सीएमओ, राज्य शासन का सबसे बड़ा धाम माना जाता है. इस धाम में अफसरों की पोस्टिंग सम्मान का विषय होती है. लेकिन एमपी का सीएमओ मानो कि अब ट्रांसफर स्टेशन बन गया है. डेढ़ साल में यहां इतने अफसर आए और गए कि, अब तो अनस्टेबिलिटी से डर लगने लगा है..!!
इस डेढ़ साल में तीन प्रमुख सचिव और एक अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर के सीनियर अफसर को सीएमओ से हटाया जा चुका है. आईएएस अफसरों की गणना की जाएगी तो लगभग आठ अफसर सीएमओ से बदले जा चुके हैं. ट्रांसफर एक सामान्य प्रक्रिया है लेकिन कम से कम प्रशासन के सबसे बड़े धाम में ट्रांसफर की यह गति सुशासन की निर्धारित परिभाषा को तो पूरा नहीं करते हैं.
मध्य प्रदेश में अब तक का इतिहास ऐसा रहा है कि, सीएमओ धाम में एक ही अफसर मुख्यमंत्री के साथ आता और उसी के साथ जाता रहा है. जिन मुख्यमंत्रियों ने लंबा कार्यकाल गुजारा है, उनके सीएमओ में भले ही फेरबदल हुए हों लेकिन फिर भी अफसरों का कार्यकाल काफी लंबा रहा है.
राज्य में तीन मुख्यमंत्री उमा भारती, बाबूलाल गौर और कमलनाथ ऐसे हैं, जिनका कार्यकाल बहुत कम समय का रहा. उमा भारती के पीएस आर. परशुराम थे. बाबूलाल गौर ने ओ.पी. रावत पर भरोसा किया. कमलनाथ तो ऐसे मुख्यमंत्री थे जो पूर्व के सीएमओ में पदस्थ प्रमुख सचिव अशोक वर्णवाल को अपने साथ बनाए रखा. वह मुख्यमंत्री पद से हट गए लेकिन वर्णवाल को नए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी कुछ समय तक सीएमओ में रखा. फिर उन्होंने मनीष रस्तोगी को अपना पीएस बनाया, जो कि नवम्बर 2023 में चुनाव तक उनके साथ रहे. फिर नए मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव आये तब उन्होंने रस्तोगी को हटाकर राघवेंद्र सिंह को अपना पहला प्रमुख सचिव बनाया.
डेढ़ साल के भीतर वर्तमान सीएमओ से राघवेन्द्र सिंह, संजय शुक्ला हटे और अब एसीएस राजेश राजौरा को हटाया गया है. सचिव स्तर के सीएमओ में आए और गए अधिकारियों में डॉ. विवेक पोरवाल, भरत यादव, अवनीश लवानिया शामिल हैं. इसके अलावा भी कुछ आईएएस अफसर सीएमओ में आए और उन्हें हटाया गया. अंशुल गुप्ता और अदिति गर्ग इसमें शामिल है. सीएमओ में पुलिस के जो ओएसडी होते हैं उनमें भी फ्रिक्वेंट बदलाव देखा गया है. जिन अफसरों के फ्रिक्वेंट ट्रांसफर देखे जा रहे हैं, उन सभी ने हर दौर में अपनी कॉम्पिटेंसी और परफॉर्मेंस को प्रूफ किया है.
दिग्विजय सिंह और शिवराज सिंह चौहान दो ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में लंबा कार्यकाल गुजारा है. इन दोनों मुख्यमंत्री के सीएमओ में जो भी अधिकारी रहे उन्होंने भी अपना लंबा कार्यकाल पूरा किया.
दिग्विजय सिंह तो ऐसे मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने दस साल तक अपने सेक्रेटरी में कोई बदलाव नहीं किया. मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने आर.एन. बेरवा और आर गोपालकृष्णन को अपने सचिव के रूप में पदस्थ किया और उनके दोनों कार्यकालों में यह दोनों अधिकारी सीएमओ में बने रहे. हालंकि उस वक्त पीएस जैसा कोई पद नियत नही था.
जहां तक शिवराज सिंह चौहान का सवाल है. उन्होंने भी अफसरों की निरंतता पर विशेष ध्यान दिया. उनके मुख्यमंत्री बनते ही इकबाल सिंह बेस और अनुराग जैन सचिव के रूप में सीएमओ में पहुंचे थे. दोनों अफसर उनके पहले टर्म में बने रहे. बाद में अनुराग जैन केंद्र में डेपुटेशन पर चले गए लेकिन इकबाल सिंह बैंस दूसरे कार्यकाल में शिवराज के साथ बने रहे. सीएमओ में ही वह प्रमुख सचिव बनकर रहे. फिर प्रशासनिक अनिवार्यता के कारण कुछ समय के लिए केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर चले गए.
