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करीबी जीत-हार में चेहरे दिखाएंगे चमत्कार 

सार

एमपी विधानसभा चुनाव क्या वाकई कड़ी टक्कर में फंसा है? कोई भी दल दमदारी से जीत का दावा नहीं कर पा रहा है. राजनीतिक पंडित, सट्टा बाजार और मीडिया घरानों के सर्वे भी कड़ी टक्कर का ही इशारा कर रहे हैं. मध्यप्रदेश में कड़ी टक्कर की चर्चाएं कांग्रेस के लिए चक्कर का एहसास और बीजेपी के लिए शक्कर की मिठास कही जा सकती है..!!

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विस्तार

प्रदेश में 18 साल की सरकार के बाद कांग्रेस की सरकार गिराकर सरकार चलाने वाली बीजेपी चुनावी मैदान में कड़ी टक्कर के साथ बनी हुई है तो यह बीजेपी के गवर्नेंस की गुड न्यूज़ ही है. पांच साल की सरकार को रिपीट होने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. इतने लंबे शासन के बाद भी कड़ी टक्कर को जीत हार में तोलते समय ग्रेसमार्क सत्ता पक्ष के खाते में ही जाएगा.

चुनाव में कड़ी टक्कर के जो कारण समझे जा सकते हैं उनमें प्रत्याशियों के चयन में गलतियां, गठबंधन में बिखराव, बगावत, तीसरे दल की उपस्थिति, प्रचार अभियान में जोश, जाति, धर्म पर दलों के दावे, राम मंदिर के अलावा हमास के आतंकवाद की चुनावी भूमिका, मतदान केंद्र पर कार्यकर्ताओं की सक्रियता आदि हैं। यही ऐसे बिंदु हैं जो चुनाव की दिशा और दशा निर्धारित करते हैं. चुनाव में ना तो मतदाता उत्साहित दिखाई पड़ रहा है और ना ही राजनेताओं में जमीनी ताजगी महसूस हो रही है.

कांग्रेस में कमलनाथ तो बीजेपी में राज्य स्तर पर शिवराज चुनाव का नेतृत्व कर रहे हैं. इन दोनों नेताओं के जोश और उत्साह को अगर कोई पैमाना माना जाए तो शिवराज सिंह ही चैंपियन दिखेंगे. एक दिन में औसतन 10 सभाएं शिवराज सिंह चौहान ले रहे हैं. कमलनाथ तो दो या तीन सभाओं से ज्यादा करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं. बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी और पार्टी के बड़े चेहरे चुनाव प्रचार में जिस गति के साथ उतरे हुए हैं उसमें भी कांग्रेस के नेता पिछड़ते दिखाई पड़ रहे हैं. सोनिया गांधी तो अभी तक चुनाव प्रचार में नहीं दिखी हैं. राहुल गांधी भी अवकाश लेकर केदारनाथ चले गए थे. जब वे चुनाव प्रचार में उतरे हैं तो चुनाव प्रचार अपने अंतिम दौर में पहुँच चुका है. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एमपी चुनाव में बीजेपी का सबसे बड़ा चेहरा बने हुए हैं. वे जितनी सभाएं मध्यप्रदेश में कर रहे हैं वह भी एक रिकॉर्ड है. बीजेपी का तो चुनाव अभियान ही ‘एमपी के मन में मोदी’ पर केंद्रित है. उत्तरप्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ की प्रचार अभियान में उपस्थिति ही अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की चुनावी अभियान में प्राण प्रतिष्ठा के लिए पर्याप्त है. कांग्रेस की ओर से राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सभाएं तो कर रहे हैं लेकिन वे उत्तर भारत के इस राज्य में खुद को जन-मन से जोड़ने में कामयाब होते नहीं देख रहे हैं. धार्मिक उदाहरण देकर वे कांग्रेस के खिलाफ ही चुनावी रथ को मोड़ देते हैं. ग्वालियर में एक सभा में खड़गे नरेंद्र मोदी और शिवराज को पांडव बताने के चक्कर में खुद की टीम को कौरवों की टीम साबित कर बैठे हैं.

राजनीतिक पंडित, चुनाव समीक्षक यहां तक की ज्योतिषाचार्य और मीडिया समीक्षक भी बीजेपी और कांग्रेस के बीच में बंटे हुए दिखाई पड़ते हैं. कड़ी टक्कर चर्चाओं में ज्यादा दिखाई पड़ रही है. जमीनी हकीकत की स्थिति चुनाव परिणाम से तय होगी. जो भी सर्वे और समीक्षाएं सामने आ रही हैं उसमें निष्पक्षता से ज्यादा इस पर फोकस किया जाता है कि दोनों दलों में से किसी को भी बुरा नहीं लगे. जिसकी भी सरकार बने उसमें समीक्षक को अपनी हिस्सेदारी की गुंजाइश बनी रहे.

