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पुलिस जांच में दोषी कैसे बचते हैं, निर्दोष कैसे फंसते हैं? एक तरफ 78 मौतें कोई नहीं दोषी, दूसरी तरफ निर्दोष ने काटी 13 साल की सजा..! अतुल विनोद पाठक 

अतुल विनोद अतुल विनोद
Updated Fri , 27 Jul

सार

मध्य प्रदेश के एक आदिवासी बेटे ने निर्दोष होते हुए 13 साल तक जेल की यातना कैसे भोगी होगी? एमबीबीएस डॉक्टर बनकर, दुखी बीमार की सेवा करने का जज्बा लेकर आगे बढ़ने वाले चंद्रेश को हत्या के एक मामले में पुलिस की जांच ने अपराधी बना दिया| अपनी ही प्रेमिका की हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की उसे सजा सुनाई गई| हाईकोर्ट जबलपुर ने देर से ही सही उसकी बेगुनाही का ईश्वरीय फैसला दिया है..!

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विस्तार

अदालत के फैसले में चौकाने वाले ढंग से सारे घटनाक्रम का विवरण देते हुए मध्य प्रदेश पुलिस की जांच प्रक्रिया को द्वेषपूर्ण बताया है| फैसले में जस्टिस अतुल श्रीधरन, जस्टिस सुनीता यादव की खंडपीठ ने कहा कि पुलिस के द्वेषपूर्ण अभियोजन के कारण चंद्रेश का पूरा जीवन अव्यवस्था की भेंट चढ़ गया|

निर्दोष होते हुए भी उसे 13 साल जेल में काटना पड़ा| इसके लिए अदालत ने 42 लाख रुपए का मुआवजा देने के भी सरकार को निर्देश दिए हैं| अदालत ने जांच से जुड़े पुलिस अधिकारियों पर गंभीर सवाल उठाए और कहा कि जानबूझकर दोषी को बचाया गया, निर्दोष को फसाया गया| किसी कवि ने कहा है “समझा था पुलिस छुपा लेगी सब गुनाह लेकिन गजब हुआ अदालतें बोलने लगी”

डॉक्टर की पढ़ाई करने वाले उस युवक को तो रिहाई का इंतजार भी नहीं था, क्योंकि निरपराध होने के बाद भी आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा था, उसका तो ईश्वर से भी भरोसा उठ गया होगा| जबलपुर की अदालत उसके लिए भगवान की अदालत बन गई|

अदालत ने सच को देखा, जो चार्जशीट में छुपा दिया गया था| कृष्ण बिहारी नूर की कविता है “जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं” इस आदिवासी युवक की मनोस्थिति की कल्पना करें, जो अपनी प्रेमिका खो चुका था, उसकी हत्या जिन लोगों ने की थी उनकी चाल में ही फस कर वही हत्यारा साबित हो गया था|

भारत में आज सिस्टम पर तो विश्वास का संकट खड़ा हो गया है| केवल अदालतों पर ही भरोसा बचा है| देश की अदालतें यह बात लगातार सिद्ध कर रही हैं कि कोर्ट्स में वास्तव में सही न्याय होता है| इस आदिवासी युवक की कहानी फिल्मी कहानी जैसी लगती है| कोई भी व्यवस्था गलती तो कर सकती है, लेकिन किसी को बचाने के लिए किसी को फसाने का उपक्रम, अगर सिस्टम द्वारा किया जाता है तो इससे बड़ा गुनाह और पाप कुछ भी नहीं हो सकता|

मध्य प्रदेश पुलिस वैसे तो देश में बेहतर मानी जाती है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस तरह के मामले प्रकाश में आ रहे हैं उसके कारण पुलिस की छवि खराब हो रही है| झाबुआ जिले के पेटलावद में विस्फोट के कारण 78 निर्दोष लोगों की जान गई थी| भीड़भाड़ वाले इलाके में विस्फोटक रखे गए थे|

