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कुर्सी की लड़ाई में राहुल-सोनिया के सम्मान को चोट पहुंचाई

सार

कांग्रेस के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार अशोक गहलोत ने राजस्थान में कुर्सी की लड़ाई में कांग्रेस की लुटिया डूबा दी है। जिस गांधी परिवार ने गहलोत को अपना सबसे विश्वसनीय सिपाही मानकर गैर गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का फैसला किया था, उसी गहलोत ने सोनिया गांधी, राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का भरी सभा में चीरहरण कर दिया है। 

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विस्तार

पूरे घटनाक्रम से कांग्रेस आलाकमान और लीडरशिप की जगहंसाई हुई है। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को पलीता भी गहलोत ने लगा दिया है। वैसे तो गांधी परिवार को ईश्वर का शुक्रगुजार होना चाहिए कि गहलोत को लेकर विश्वसनीयता की गलतफहमी अध्यक्ष बनने से पहले ही दूर हो गई। कल्पना करिए यह हालात अगर गहलोत द्वारा राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद निर्मित किये जाते तो फिर तो गांधी परिवार के पास कुछ नहीं बचता। जो काम गांधी परिवार के विरोधी नहीं कर सके वह काम गहलोत और उनके समर्थकों ने कर दिया।  

भारत में अपना सब कुछ बलिदान करने के बाद भी विदेशी महिला होने का आरोप झेल रही सोनिया गांधी ने कांग्रेस को खड़ा किया। जब विपक्ष यह कहता रहा कि वह सत्ता में नहीं रहेंगी तो देश छोड़कर चली जाएंगी, वह सब उन्होंने बर्दाश्त किया और ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे देश के मर्यादा-सम्मान और कांग्रेस की इज्जत कम हो। भरोसे का खून केवल सोनिया गांधी का नहीं हुआ है बल्कि राजनीति शायद अवसरवाद ही होती है, उसमें भरोसे का कोई स्थान ही नहीं होता। जब तक कुर्सी और पद मिलने में सुविधा हो तब तक ही व्यक्ति विश्वसनीयता का ढोंग करता रहता है जैसे ही पद छोड़ने की बात आती है तब सारी असलियत सामने आ जाती है। 

यही अशोक गहलोत के साथ हुआ है। गहलोत इतने अपरिपक्व, स्वार्थी और पदलोभी कैसे हो सकते हैं? जबकि उन्हें कांग्रेस अपना सिरमौर बनाने के लिए तैयार हो गई थी। अब सवाल सचिन पायलट का नहीं है, सवाल गहलोत की नियत का है। कांग्रेस मुक्त भारत का सपना विपक्षी भले नहीं पूरा कर सके लेकिन शायद गहलोत जैसे कांग्रेसी हैं जो इसको साकार करने के लिए जुटे हुए हैं। 

जो राष्ट्रीय अध्यक्ष राज्यों में मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय करता है उस पद पर पहुंचने वाले संभावित व्यक्ति का राजस्थान में जो आचरण रहा है, उसने राजनीति में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इसके पीछे राजनीतिक कारणों के साथ भ्रष्टाचार भी बड़ा कारण होगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी जनता के पैसे को लूटने और लुटाने का अवसर देती है। पार्टी अध्यक्ष के रूप में कार्यकर्ताओं और जनता के बीच संघर्ष की जरूरत पड़ती है। मुख्यमंत्री की कुर्सी की मलाई के कारण ऐसे नेता संघर्ष की क्षमता ही खो चुके हैं। अब तो गहलोत को राजस्थान की कुर्सी से भी हटाये जाने और अध्यक्ष पद के चुनाव लड़ने पर भी सवाल होने चाहिए। 

गांधी परिवार के प्रति सम्मान बताने के लिए गहलोत यह बयान देते रहे कि वह आखरी सांस तक राहुल गांधी को मनाएंगे, अगर वे नहीं माने तब अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेंगे। जिस नेता में यह साहस नहीं था कि वह राहुल गांधी और सोनिया गांधी को यह कह सकता कि वह मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते इसलिए उन्हें एक पद पर राजस्थान में ही रहने दिया जाये, ऐसा व्यक्ति जो अपने पार्टी अध्यक्ष और पार्टी के बीच धोखा कर सकता है वह मुख्यमंत्री के रूप में क्या कर रहा होगा? 

