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राज्यपाल बनाम राज्य, विवाद का साम्राज्य

सार

राज्यपालों की भूमिका एक बार फिर सुर्खियों में है. सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में शिवसेना सरकार के गिर जाने से जुड़े मामले में सुनवाई करते हुए टिप्पणी की है कि राज्यपाल निर्वाचित सरकारों को गिराने के लिए राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं. शिवसेना में विद्रोह के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को फ्लोर टेस्ट कराने के राज्यपाल के फैसले को सर्वोच्च अदालत ने ठीक नहीं माना है. चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट के दौरान तत्कालीन राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठाए. कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को सावधानीपूर्वक अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए और इस बात से सचेत रहना चाहिए कि फ्लोर टेस्ट बुलाने से सरकार गिर सकती है..!

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विस्तार

राज्यपालों की भूमिका को लेकर लगातार विवाद बने हुए हैं. राज्यपाल और राज्य सरकारों तथा मुख्यमंत्री के बीच अप्रिय स्थितियां बनती देखी जा रही हैं. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को एक ऐसे मामले की सुनवाई करनी पड़ी जिसमें पंजाब के राज्यपाल ने कैबिनेट की सिफारिश के बाद विधानसभा नहीं बुलाई. महाराष्ट्र में  पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना के बीच गठबंधन टूटने के बाद राज्य में सरकार के गठन को लेकर जितने तरह के प्रयोग हुए हैं उनमें राज्य की सरकार के लिए तो जो हालात बने हैं वह अपनी जगह हैं लेकिन राज्यपाल के लिए अप्रिय स्थितियां निर्मित हुई हैं.

सबसे पहले राज्यपाल ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई और उस समय एनसीपी के अजीत पवार उप मुख्यमंत्री बने थे. राष्ट्रपति शासन समाप्त कर फडणवीस को दिलाई गई शपथ और फिर वह गठबंधन नहीं चलने पर महाविकास अघाडी सरकार की स्थापना के राजनीतिक घटनाक्रमों में राज्यपाल की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं.

महाराष्ट्र में फिर शिवसेना में बगावत हुई. एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के अधिकांश विधायकों ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ विद्रोह किया. बगावती विधायक गुवाहाटी के होटल में पहुंचे. राजनीतिक हालातों पर राज्यपाल महोदय ने तत्कालीन मुख्यमंत्री को फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया. फ्लोर टेस्ट का सामना करने के पहले ही उद्धव ठाकरे ने त्यागपत्र दे दिया.

बदलते घटनाक्रम में एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बने. उसके बाद शिवसेना की आंतरिक लड़ाई में पार्टी और चुनाव चिन्ह पर चुनाव आयोग का फैसला और वर्तमान परिस्थितियां अब सर्वोच्च न्यायालय में विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से विचाराधीन हैं. महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे भगत सिंह कोश्यारी सक्रिय राजनेता रहे हैं. वे उत्तराखंड में मुख्यमंत्री रह चुके हैं. महाराष्ट्र में बनी विवादास्पद परिस्थितियों के कारण उन्होंने पद छोड़ने की पेशकश की थी.

राज्यपाल और राज्य के मुख्यमंत्रियों के बीच विवाद बीजेपी के विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों में कमोबेश हर राज्य में बना हुआ है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तत्कालीन राज्यपाल (वर्तमान में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकर) के बीच विवाद सुर्खियों में थे. हालात यहां तक पहुंच गए थे कि दोनों के बीच में सार्वजनिक बयानबाजी तक देखी गई थी. महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल तमिलनाडु, पंजाब, तेलंगाना, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच में कार्यकारी संबंध ही कहे जा सकते हैं. 

राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच में अधिकांश विवाद विधेयकों के अनुमोदन, राज्य के विश्वविद्यालयों में नियुक्तियां और संचालन के अधिकारों को लेकर सामने आते हैं. राज्यपाल विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते हैं. कई राज्यों में राज्यपाल के अधिकारों को भी कानून बना कर छीनने का काम किया गया है.

तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा ऑनलाइन जुए पर प्रतिबंध के लिए पारित विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाने के कारण विवादों की चर्चा है. संविधान राज्यपाल को विधेयकों को पुनर्विचार के लिए लौटाने की शक्ति देता है. तमिलनाडु के राज्यपाल ने इसके पहले राज्यपाल के अभिभाषण के कुछ हिस्सों को पढ़ना छोड़ दिया था. राज्यपाल का अभिभाषण कैबिनेट द्वारा सरकार की नीति योजना का दस्तावेज होता है. तमिलनाडु में तो राज्यपाल के विरोध में सत्ताधारी पार्टी ने सार्वजानिक प्रदर्शन तक किया है. यह सारी घटनाएं राज्यपाल की भूमिका सवाल उठाती हैं. 

