बिहार में सेक्युलर वोट नहीं बंटे इसीलिए एआइएमआइएम राजद और कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल होना चाहती है. इसके लिए बाकायदा महागठबंधन के दलों को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की ओर से पत्र लिखे गए है..!!
गठबंधन में आने के लिए मूलभूत आधार यह बताया गया है, कि राज्य में विधानसभा चुनाव में सेक्युलर वोटो का विभाजन न हो, इसलिए अगर हम सब मिलकर लड़ेंगे, तो बीजेपी के गठबंधन को हराया जा सकता है. गठबंधन होगा या नहीं होगा, इसमें बहुत सारे राजनीतिक पेंच हैं. लेकिन इस पहल ने यह बात तो साबित ही कर दी, कि महागठबंधन के राजनीतिक दल एंटी हिंदू राजनीति करते हैं. जो मतदाता उनके गठबंधन को वोट नहीं करते, उन्हें वह सेक्युलर नहीं मानते हैं. उनके अनुसार सेक्युलर होने का मतलब एंटी हिंदू होना है.
जहां तक ओवैसी का सवाल है, पिछले विधानसभा चुनाव में सीमांचल में उन्होंने पांच विधानसभा सीटें जीती थीं. इनमें से चार विधायकों को तोड़कर आरजेडी ने अपने साथ मिला लिया था. वर्तमान में उनके पास एक ही विधायक है. मुसलमानों से जुड़े मुद्दे की आक्रामक राजनीति के कारण ओवैसी ने अपनी पहुंच देश के मुसलमानों तक पहुंचाने में कुछ हद तक सफलता हासिल की है. उन्हें कांग्रेस और अन्य कुछ सेक्युलर दल बीजेपी की बी टीम भी मानते रहे हैं.
ऑपरेशन सिंदूर के बाद सांसदों के विदेश गए प्रतिनिधिमंडल में ओवैसी ने जिस तरह से पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक रूप से बातें रखीं, उससे मुस्लिम कट्टरता की उनकी देसी छवि टूटी है. उनकी राष्ट्रभक्ति को सराहा गया है. निश्चित रूप से उनका यह स्टैंड बीजेपी के लिए सुविधाजनक रहा है. अब जहां तक बिहार में चुनाव का प्रश्न है, ओवैसी की पार्टी चुनाव तो लड़ेगी, यह भी लगभग सुनिश्चित ही माना जा रहा है, कि महागठबंधन में उनको शामिल नहीं किया जाएगा.
राजनीतिक विश्लेषक ओबीसी के इस मूव को मुस्लिम वोटकटवा के तोहमत से बचने का प्रयास मान रहे हैं. उनके पत्र के बाद राजद की तरफ से जो प्रतिक्रिया आई है, उसमें यह कहा गया है, कि सेक्युलर वोट अगर वह विभाजित नहीं करना चाहते तो फिर उन्हें चुनाव लड़ने से दूर रहकर महागठबंधन का समर्थन करना चाहिए. किसी भी राजनीतिक दल को चुनाव से दूर रहने की बात करना राजनीतिक नहीं कहीं जा सकती. इससे यह संकेत जरूर मिल रहा है, कि ओवैसी की पार्टी का महागठबंधन के साथ शामिल होना मुश्किल है. वैसे ही महागठबंधन सीटों के बंटवारों को लेकर माथापच्ची कर रहा है. कांग्रेस और राजद के बीच सीटों को लेकर विवाद की स्थिति है.
वक़्फ़ कानून के पक्ष में मतदान करने के बाद जीडीयू के खिलाफ मुसलमानों में आक्रोश स्वाभाविक है. राजद के तेजस्वी यादव वक़्फ़ कानून के खिलाफ आक्रामक राजनीति कर रहे हैं. वह यहां तक कह रहे हैं कि उनकी सरकार बनी तो नए कानून को कूड़ेदान में फेंक देंगे. यह अलग बात है, कि राज्य सरकार को वक़्फ़ कानून में कोई भी बदलाव करने का अधिकार नहीं है. फिर भी राजनीति में तो तो विभाजन बढ़ाकर वोट बैंक को जो जोड़ सकता है, वह बोलने में कोई गुरेज नहीं होता, भले ही हो वह संवैधानिक हो या असंवैधानिक,
इमारतें शरिया द्वारा पटना के गांधी मैदान में आयोजित वक़्फ़ कानून विरोधी जलसे में तेजस्वी यादव के वक्तव्य को लेकर शरिया संविधान लागू करने तक के आरोप लगाए जा रहे हैं. उनके समाजवाद को नमाजवाद निरूपित किया जा रहा है. आरजेडी को ऐसा लगता है, कि मुस्लिम मतदाताओं के सामने महागठबंधन के पक्ष में मतदान के अलावा कोई रास्ता नहीं है.