चुनाव का बड़ा फैक्टर हर क्षेत्र में मतों का विभाजन बन गया है. इस दृष्टि से देखा जाए तो कांग्रेस 2018 के चुनाव में आदिवासी सीटों पर जयस के साथ मिलकर मैदान में उतरी थी. इस बार जयस अलग चुनाव लड़ रहा है. सपा-बसपा-आप और AIMIM मतों का विभाजन करने में किस सीमा तक सफल होंगे, इस पर चुनावी नतीजे निर्भर करेंगे. तीसरे दल इन चुनाव में काफी दम ठोक रहे हैं. पार्टियों से बगावत कर विद्रोह और असंतोष का दुष्प्रभाव तो दोनों दलों को झेलना पड़ रहा है. शायद इस कारण भी सर्वे और समीक्षक निर्णायक नतीजे भांपने में सफल नहीं हो रहे हैं.

मतदान केंद्र पर कार्यकर्ताओं की सक्रियता और मतदाताओं को घर से निकालकर बूथ तक ले जाने में सफल होने वाला राजनीतिक दल अपनी संभावनाएँ उज्जवल कर सकेगा. कांग्रेस में दिग्विजय सिंह सभाओं से ज्यादा कार्यकर्ताओं के बीच उत्साह बढ़ाने का काम कर रहे हैं. बीजेपी में प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी यही भूमिका निभा रहे हैं. वे भी चुनावी सभाओं से ज्यादा कार्यकर्ताओं को मतदान के दिन वोटर को घर से बाहर निकालने में पूरा जोर लगाने का दम भर रहे हैं.

ये चुनाव कार्तिक मास में हो रहे हैं. दीपावली का त्यौहार चुनाव के साथ-साथ मनाया जा रहा है. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा चुनाव में हिंदुत्व की अलख जगाती नज़र आ रही है. इजराइल और हमास का युद्ध और धार्मिक आधार पर आतंक भी चुनावी चर्चाओं के केंद्र में है. जातियों का समीकरण भी बंटा हुआ ही दिखाई पड़ रहा है. कई जातियां तो एकतरफ़ा वोट करती हैं लेकिन कुछ में दलों के बीच विभाजन की स्थिति है. शायद इस कारण भी चुनावी आकलन कड़ी टक्कर दिखा रहे हैं.

लंबे समय तक शासन करने के बाद भी चुनावी समर में कड़ी टक्कर सत्ताधारी दल को मुस्कुराने का ही अवसर देती है. छह महीने पहले जब चुनाव का माहौल बनना शुरू हुआ था तब चर्चाओं में राज्य के नतीजे एकतरफा सुनाई पड़ रहे थे लेकिन अब बीजेपी सरकार की ‘लाडली बहना योजना’ गेम चेंजर साबित होती दिख रही है. यही योजना है जिसके कारण सत्ता पक्ष चुनाव को कड़ी टक्कर में लाने में सफल हुआ है. चलते चुनाव में भी नवंबर महीने की किस्त लाडली बहनों के खातों में आ चुकी है. धनतेरस के पहले ही सरकार ने लाडली बहनों के खातों में धन पहुंचा दिया है तो एक सप्ताह बाद मतदान में इसका प्रभाव दिखाई पड़ सकता है.

चुनाव में कड़ी टक्कर सिंहस्थ का मिथक मानने वालों को भी खुश होने का मौका दे रही है. सिंहस्थ आयोजन बीजेपी की सरकारों के नेतृत्व में होने का इतिहास है. सिंहस्थ का आयोजन अप्रैल 2028 में होना है. ऐसे में अगला सिंहस्थ विधानसभा चुनाव से बनने वाली सरकार ही करायेगी.  प्रदेश में इस बार करीब 22 लाख युवा मतदाता पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. ये युवा मतदाता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नीतियों- निर्णयों के साथ होंगे या बदलाव के नाम पर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का हाथ मजबूत करेंगे यह भी देखने योग्य होगा, क्योंकि युवा मतदाताओं का यह निर्णय भी चुनाव को निर्णायक दिशा देगा.

चर्चाओं और सर्वे में कड़ी टक्कर चुनावी नतीजे में भी कायम रहती है तो राज्य की अगली सरकार नजदीकी अंतर से ही बनने की संभावना देखी जा रही है. चुनाव ही एक अवसर होता है जब चर्चाओं और चुनावी भविष्यवाणियों की जलेबी हर तरफ बनती दिखाई पड़ती है. जनमत का महापर्व शांति और सम्मान से निर्णायक बहुमत के साथ मध्यप्रदेश का भविष्य सुरक्षित रखने में निश्चित रूप से सफल होगा.