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थैंक यू ! चीफ जस्टिस  सर

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sun , 27 Jul

सार

महिलाओं के सम्मान, गरिमा और समता के लिए सर्वोच्च अदालत ने जारी की नई शब्दावली

janmat

विस्तार

देश की सर्वोच्च अदालत ने नई शब्दावली जारी की है और यह प्रयास खासकर महिलाओं के सम्मान, उनकी गरिमा और समता के मद्देनजर किया गया है। इस लैंगिक और बेहतर पहल के लिए प्रधान न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ बधाई और साधुवाद के पात्र हैं।

हमारी अदालतों की भाषा वाकई कबीलाई और मध्यकालीन संस्कारों और सोच से प्रभावित है। अदालतों में भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, क्योंकि अधिकांश न्यायाधीश, वकील और कर्मचारी पुरुष हैं। महिलाओं की उपस्थिति न्यूनतम है, लेकिन भाषा के स्तर पर वही पुराना लैंगिक वर्चस्व का भाव है। बेशक याचिका हो या पुलिस, जांच एजेंसी का आरोप-पत्र अथवा वकीलों की बहस और न्यायाधीशों के फैसले हों, भाषाई स्तर बेहद आपत्तिजनक और तिरस्कारवादी रहा है। मसलन-वेश्या, बिन ब्याही मां, बदचलन, छोड़ी हुई औरत, रखैल आदि शब्द कमोबेश 21वीं सदी की भाषा के नहीं हो सकते। दरअसल भाषा हमारी चेतना को अभिव्यक्त करती है, लिहाजा मानसिक सोच को भी स्पष्ट करती है। कानून भाषा के जरिए ही जिंदा है।

अदालतों में जो शब्द इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, उनका हमारी जिंदगी पर बहुत प्रभाव होता है। कटघरे और अदालत में मौजूद महिला किसी की बेटी, बहन, बहू और पत्नी ही है, लिहाजा अपराध के बिना उसे लांछित क्यों किया जाए? प्रधान न्यायाधीश ने यह सामाजिक, भाषायी बीड़ा उठाया है, यकीनन इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। जस्टिस चंद्रचूड़ ने 43 शब्दों को फिलहाल रेखांकित करते हुए एक पुस्तिका जारी कराई है। उसकी शब्दावली में मां, यौनकर्मी, गृहिणी, अविवाहित महिला, होममेकर, फूहड़ या पवित्र महिला के स्थान पर सिर्फ ‘महिला’, कीप-रखैल-मिस्टे्रस के लिए ‘गैर मर्द से संबंध’ आदि शब्दों के प्रयोग के संशोधन किए गए हैं।

फिलहाल यह बेहद सीमित पहल है। महिलाओं के अलावा भी कुछ और शब्द जोड़े गए हैं, लेकिन अभी यह अनुसंधान जारी रखना चाहिए कि किन और शब्दों को बेहतर और सभ्य बनाया जा सकता है। पहली चुनौती यह है कि क्या अदालतों में इन बेहतर शब्दों का चलन तुरंत प्रभावी हो जाएगा? जो नए शब्दों के स्थान पर पुराने शब्दों को ही दोहराते रहेंगे, उनके लिए अदालत के निर्देश क्या होंगे? अथवा उन्हें दंडित भी किया जा सकेगा? न्यायपालिका में करोड़ों मामले लंबित या विचाराधीन हैं। उनकी भाषा बदलने के आधार और नियम क्या होंगे? अब नई विश्व-व्यवस्था और नए भारत में परिवार का ‘कमाऊ’ और ‘रोटी-प्रदाता’ सदस्य पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी हैं। अलबत्ता वे यौन और घरेलू सेवाएं भी प्रदान करती हैं। प्रकृति ने उन्हें ही ‘मातृत्व’ का वरदान दिया है, लिहाजा शब्दों और सोच का इस्तेमाल भी सभ्य और समता के स्तर पर किया जाना चाहिए।

चूंकि अदालत से सीधा संबंध पुलिस, जांच एजेंसियों का है, लिहाजा प्रधान न्यायाधीश नई शब्दावली के लिए पुलिस विभाग, गृह मंत्रालय और अन्य संबद्ध विभाग से भी आग्रह कर सकते हैं। हमारा मानना है कि देश की समूची व्यवस्था में कमोबेश ‘भाषायी परिवर्तन’ को जरूर लागू किया जाना चाहिए। तभी हम व्यावहारिक और आदर्श, सामाजिक तौर पर ‘लैंगिक समानता’ और ‘लैंगिक गरिमा’ की बात कर सकते हैं। बहरहाल नई शब्दावली का प्रयोग भी इसी संदर्भ में किया गया है कि भरी अदालत में औरत को कलंकित या लांछित न किया जाए। जो पुस्तिका जारी की गई है, उसे प्रवचन के बजाय व्यवहार में लिया जाना चाहिए।