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बीजेपी और नीतीश साथ भी और टीस भी

सार

चुनावी घड़ी की सुईयां बिहार की तरफ घूम गई है. गठबंधनों के धागे नए सिरे से बुने जा रहे हैं. पिछले पांच  सालों में मुख्यमंत्री भले ही नीतीश कुमार रहे हो लेकिन उन्होंने राज्य के दोनों गठबंधनों की सरकारों का नेतृत्व किया है. इसीलिए नीतीश कुमार किस गठबंधन से चुनाव लड़ेंगे, इस पर आज संशय बना हुआ है..!!

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विस्तार

 

  लालू यादव उन्हें महागठबंधन में आने का खुला निमंत्रण दे चुके हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार को लाड़ला मुख्यमंत्री बता रहे हैं. नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार भाजपा नेतृत्व से उनके पिता को चुनाव में मुख्यमंत्री का आधिकारिक फेस घोषित करने की मांग कर रहे हैं. वही बीजेपी नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात तो कर रही है लेकिन अभी तक मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है.

    नीतीश कुमार मंझे हुए राजनेता है. लेकिन वह इस बात से डर रहे हैं, कि कहीं, बिहार में महाराष्ट्र न दोहरा दिया जाए. चुनाव में बीजेपी अगर सबसे बड़े दल के रूप में अच्छी सीटें जीत कर आती है तो फिर वह अपने दल का मुख्यमंत्री बनाना चाहेगी. 

    यह बात बिल्कुल सही है कि यदि महाराष्ट्र जैसे नतीजे आते हैं, तो फिर तो बीजेपी अपनी पार्टी का ही मुख्यमंत्री बनाएगी. चुनाव के पहले बिना नीतीश कुमार के गठबंधन के बीजेपी एनडीए को बहुमत में ला सकती है ? इस विषय पर चिंतन मनन जरूर चल रहा होगा. बीजेपी और नीतीश कुमार सरकार में साथ-साथ हैं और गठबंधन में भी. फिर भी भविष्य के दांव और आपस में टीस भी साथ-साथ चल रही है.

    लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने जिस ढंग से राज्यों के चुनाव में अपना परचम लहराया है, उससे उनका उत्साह बढ़ा है. दिल्ली में हाल ही में बीजेपी की सरकार बनी है. इसमें बिहार और पूर्वांचल के मतदाताओं का बड़ा योगदान है. दिल्ली के परिणाम का संदेश, बिहार में भी सकारात्मक माना जा रहा है.

    मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को वर्तमान राजनीतिक हालातो में इग्नोर करने का रिस्क बीजेपी शायद नहीं उठाना चाहेगी. हर राजनीतिज्ञ का राजनीति में उठाव होता है तो ढलान भी नेचुरल प्रोसेस है. जो ऊपर है उसे नीचे आना ही पड़ेगा. नीतीश कुमार ने बिहार की  राजनीति में अपना सर्वोत्तम हासिल कर लिया है. उनका एनडीए के साथ रहना ही स्वाभाविक है. केंद्र सरकार भी जदयू के सहयोग से चल रही है, इसलिए दोनों के बीच गर्मजोशी दोनों की जरूरत लगती है. 

    महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के बीच में भी सीटों के बंटवारे में तनावपूर्ण स्थितियां बनेगी. एनडीए में भी हालात अच्छे नहीं है. भविष्य की जमावट में हर दल ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहता है. अगर पिछले चुनाव में विक्ट्री रेशो के आधार पर सीटों का बंटवारा किया जाता है, तो फिर एनडीए में जेडीयू और महागठबंधन में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है. फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं, उनसे तो यही दिखाई पड़ता है कि बीजेपी और नीतीश कुमार साथ-साथ रहेंगे. चुनाव बाद के खेल पर सधे हुए कदमों से दोनों अपनी चालें चलेंगे.

     बिहार, भारत में जातिवाद की राजनीति का प्रमुख केंद्र है. बिहार में चुनावी नतीजे जातियों की गणित पर ही तय  होंगे राज्य में चुनावों को सबसे ज्यादा जाति ही प्रभावित करती है. सभी राजनीतिक दल जातियों के हिसाब से अपनी गोटियाँ बैठाते हैं. नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में बीजेपी ने अपने कोटे के रिक्त सभी सातों पदों पर मंत्रियों को शपथ दिला दी है. जो नए मंत्री बनाए गए हैं उसमें भी जातिगत गणित को साधा गया है. अति पिछड़े, अतिदलित समूह को प्राथमिकता दी गई है.