संविधान सभा की प्रांतीय संविधान समिति और संघ संविधान समिति ने भारत में सरकार के संसदीय रूप को उपयुक्त मानते हुए सहमति दी थी. प्रांतीय समिति का मत था कि राज्यपाल को सीधे वयस्क मताधिकार द्वारा चुना जाना चाहिए। संविधान के मसौदे में इस प्रावधान को शामिल किया गया है। हालांकि, इस प्रावधान पर बहस करते हुए संविधान सभा ने इस प्रक्रिया को राष्ट्रपति द्वारा सीधी नियुक्ति में बदल दिया।

कई सदस्यों ने तब महसूस किया कि एक निर्वाचित राज्यपाल मुख्यमंत्री के अधिकार को कम कर देगा। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि पार्टी के टिकट पर चुने गए व्यक्ति के बजाय एक निष्पक्ष व्यक्ति को पद के लिए नामांकित करने की आवश्यकता है। पिछले 70 वर्षों में, दो प्रश्न सामने आते रहे हैं। क्या केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त व्यक्ति केंद्र सरकार की राजनीतिक पसंद से अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने में सक्षम हैं?  राज्यपाल के विवेक का स्तर क्या है? 

राज्यपालों के पास निर्णय लेने की शक्तियां होती हैं. संविधान राज्यपाल को कुछ कार्यों के लिए पूर्ण विवेकाधिकार प्रदान करता है. जैसे उत्तर-पूर्व में कुछ राज्यों में विशेष शक्तियां हैं। कुछ अन्य क्षेत्र हैं जहाँ राज्यपाल को निर्णय लेने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए चुनाव के बाद राज्यपाल को यह तय करना होता है कि किसी एक दल या गठबंधन के पास स्पष्ट बहुमत नहीं होने पर किसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाए. यदि कोई भी विधान सभा में बहुमत समर्थन प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं है तो विधानसभा को भंग करने का निर्णय भी राज्यपाल द्वारा ही किया जाता है. राज्यपाल को मुख्यमंत्री को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करने का पूरा अधिकार है. स्पष्ट रूप से किसी भी मुख्यमंत्री द्वारा इस तरह की कार्रवाई की सिफारिश करने की संभावना नहीं है और यह निर्णय राज्यपाल को ही करना होता है।

पिछले कुछ वर्षों में राज्यपालों द्वारा विधेयकों में देरी करने और राज्य मंत्रिमंडल के निर्णयों के विपरीत अन्य कदम उठाने के कारण तनाव फिर से बढ़ गया है। अब तक छह उच्च स्तरीय समितियों और आयोगों ने इस मुद्दे पर गौर किया है। इन समितियों और आयोगों ने सुझाव दिया था कि राज्यपाल को राज्य से एक अलग एक व्यक्ति होना चाहिए जो हाल ही में राजनीति में शामिल न रहा हो. नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्री से परामर्श की भी सिफारिश की गई थी. राज्यपालों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए कार्यकाल की सुरक्षा की सिफारिश भी की गई है. सिफारिशों में यह भी कहा गया कि राष्ट्रपति शासन अंतिम उपाय होना चाहिए. इन सिफारिशों में से अधिकांश सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनिवार्य किए गए विश्वास-परीक्षण नियम को छोड़कर नजरअंदाज कर दी गईं हैं. भारत का लोकतंत्र राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच संबंधों में तनाव भुगत रहा है।

राज्यपाल और राज्यों के बीच में विवाद और तनाव लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहे जा सकते. राजनीतिक नियुक्तियों के कारण राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए राजनीतिक ढाल बनने से बचना बहुत कठिन होता है. भारत में संघवाद की व्यवस्था में राज्यपाल राज्यों में संघीय शासन के प्रतिनिधि के रूप में काम करते हैं.

विरोधी विचारधारा की सरकारों में अक्सर राज्यपाल को राजनीतिक मोहरे के रूप में उपयोग करने की प्रवृत्ति समर्थकों और विरोधियों दोनों में बढ़ती देखी गई है. कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि राज्यपाल की मंशा को राजनीतिक दृष्टि से आलोचना का माध्यम बनाया जाता है. राज्यपाल की भूमिका और नियुक्तियों के संबंध में पूर्व में जो सिफारिशें की गई हैं उन पर विचार कर विवादों को रोकने के लिए समुचित कदम उठाने की जरूरत है. सर्वोच्च न्यायालय में राज्यपाल और राज्यों के विवाद के बढ़ते मामले लोकतंत्र की परिपक्वता पर भी सवाल खड़े करते हैं.