जेडीयू ने वक़्फ़ कानून का समर्थन सोच समझ कर किया है. मुसलमानों में अमीर-गरीब का विभाजन और गरीबों को वक़्फ़ संपत्तियों से दूर रखने के षड्यंत्र के खिलाफ आया यह कानून गरीब मुसलमान को जेडीयू के साथ जोड़े रख सकता है. बिहार में पसमांदा मुसलमानों की भी काफी संख्या है. अगर मेरिट के आधार पर वक़्फ़ कानून पर मुस्लिम समाज में विचार किया गया तो फिर गरीब मुसलमान का समर्थन जेडीयू के साथ जा सकता है.
आम आदमी पार्टी ने भी बिहार में चुनाव लड़ने की घोषणा की है. वह भी अपने को सेक्युलर ही बताती है. दिल्ली में उन्हें मुस्लिम समर्थन मिलता रहा है. कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते दिल्ली चुनाव से तनावपूर्ण हो गए हैं. आम आदमी पार्टी ने राजनीति में जो कुछ भी हासिल किया है, वह सब कांग्रेस के जनाधार में ही सेंध लगाकर की है. चाहे दिल्ली में हो चाहे पंजाब में हो, यहां तक की गुजरात में भी आम आदमी पार्टी के बढ़ते प्रभाव के कारण कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ा था. अब बिहार में भी आम आदमी पार्टी अगर चुनाव मैदान में उतरती है, तो निश्चित रूप से इसका नुकसान महागठबंधन को ही होगा. भले ही आप चुनाव जीतने की स्थिति में न पहुंचे, लेकिन कांग्रेस और राजद के महागठबंधन को नुकसान जरूर पहुंचा सकती है.
बिहार में राजनीति का सेक्युलर धड़ा मुस्लिम वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने में लगा हुआ है. मुस्लिम वोटो के ध्रुवीकरण के लिए वक़्फ़ कानून के विरोध का सहारा लिया जा रहा है. यहां तक कि वोट बैंक को खुश करने के लिए असंवैधानिक बयानबाजी भी की जा रही है.
ओवैसी की पार्टी पिछले चुनाव में पांच सीटें जीतने में सफल रही थी, तो निश्चित रूप से वह कांग्रेस पार्टी से कम सीटें महागठबंधन से नहीं चाहेगी. पिछले चुनाव में राजद का विनिंग रेशियो बेहतर था. कांग्रेस की जीत का रेशियो बहुत कम रहा. इसीलिए महागठबंधन बहुमत से दूर हो गया था. आरजेडी इस स्थिति में नहीं है, कि वह एआइएमआइएम को इतनी ज्यादा सीटें ऑफर कर सके. ओवैसी चुनाव लड़ेंगे तो उन्हें बीजेपी की बी टीम के रूप में तोहमत न दी जा सके, इसीलिए उन्होंने महागठबंधन में शामिल होने के लिए पहल की है और पत्र लिखा है.
यह प्योरली पॉलिटिक्स है, वह मुसलमानों को भी मैसेज देना चाहते हैं कि वह मुस्लिम वोटो में विभाजन नहीं चाहते हैं. इसीलिए अपनी तरफ से महागठबंधन को प्रस्ताव दिया, लेकिन फिर भी महागठबंधन ने उनको दरकिनार कर दिया. मजबूरी में उनकी पार्टी को चुनाव लड़ना पड़ रहा है.
मुस्लिम वोट बैंक के लिए राजनीतिक दांव किसी के भी कुछ भी हो लेकिन इसके लिए संविधान को दाव पर नहीं लगाया जा सकता. एनडीए के मतदाताओं को एंटी हिंदू मानना ना केवल उनकी अवमानना है, बल्कि यह संविधान का भी अपमान है. कम्युनल स्क्रिप्ट पर खड़ा राजनीति का सेक्युलर फिक्शन काउंटर ध्रुवीकरण बढ़ा रहा है.