    बिहार में यादव, मुस्लिम समीकरण राष्ट्रीय जनता दल के पक्ष में रहा है. चिराग पासवान और दूसरे छोटे छोटे दलों के गठबंधन के कारण अन्य जातियों के समीकरण एनडीए के तरफ झुके हुए दिखाई पड़ते हैं. 

    बिहार के लिए बीजेपी ने अपनी कल्याणकारी प्रतिबद्धताएं पूरा करने पर पूरा जोर लगा दिया है. महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली के बाद बीजेपी बिहार में जिस ढंग से आगे बढ़ रही है. बीजेपी ने कुछ महीनों में बिहार में राष्ट्रीय राजमार्ग, हवाई अड्डे, बाढ़ नियंत्रण और पर्यटन विकास जैसे बुनियादी ढांचे के लिए निवेश की झड़ी लगा दी है.

    बीजेपी बिहार में लगातार अपनी स्थिति मजबूत करती रही है. वर्ष 2020 में भाजपा वरिष्ठ गठबंधन सहयोगी के रूप में उभरी उसने 110 सीटों पर चुनाव लड़कर 74 सीटें जीती. जबकि जेडीयू 115 में से 43 सीट पर ही सिमट गई. बीजेपी आगे बढ़ी है यह कोई रहस्य नहीं है.   

   नीतीश कुमार बिहार में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज कर चुके हैं. राजनीतिक उथल-पुथल और विरोधी गठबंधन में जाकर भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की नीतीश कुमार की रणनीति राजनीतिक रूप से सफल कही जा सकती है, लेकिन जनता के नजर में इससे विश्वास में कमी ही आई है. राज्य के मतदाता अपने राज्य के नेताओं की नाटकीयता से कभी खुश हुआ करते थे लेकिन अब उनमें विकास के प्रति ललक बढ़ी है इसके कारण मायावी राजनेताओं के भविष्य प्रभावित हो सकते हैं.

    बिहार में चुनाव जातियों के ईर्द-गिर्द घूमते हैं. चुनाव में जाति का फूल ही सुगंध देता है. जातियों का ओल्ड गेम नए रूल के साथ खेला जाता है. बीजेपी इस पर बहुत सतर्क है. नीतीश कुमार के बेटे जिस तरह से राजनीतिक वक्तव्य दे रहे हैं, उससे उनकी भी राजनीति में आने की संभावनाएं दिखाई पड़ रही हैं. यद्यपि नीतीश कुमार राजनीति में परिवारवाद के सख्त खिलाफ माने जाते हैं इसलिए जब तक वह राजनीति में सक्रिय है, तब तक बेटे को आगे नहीं लाना चाहेंगे.

    बिहार की राजनीति में लालू यादव और नीतीश कुमार की पीढ़ी अब अपने चरम के अंतिम दौर पर खड़ी है. राष्ट्रीय जनता दल में तेजस्वी यादव भविष्य के नेता के रूप में स्थापित हो गए हैं. राजनीति संभावनाओं का खेल है. वैसे लगता तो यही है कि नीतीश कुमार एनडीए के साथ ही रहेंगे क्योंकि राष्ट्रीय जनता दल के साथ जाने पर भी उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं  बनाया जा सकेगा. आरजेडी में मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर तेजस्वी यादव पहले से ही स्थापित है. इस पर शायद ही पार्टी कोई समझौता करने को तैयार हो. 

   बीजेपी ने नीतीश कुमार को पिछले चुनाव में बहुत कम सीट जीतने के बाद भी मुख्यमंत्री के तौर पर  स्वीकार किया था. इसलिए वर्ष 2025 के चुनाव परिणाम आने तक नीतीश को इन्तजार करना होगा. मुख्यमंत्री फेस घोषित करने को लेकर नीतीश को बचना चाहिए. 

    इसका एक राजनीतिक पक्ष भी है. लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के कारण नीतीश कुमार के खिलाफ़ नकारात्मकता बढ़ी है. उनका जातीय गणित निश्चित रूप से उनके पक्ष में है लेकिन सरकार की एंटी इन्कंबेसी उनके चेहरे के ही खिलाफ़ है. इस कारण बीजेपी की यह राजनीति नीतीश को स्वीकार करनी चाहिए कि, बिना किसी मुख्यमंत्री फेस के चुनाव लड़ा जाए. क्योंकि वह वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं इसलिए उनकी अगुआई  में ही चुनाव लड़ा जाएगा.

    भविष्य में मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए अभी से संघर्ष नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक फायदे का सौदा नहीं हो सकता. उनको भाजपा पर इस बात के लिए भरोसा करना पड़ेगा राजनीतिक हालातों के मुताबिक भविष्य में भी बीजेपी उनकी लीडरशिप को स्वीकार करेगी.