इस मामले ने प्रदेश में तूल पकड़ लिया था, लेकिन जब पुलिस की जांच के बाद, अदालत में चार्जशीट पेश हुयी, अदालत के निर्णय में सभी 78  बेगुनाहों की मौत के लिए किसी को भी दोषी नहीं माना गया| जांच में किसी को भी दोषी साबित नहीं कर पाना पूरे सिस्टम के लिए शर्मनाक है| अदालत के निर्णय के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस पर नाराजगी भी जताई थी|

इसके बाद गृह विभाग ने इस प्रकरण की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों की जांच करने का निर्णय लिया| इस जांच का क्या निष्कर्ष निकला यह तो अभी तक पता नहीं चला है| इसी प्रकार रीवा में पुलिस बल पर हमले और बालाघाट में बच्चों के साथ अप्राकृतिक कृत्य करने वाले आरोपियों को भी पुलिस की जांच में खामियों के कारण अदालत द्वारा बरी कर दिया गया| गृह विभाग ने तीनों मामलों की जांच शुरू करने का निर्णय लिया था|

गांधी मेडिकल कॉलेज भोपाल में मेडिकल की छात्रा श्रुति हिल की हत्या के मामले में उच्च न्यायालय ने जांच प्रक्रिया की जिस तरह से धज्जियां उड़ाई है, वह संपूर्ण पुलिस तंत्र और राज्य सरकार के लिए अलार्मिंग है| तन्त्र की गलती के कारण निर्दोष ने 13 साल की सजा काटी|

तो क्या सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती  कि उसके साथ मानवीय और सामाजिक न्याय भी किया जाए| अदालत ने उसे निर्दोष सिद्ध कर दिया, लेकिन जिस सरकारी तंत्र ने उसे दोषी बनाया था, उस सरकारी तंत्र को सुधारने के इमानदारी से क्या कोई प्रयास किए जाएंगे?

एक और सवाल उपस्थित होता है कि जब श्रुति की हत्या चंद्रेश ने नहीं की तो किसी ना किसी ने तो उसकी हत्या की? सरकार क्या उसकी हत्या की नए सिरे से जांच कराएगी? इसमें राज्य के पुलिस तंत्र की भूमिका अदालत ने बताई है, इसलिए क्या इस मामले की जांच केंद्रीय जांच एजेंसी से कराने की पहल नहीं करना चाहिए?

चंद्रेश बालाघाट जिले का आदिवासी युवक है| हमारी सरकारें आदिवासियों के लिए हमेशा प्रतिबद्धता दिखाती रहती हैं| पक्ष और विपक्ष के बीच आदिवासियों के हितेषी होने  की प्रतिस्पर्धा चलती रहती है| चंद्रेश मर्सकोले का मामला दोनों पक्षों के लिए आदिवासियों के साथ न्याय कराने की प्रतिबद्धता को सिद्ध करने का समय है|

जैसा पता चल रहा है कि आदिवासी युवक चंद्रेश एमबीबीएस के तीसरे साल की पढ़ाई कर रहा था, निश्चित रूप से आज वो अधेड़ हो चला होगा| निर्दोष होने के बाद उसे मिली सजा से तो अदालत ने मुक्त कर दिया है, लेकिन अब उसका सामाजिक जीवन कैसे चलेगा? 

क्या उसे विशेष प्रकरण के रूप में राज्य सरकार सेवा के लिए अवसर दे सकती है? तन्त्र की गलती के कारण उसका जीवन बलिदान हुआ, अगर उसके साथ अन्याय नहीं होता तो आज तो सीनियर डॉक्टर के रूप में अपने आदिवासी भाइयों की सेवा सुश्रुषा में लगा होता|

हमारी राज्य सरकार आदिवासियों के प्रति बहुत संवेदनशील है इसलिए यह विश्वास किया जा सकता है कि चंद्रेश के मामले को टॉप प्रायोरिटी पर लिया जाएगा| उसके जीवन को फिर से संवारने के लिए सरकार कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी| हत्या के असली दोषियों को सजा दिलाएगी, राज्य की जांच एजेंसियों की जांच प्रक्रिया को और प्रभावी, साइंटिफिक और दोष रहित बनाने की कोशिश की जायेगी।