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कांग्रेस नेतृत्व ?सवाल भी जवाब भी

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Tue , 09 Sep

सार

कांग्रेस आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है| सब जानते हैं

janmat

विस्तार

और नतीजा कुछ नहीं निकला, कांग्रेस का नेतृत्व जस का तस है | पांच राज्यों के चुनाव में देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की जो स्थिति बनी, उसके बाद संगठनात्मक सुधारों की मांग का जोर पकड़ना स्वाभाविक था और कार्य समिति की बैठक भी ,परन्तु न कुछ बदलना था और न बदला | सही अर्थों में पांच विधानसभा चुनावों में हार ने कांग्रेस को बेहद कमजोर कर दिया है| किसी भी लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष जरूरी होता है| उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है| कांग्रेस की आज सबसे दिक्कत है विचारधारात्मक और प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर पार्टी का रुख, पार्टी नेताओं को यह स्पष्ट नहीं है, सबके अपने-अपने रागद्वेष है| आज पार्टी की हालत ऐसी है कि आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों को तो छोड़िए, वह अपना भविष्य तक तय करने की स्थिति में नहीं है|गाँधी परिवार से इतर कुछ सोचा भी नहीं जा रहा है |

कांग्रेस आज अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्ष कर रही है| सब जानते हैं राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था और उसके बाद सोनिया गांधी ने अंतरिम तौर से फिर नेतृत्व संभाला था, तब से कांग्रेस के पास कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है, स्थिति जस की तस थी और है | हाल ही में आये चुनाव नतीजों से एक बात तो स्पष्ट हो गयी है कि लगातार प्रयासों के बावजूद राहुल गांधी को जनता कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं| साथ ही यह संदेश साफ है कि वंशवाद की राजनीति का दौर उतार पर है, इसे जितनी जल्दी कांग्रेस स्वीकार कर लेगी, उतना उसके लिए बेहतर होगा, लेकिन ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि नेहरू-गांधी [महात्मा गाँधी नहीं ]परिवार के बिना कांग्रेस का वजूद नहीं रहेगा| दरअसल, समस्या यह भी है कि कांग्रेस को बिना नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के काम करने की आदत ही नहीं है और यही वजह है कि पार्टी की आज इस स्थिति में है|रविवार को बुलाई गई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक इसकी ही परिणति थी। समिति की बैठक के बाद वरिष्ठ कांग्रेसियों के जो बयान सामने आये, उनसे लगता है वे राहुल गांधी को पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते हैं।पर क्यों?, किसी को नहीं पता |

वैसे इन विधानसभा चुनाव परिणामों ने संकेत दे दिया है कि देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी पराभव के सबसे बुरे दौर में है, जो बताता है कि २०२४ के आम चुनाव में बिना बदलाव व विपक्षी एकजुटता के कांग्रेस का ,भाजपा का विकल्प बनना संभव नहीं है। कांग्रेस के पराभव की बानगी देखिये कि वर्ष २०१४ में भाजपा के केंद्रीय सत्ता में आते वक्त नौ राज्यों में शासन कर रही थी, अब पंजाब में पराजय के बाद यह संख्या दो रह गयी है। इस साल के अंत से वह हिमाचल में वापसी की कोशिश कर रही है । कांग्रेस शासित बचे शेष दो राज्यों राजस्थान व छत्तीसगढ़ में २०२३ में चुनाव होंगे। ऐसे में आम चुनाव से पहले वर्ष में भाजपा से कांग्रेस को बड़ी चुनौती मिलेगी।

स्पष्ट है कांग्रेस का यह पराभव देश में उस मध्यमार्गी विकल्प का क्षरण करता है जो राष्ट्रीय चुनाव राजनीति को संबल देता है, जिसमें विभिन्न विचारधाराओं व महत्वाकांक्षाओं के साथ विपक्षी दल जुटते हैं। निस्संदेह, बहुमत वाली सरकार को जवाबदेह बनाने के लिये देश में मजबूत विपक्ष की जरूरत होती है, और है । तीन दशक में पराभव के बावजूद कांग्रेस भाजपा का व्यावहारिक विकल्प नजर आती है,लेकिन मौजूदा हालात देखकर दिग्गज कांग्रेसियों का भी धैर्य जवाब देता दिख रहा है। पिछले दो आम चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर १९ प्रतिशत यानी भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रहा हो, लेकिन उसमें अभी भी भारतीय नागरिकों के नेतृत्व की क्षमता है। संगठनात्मक सुधारों व रीति-नीतियों में बदलाव लाकर वह भाजपा के लिये एकल चुनौती बन सकती है।

अभी भी कुछ लोग पार्टी का गांधी परिवार की आभा से मुक्त न हो पाना ही इसकी वजह मान रहे हैं। वर्ष २०१९ में अध्यक्ष के रूप में राहुल के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष के रूप में पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं। अब पार्टी नेता राहुल गांधी को पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं। तो क्या संगठनात्मक सुधार के बिना इस बदलाव से कांग्रेस का पराभव रुक पायेगा? क्या भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा हकीकत में बदल रहा है?कांग्रेस के सामने ज्वलंत मुद्दे है और जवाब कांग्रेस के भीतर ही है |