण जैव-विविधता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। भूमि उपयोग में परिवर्तन के कारण दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में बढ़ोत्तरी हो रही है जो तापमान वृद्धि में सहायक है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड के भूगोल विभाग के वैज्ञानिकों के अनुसार केवल पिछले दो दशकों के दौरान, यानि वर्ष 2000  से 2019  के बीच पृथ्वी पर 10  लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक ऐसे भूभाग पर खेती के शुरुआत की गयी है जहां पहले खेती नहीं होती थी। इन नए क्षेत्रों में मुख्य तौर पर गेहूं, धान, मक्का, सोयाबीन और पाम आयल की खेती की जा रही है। खेती के क्षेत्र में अधिकतर बढ़ोत्तरी गरीब देशों में हो रही है, जहां अमीर देशों का पेट भरने के लिए खेती की जा रही है। अब औद्योगिक देश अपनी जरूरतों के लिए गरीब देशों में कृषि को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे अमीर देशों का पर्यावरण सुरक्षित रहे, पानी की बचत हो और महंगे मानव संसाधन से बच सकें।

जिन नए क्षेत्र में कृषि की जा रही है, उसमें से आधे से अधिक क्षेत्र वन क्षेत्र था या फिर प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा था। इससे एक तरफ तो जैव-विविधता प्रभावित हो रही है तो दूसरी तरफ तापमान बृद्धि का संकट गहरा होता जा रहा है। इस अध्ययन के मुख्य लेखक मैट हंसें के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य का बढ़ता दायरा प्रकृति के लिए एक बड़ा संकट है।

 दुनिया में कितनी कृषि भूमि है, इसका सही आकलन करना कठिन है क्योंकि अधिकतर अध्ययन केवल छोटे दायरे में किये जाते है। संयुक्त राष्ट्र का फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन इसके आंकड़े रखता तो है, पर इसके लिए वह हरेक सदस्य देश पर निर्भर करता है और हरेक देश में इसका आकलन अलग तरीके से किया जाता है।

एंप्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार वर्तमान दौर में पृथ्वी अपने इतिहास के छठे जैविक विनाश की तरफ बढ़ रही है। इससे पहले लगभग 44  करोड़ वर्ष पहले, 36 करोड़, 25 करोड़, 20 करोड़ और 6.5 करोड़ वर्ष पहले ऐसा दौर आ चुका है। पर, उस समय सब कुछ प्राकृतिक था और लाखो वर्षों के दौरान हुआ था। इन सबकी तुलना में वर्तमान दौर में सबकुछ एक शताब्दी के दौरान ही हो गया है। वर्तमान दौर में केवल विशेष ही नहीं बल्कि सामान्य प्रजातियां भी खतरे में हैं। इसका कारण कोई प्राकृतिक नहीं है, बल्कि मानव जनसंख्या का बढ़ता बोझ और इसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का विनाश है। आज हालत यह है कि लगभग सभी प्रजातियों के 50  प्रतिशत से अधिक सदस्य पिछले दो दशकों के दौरान ही कम हो गए। अगले 20  वर्षों के दौरान पृथ्वी से लगभग 500  जन्तुवों की प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगीं, जबकि पिछली पूरी शताब्दी के दौरान इतनी प्रजातियां विलुप्त हुई थीं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह सब मनुष्य के हस्तक्षेप के कारण हो रहा है, अपने सामान्य दौर में इतनी प्रजातियों को विलुप्त होने में लाखों वर्ष बीत जाते हैं।