जिस नेता में अपनी पार्टी के ही व्यक्ति सचिन पायलट और उनके समर्थकों के प्रति नफरत की सीमा इतनी हो कि उन्हें पद से दूर रखने अपने समर्थकों से बगावत को प्रायोजित करा दे उसे क्या कहा जाये? गहलोत ने खुलेआम सब कुछ किया और अभी भी ऐसा कहने की कोशिश कर रहे हैं कि यह विधायकों का विद्रोह है। आलाकमान उनकी बात नहीं मानना चाहता था इसलिए विधायकों ने अपनी नाराजगी दिखाई है। 

गहलोत की राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राजस्थान में तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। तीसरी बार अभी वे मुख्यमंत्री हैं और दोनों बार जब वह मुख्यमंत्री थे तब चुनाव में पार्टी को जिता नहीं सके थे।  2013 के विधानसभा चुनाव में तो गहलोत की लीडरशिप में ही कांग्रेस बुरी तरह से पराजित हुई थी।  

सचिन पायलट 2018 में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उनकी लीडरशिप में कांग्रेस सत्ता में आई थी। स्वाभाविक रूप से पार्टी अध्यक्ष को जीत का श्रेय दिया जाता है। मध्यप्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को इसका लाभ मिला था लेकिन फिर भी अशोक गहलोत राजनीतिक जोड़-तोड़ से राजस्थान में मुख्यमंत्री बन गए थे।  

राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए निर्वाचन में अशोक गहलोत उम्मीदवार बनने जा रहे थे तब उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना था लेकिन राजस्थान में कांग्रेस हादसे का शिकार हो गई। कांग्रेस में जब भी गैर गांधी परिवार का अध्यक्ष रहा है तब पार्टी बिखरती  है। विपक्ष के दबाव में गांधी परिवार ने इस बार फिर गैर कांग्रेसी अध्यक्ष बनाने का फैसला किया है लेकिन अब हालात ऐसे हो गए हैं कि गांधी परिवार को फिर से विचार करना चाहिए कि अध्यक्ष का पद गांधी परिवार के पास ही रहे। गैर गांधी अध्यक्ष के बनते ही पार्टी के टूटने का खतरा बढ़ जाएगा, जिसका मॉडल राजस्थान में स्पष्ट दिख चुका है। 

अशोक गहलोत-सचिन पायलट और राजस्थान का मैटर सुलझाना अब कांग्रेस के लिए बहुत गंभीर मसला हो गया है। मध्यप्रदेश से कमलनाथ को इस मामले में रास्ता निकालने के लिए कांग्रेस आलाकमान ने बुलाया है। गांधी परिवार सलाहकारों के संकट के दौर में है या उन्हें सही तथ्यों की जानकारी नहीं होती है। जो कमलनाथ मध्यप्रदेश में पार्टी में बगावत को नहीं रोक सके और अपनी मुख्यमंत्री की कुर्सी जिन्हें गवानी पड़ी हो वह दूसरे राज्य में राजनीतिक संकट का समाधान कैसे कर पाएंगे?

गांधी परिवार को कांग्रेस अध्यक्ष का पद परिवार के पास ही रखना चाहिए। यही कांग्रेस के हित में होगा। यदि परिवारवाद की राजनीति के परसेप्शन से गांधी परिवार बाहर आना चाहता है तो उसे मुखौटाधारी अध्यक्ष बनाने से लाभ नहीं होगा। चाहे अशोक गहलोत के अलावा दूसरा कोई भी नेता हो। जो नाम चल रहे हैं उनमें दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, मुकुल वासनिक, केसी वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक और मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम चर्चाओं में है। यह सारे नेता गांधी परिवार के मुखौटे के रूप में ही देखे जाएंगे। जब मुखौटा ही बनाना है तो फिर परिवार की ओर से खुद पद लेने में आपत्ति क्यों होना चाहिए?

जो कांग्रेस स्वयं खंड-खंड हो रही है वह मोदी के मुकाबले विपक्ष को एकजुट करने का सपना कैसे देख सकती है? नीतीश कुमार और लालू यादव जैसे नेता कांग्रेस के सहारे भाजपा से मुकाबले का कैसे सोच सकते हैं? कांग्रेस का बचना जरूरी है लेकिन गद्दारी को कांग्रेस में सहन करना अब कांग्रेस को बर्बादी के रसातल पर ले जा सकता है। गहलोत को नाफरमानी की सजा मिलनी चाहिए। किसी भी तरह से अगर गहलोत बच गए तो फिर गांधी परिवार के लिए भी पार्टी चलाना मुश्किल हो जाएगा। गहलोत की बगावत आज पूरे देश में और मीडिया में सबसे ज्यादा चर्चित है। राहुल गांधी अपनी यात्रा निकालते रहें और खुद खुश होते रहें लेकिन देश तो गहलोत की बगावत की चर्चा कर रहा है।