फिर शिवराज सिंह चौहान ने केंद्र से वापस लाकर सीएमओ में प्रमुख सचिव के रूप में पदस्थ किया. उन्हें सीएमओ से तब हटना पड़ा, जब वह एसीएस के रूप में पदोन्नत हुए थे. प्रशासनिक स्ट्रक्चर में सीएमओ में एसीएस की भूमिका नहीं होती. अब तो एसीएस के रूप में राजेश राजौरा को सीएमओ में लाया गया था.
शिवराज सिंह चौहान के सीएमओ में एसके मिश्रा, विवेक अग्रवाल और हरिरंजन राव भी वर्ष 2018 तक सचिव और प्रमुख सचिव के रूप में काम करते रहे. यह अधिकारी जब पदस्थ हुए थे तब सचिव थे. इनको पदोन्नतियां भी सीएमओ में ही मिली. शिवराज सिंह चौहान जब चुनाव में पराजित हुए थे, तब एस के मिश्रा तो रिटायर हो गए थे. विवेक अग्रवाल और हरिरंजन राव केंद्र में डेपुटेशन पर चले गए थे और अभी भी वहीं कार्यरत हैं.
पिछले दो दशकों में सीएमओ में अफसरों की पोस्टिंग की क्रोनोलॉजी देखने से ऐसा लगता है कि, यहां पर पोस्टिंग मुख्यमंत्री की निजी पसंद होती है. कोई भी मुख्यमंत्री कम से कम अपने सचिवालय में तो चयन करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि, अफसर काम्पीटेंट हो, व्यवहार कुशल हो, परफॉर्मर के साथ ही रिजल्ट ओरिएंटेड हो. निश्चित रूप से वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा भी अपने सचिवालय में अफसरों का चयन करते समय इन पहलुओं का ध्यान रखा गया होगा.
सुशासन में काम के लिए अफसर की पोस्टिंग में एक स्टेबिलिटी आवश्यक होती है. अगर लगातार इतने सीनियर लेवल पर अफसरों के ट्रांसफर इस तरह से होते रहेंगे तो फिर ब्यूरोक्रेसी परिणाम कैसे दे सकेगी. अगर अफसर को यही भरोसा नहीं है कि उसको किसी विभाग में कितने समय तक काम करना है, तो फिर विकास के कोई भी प्रोजेक्ट सही ढंग से अंजाम कैसे दिए जा सकेंगे.
एमपी के सीएमओ में जितने समय में ट्रांसफर हो जाते हैं उतने समय में तो कोई भी परफॉर्मेंस संभव ही नहीं है. कॉन्सेप्ट से लगाकर प्लानिंग, सेंक्शन और इंप्लीमेंटेशन की प्रक्रिया में सालों का समय लगता है. और यहां तो कोई भी अफसर इतने समय तक टिक ही नहीं पाता है.
सीएमओ ही नहीं अन्य विभागों में भी अफसर कई बार बदले गए हैं. कुछ अफसरों का तो डेढ़ साल में पांच से छै बार तबादला हो चुका है. वरिष्ठ अफसर संजय कुमार शुक्ल, संजय दुबे, डीपी आहूजा और विवेक पोरवाल तो ऐसे अफसरों में शामिल हैं, जिनके कई तबादले इस बीच में हुए. जो नए एसीएस नीरज मंडलोई सीएमओ में गए हैं, उनके विभाग भी कई बार बदले जा चुके हैं.
ट्रांसफर मुख्यमंत्री का विवेकाधिकार है. इस पर सवाल नहीं हो सकता लेकिन सुशासन की प्रक्रियाएं तो निर्धारित ढंग से ही काम करती हैं. आम लोगों को व्यक्ति से नहीं व्यवस्था और सुशासन से मतलब होता है.
अगर सबसे बड़े धाम का अफसर ही धड़ाम से कभी भी ट्रांसफर कर दिया जाएगा, तो फिर बाकी का क्या कहना? अफसर का काम, योजनाओं और शहरों का नाम बदलने का मानसिक शीर्षासन सुशासन नहीं ला सकता. सुशासन के लिए स्थायित्व के साथ शैली और सोच का बदलाव भी जरूरी है.